शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

अपने-अपने आभामंडल

      अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग हैं। कुछ लोग तो अपने इस आभामंडल के प्रति इतने जागरूक होते हैं कि देवताओं से प्रेरणा लेते देखे जा सकते हैं। मतलब जितना बढ़िया जिसका आभामंडल, उतना ही बढ़िया उसकी पूजा और चढ़ावा। एक बात और, कुछ लोग अपना आभामंडल स्वयं गढ़ते हैं, तो कुछ दूसरों से गढ़वाते हैं! इसके लिए बकायदा अभियान भी चलाते हैं, मतलब इसपर बहुत बारीकी से काम होता है। इस मामले में एक छोटा सा उदाहरण फेसबुकियों का ले सकते हैं, लाईक-कमेंन्ट की चाहत में, इन्हें अपने-अपने आभामंडल को बहुत बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते हुए देखा समझा जा सकता है।

           आखिर, किसी को कुछ तो समझा जाए..! यही समझने-समझाने के लिए यहाँ शूरता-वीरता, आदरणीयता-फादरणीय, स्वघोषित दानवीरता या फिर स्वनामधन्य ख्यातिलब्धता जैसी हरकतों पर फोकस जाता है, हाँ कुछ इसी टाइप से गुणीजन सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और, इसके पहले कि कोई अन्य व्यक्ति इन गुणी प्रतिभाओं का सम्मान करे उसके पहले हमें ही यह काम कर देना चाहिए, नहीं तो इसमें चूक अपने स्वयं के लिए गढ़े जा रहे आभामंडल को क्षति पहुँचती है क्योंकि हम अपने और दूसरे का आभामंडल इसी तरह गढ़ सकते हैं। यह गढ़न-प्रक्रिया एकदम से नियत परिक्रमा-पथ पर नक्षत्रीय गति की तरह ही है! इस मामले में चाहे सोशल-मीडिया हो या फिर राह चलते, लोगों की दरियादिली देख मुझे अपनी बेदरियादिली खटकने लगती है और मुझे अपने ऊपर बहुत कोफ्त होती है ! 

               अब यही बात ले लीजिए, आखिर गरीबी का भी तो अपना आभामंडल होता है, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, भीख देना मुझे लगभग नापसंद है। भीख न देना पड़े इसलिए जेब में सिक्के लेकर नहीं चलता और जेब में सिक्का न होने की बात से भीख न देने के पापबोध से स्वयं को बचा भी लेता हूँ। आखिर भीख में लोग सिक्के ही तो डालते हैं कटोरी में.! 

             एक सुदूर धार्मिक यात्रा-पथ पर जब छोटे बच्चे का हाथ पकड़े एक औरत ने अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास किया, तो मैंने उसे नजरअंदाज कर दिया था। अपने इस प्रभाव को असफल होते देख वह मुझसे बरबस बोली थी "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर मैंने जब उससे कहा "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़कर यह बोलते हुए, "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी। इसलिए मैं कहता हूँ, यदि हम किसी के आभामंडल का सम्मान नहीं कर रहे तो हो सकता है पाप कमा रहे हों..! पाप-पुन्य, मतलब दंड-पुरस्कार के फेर में भी हम आभामंडलों के गिरफ्त में आ जाते हैं..!! 

        लेकिन इसमें भी बड़ी समस्या है, उस यात्रा-पथ पर ट्रेन में मैं अनमने ही सही, एक अंधे पर कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरी इस दयालुता पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे, ये सब बने होते हैं।" और उसने इस मामले में मुझसे अपनी सिद्धानुभूति के हवाले से कहा, "ऐसे ही मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी, मैंने देखा ट्रेन रूकते ही वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था..वाह! पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" उसकी इन बातों से मेरी उभर आई दयालुता के उत्साह पर पानी फिर चुका था। फिर भी मन ही मन मुस्कुराते हुए मैं यह सोच रहा था कि "यदि ऐसे भिखमंगों को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक जीत ही लें! और पदकों का जखीरा अपने देश के कब्जे में हो...लेकिन जिम्नास्ट तलाशना सरकार का काम है और सरकार ऐसे काम ऐसे ही नहीं करती..तो इन बेचारों के लिए यह भिखमंगई ही बढ़िया है जिसमें बिना किसी हुचकीधमधम के काम बन जाता है..ऐसी प्रतिभा का इससे अच्छा उपयोग कहाँ होगा..।" खैर 

            हमारी ट्रेन पटरी पर दौड़ती जा रही थी। मैं देख रहा था..एक सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, लेकिन अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात पर गौर जरूर किया लेकिन ट्रेन की खिड़कियों से, पीछे भागते जमीन, पेड़ आदि को देख यह सोच रहा था कि गति अवस्था में चीजें कैसे पीछे छूटती जाती हैं और ट्रेन की गति के साथ मैं भी इन बातों को पीछे छोड़ता रहा।

