रविवार, 30 जनवरी 2022

गांधी-मुद्रा पर कंन्फ्यूजन

सुबह-सुबह मुझे गांधी जी की पुण्यतिथि की याद आ गई, जो आज है। सुबह की टहलाई भूलकर मैं गांधी जी पर फोकस हो चुका था। सोच रहा था कि युग बदल रहा है, व्यक्ति की मान्यताएं और धारणाएं बदल रही हैं। लेकिन इधर बेचारे गांधी जी को लेकर बड़ा कंन्फ्यूजन उत्पन्न हो रहा है। पहले ये महात्मा हुए फिर राष्ट्रपिता हुए और जैसे-जैसे राजनीति परवान चढ़ी तो अवतार यानि कि ऊपरवाले की श्रेणी में भी आते ग‌ए। और इस श्रेणी में आते ही इन्हें लेकर विवाद होना शुरू हो गया। यह सही बात है कि ऊपरवाले को लेकर धरती पर और खासकर अपने देश में तो बहुत ही चकल्लस है! इन्हें रिलिजन, पंथ या मजहबी खांचे में फिट करके लोग खूब मेरा-तेरा करते हैं, पता नहीं इससे इनकी भद् पिटती है या रक्षा होती है यह तो वही जानें! लेकिन तेरा-मेरा करने वाले लोग अपने-अपने रसिकों के बीच खूब यश लूटते हैं और लोकतंत्र को परवान चढ़ाते हैं। वैसे तर्क करने के अधिकार का नाम ही लोकतंत्र है और कहते हैं कि तर्क से रौशन-ख़याली बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। लेकिन इस्मत चुगताई ने देश में बढ़ते रौशन-ख़याली को लेकर यह भी लिखा है "जितनी-जितनी मुल्क में रौशन-ख़याली बढ़ती जा रही थी, लोग शिद्दत से फ़िर्क़ापरस्त होते जा रहे थे।" तो क्या लोकतंत्र में फ़िर्कापरस्ती बढ़ती है? शायद बढ़ती भी हो, क्योंकि लोकतंत्र में आप्तवाक्यों का खूब चलन है। जितने प्रकार के महापुरुष हुए हैं उतने ही प्रकार के नेता हो ग‌ए हैं! तथा उतने ही प्रकार के आप्तवाक्यों के खांचे बनाकर लोकतंत्र को विकेंद्रित कर देश में लोकतंत्र को समृद्ध करने का कार्यक्रम चालू है! अब भला आप्तवाक्यों पर कोई तर्क कर सकता है, नहीं न। यही तर्कातीत होना ही तो फ़िर्कापरस्ती है।


         लेकिन मैं फ़िर्कापरस्ती की ज़हमत में नहीं पड़ना चाहता। मेरा कंन्फ्यूजन इस बात पर है कि गांधी जी की कौन सी मुद्रा स्वीकार करूं कि किसी विवाद में पड़े बिना इनका अनुयायी बनकर मैं भी देश के लोकतंत्र को समृद्ध कर इसके मजे ले सकूं! वैसे स्वतंत्रता के बाद महात्मा या राष्ट्रपिता वाली गांधी-मुद्रा का अब कोई अर्थ नहीं, इस रूप में ये महोदय अपनी सेवा समाप्त कर चुके हैं और खाली-पीली इनकी ऐसी अराधना से कोई लाभ भी नहीं, उल्टे लोग फ़िरकी भी ले सकते हैं कि देखो बड़ा गांधीवादी बना फिर रहा है! इस प्रकार इसमें लाभ की बजाय हानि ही ज्यादा है। रही बात गांधी के ऊपरवाले स्वरूप की तो इसमें भी फायदा नहीं! वैसे भी अपने देश में भगवान की वैरायटियों में क्या कोई कमी है, यहां तो प्रत्येक टाइप के संकट दूर करने वाले भगवान विराजमान हैं, यदि इनसे संकट दूर हो रहा होता तो यह देश संकट-मुक्त ही होता! वैसे आधुनिक युग में नाइंटी नाइन पर्सेंट संकटों को पैसे से दूर किया जा सकता है। इसलिए पैसे को खुदा मान लेने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन यदि किसी चीज को खुदा मान लेने से कोई साम्प्रदायिक समस्या उत्पन्न होती है तो फिर यह बात तो मानी ही जा सकती है कि पैसा खुदा भले ही न हो, लेकिन संकट दूर करने में खुदा से कम भी नहीं। इस प्रकार मैं समझता हूं कि पैसे हों तो आदमी हंड्रेड परसेंट संकट से मुक्त हो सकता है। शायद यही कारण है कि आज के युग में पैसे का ही बोलबाला है, लोग गांधी पकड़ा कर काम निकलवाने की बात खुलेआम कहते सुने जाते हैं। शायद संकटों के दृष्टिगत ही चारों ओर केवल गांधी पकड़ाई का ही कार्यक्रम चलन में है।


        अरे वाह! वाकई में गांधी के सब रूपों से बढ़कर यह गांधी-मुद्रा ही तो है जो संकट में ऊपरवाले से भी बढ़कर मदद करती है! और यही गांधी-मुद्रा है जो सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक, सर्वस्वीकार्य है और जिसकी धर्मनिरपेक्षता निर्विवादित रूप से सिद्ध है! बस मुझे समझ आ गया कि इस गांधी-मुद्रा को स्वीकार करने में कोई हीलाहवाली नहीं करनी चाहिए!! बल्कि अपने ऊपर आने वाले संकट की मात्रा और उसके प्रकार की कल्पना कर इस गांधी-मुद्रा को सम्मान के साथ खांचों में संरक्षित करते जाना चाहिए! चाहे इसके लिए घर में बेसमेंट के साथ उसकी दीवारों, आलमारियों में ऐसे गोपनीय खांचे ही क्यों न बनवाने पड़े!! भला इससे बढ़कर गांधी जी के सम्मान और संकट से अपनी रक्षा करने का कोई दूसरा उपाय हो सकता है, नहीं न? 


      तो, जब अकर्मण्य और चुक चुके लोग हाल ही में एक व्यापारी के घर से बरामद बेशुमार गांधी-मुद्रा का उदाहरण देकर और उसके जेल की हवा खाने की बात बताकर कहें कि गांधी का ऐसा सम्मान करने में भी आफत है, तो उसकी बात हवा में उड़ाकर उसपर कान न धरा जाए! क्योंकि उसकी बातें राजनीति से प्रेरित हो सकती है, ऐसा राजनीतिपरस्त व्यक्ति आप और देश के लोकतंत्र, दोनों को हानि पहुंचाना चाहता है।


          इस निष्कर्ष की प्राप्ति के साथ आज की सुबह मुझे बेहद मानसिक शांति की अनुभूति हो रही है। बाहर हॉकर के द्वारा अखबार फेंके जाने की आवाज आई है। अखबार उठाने चल रहा हूं। #चलते_चलते मुझे गांधी के मान पर एक बात याद आई। गांधी के आग्रह पर एक बार गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिण अफ्रीका ग‌ए। वहां से लौटते समय उन्होंने गांधी जी को समझाया था कि 'देखो, हम सब बूढ़े हो रहे हैं। हम लोगों का क्या ठिकाना, कब पके आम की तरह झर जाएं। तुम्हारी अपनी मातृभूमि के प्रति भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी यहाँ बसे भारतीय भाइयों के प्रति‌। देशभक्ति का किसी भी दूसरी भक्ति से कोई मुकाबला नहीं।... यह एक ऐसी लकीर है जो एक बार खिंच गई तो मृत्यु भी हार जाती है पर वह नहीं मिटती।' इसके बाद गांधी से बोले, 'मैं तुम्हारा इंतज़ार करुंगा। देश को तुम्हें सौंपे बिना नहीं मरुंगा।' और गांधी जी भारत लौटे भी थे। बाकी इतिहास आपको भी पता है, इससे सिद्ध होता है कि गांधी जी इस देश की गुलामी का संकट दूर करने के काम आए थे। इससे यह भी सिद्ध है कि गांधी जी संकट के समय काम आते हैं।