          थोड़ी देर बाद सही में, मुझे ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." मैंने उस आवाज के श्रोत की ओर ध्यान दिया तो एक शख्स उस तालीबाज को नोट पकड़ाते हुए दिखाई पड़ा! मैं देखा रहा था, जिसकी ओर भी वह हाथ बढ़ाता वही दस का नोट उसे पकड़ा देता..और अगर कोई अानाकानी करता तो उसकी अश्लीलता भरी छेड़खानी शुरू हो जाती ! उसे अपने ओर आते देख मैं साहस बटोर यह निश्चय करने में जुट गया कि "इन्हें एक पैसा भी नहीं देना...जब उन बेचारे टाइप के भिखमंगों को नहीं दिया तो इन्हें देना एकदम ऊसूलों के खिलाफ और कायराना बात होगी..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही दे देना उचित होता..!" और तालीबाजो की इस हरकत को एक तरह से उनकी गुंडागीरी मान रेल-यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, इधर मेरे पास बैठे तीन-चार कश्मीरी यात्रियों की ओर ये हाथ बढ़ा-बढ़ाकर दस का नोट देते रहे। लेकिन मैंने गौर किया, पता नहीं क्यों मेरी ओर एक बार भी इनका हाथ नहीं बढ़ा और आसन्न धर्मसंकट से बच गया। जबकि मेरे बगल में बैठे भिखमंगे को दुत्कारने वाले सहयात्री से ये दस का नोट लेकर ही छोड़े। वाकई, कभी-कभी ओढ़ी हुई धीरता और गंभीरता वाला आभामंडल किसी के गुंडागीरी वाले आभामंडल से आपको बचा भी सकती है, यहाँ मुझे आभामंडलों का उपयोग भी समझ में आया।

            एक बात है इस यात्रा से मिली सीख के अनुसार, मुझे तो आभामंडल गढ़ना-गढ़वाना एक प्रकार की भिखमंगई प्रतीत हुई, जो ताली बजाने और बजवाने वाली अपने-अपने टाइप की हिजड़ागीरी ही है..! वैसे ये आभामंडल बड़े कमाल के और रहस्यात्मक होते हैं..!! 

शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

बोरियतनामा

          मैं बैठे-बैठे बोर हो रहा हूँ..बोरियत भगाने के लिए कुछ लिखने की सूझ रही है..लेकिन यहाँ का दृश्यमान वातावरण बोरियत भरा होने के कारण विषय-विहीन प्रतीत हो रहा है, फिर भी लिख रहा हूँ...एक ओर कुछ बड़े-बूढ़े और बच्चे ताजिए का जुलूस उठने के इंतजार में बोर हो रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर सब्जी बेंचने वाला ग्राहक के इंतजार में..! इधर मेरे अगल-बगल बैठे चार-छह लोग बोरियत से बचने के लिए आपस में बतिया रहे हैं, तो वहीं कुछ कुर्सियाँ अपने खालीपन की बोरियत में बोर हुए आदमी की तलाश कर रहीं हैं। और उधर सामने छत पर खड़ी वह बेचारी अकेली लड़की भी इधर-उधर देखते हुए जैसे अपनी बोरियत दूर भगाने का प्रयास कर रही है...

            ...और अब मेरे सामने भुना चना रख दिया गया है, मैं अपनी बोरियत भगाने की गरज में एक-एक चना लेकर टूँगना शुरू कर देता हूँ..लेकिन यह महराया चना अपनी बोरियत से मेरी बोरियत द्विगुणित कर रहा है...निश्चित ही भड़भुजवा और दुकानदार दोनों लम्बी अवधि वाले बोरियत के शिकार होंगे...इधर जलेबी-समोसे वाला दुकानदार भी बोरियत का मारा दिखाई पड़ रहा है, जो अपनी ओर निहारते उस कुत्ते की बोरियत से अनजान है..! बेचारा कुत्ता उसे निहार-निहार कर बोर हो रहा है...जबकि वहीं जलेबी और समोसे पर बैठ-बैठ कर मक्खियाँ बोर हो रहीं हैं और बेचारी भिनभिना-भिनभिना कर अपनी बोरियत दूर कर रही हैं..! यहाँ बोरियत का ऐसा आलम है कि चौराहे पर लगा स्वच्छता का संदेश देने वाला वह फ्लैक्सी भी सामने पड़े कूड़े की ओर देख देख अपनी बोरियत में फटा जा रहा है, और बेचारे कूड़ागण हमारी बोरियत में खलल न पड़े, यह सोच-सोचकर यहाँ-वहाँ पड़े-पड़े बोर हो रहे हैं..! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे, यहाँ क्या आदमी...क्या जानवर और क्या कूड़ा...सभी अपनी बोरियत के साथ एक दूसरे की बोरियत से भी बोर हो रहे हैं...

           हाँ. मैं देख रहा हूँ...काफी देर से बैठा एक आदमी अपनी बोरियत से बोर होकर दूसरी जगह बोर होने के लिए उठकर चल दिया..तथा...अब तक आसमान में छाये छाये बोर हो रहे बादल भी अपनी बोरियत दूर करने के लिए बूँद बन टपकने लगे हैं और इन बूँदों से हमारी बोरियत में खलल पड़ा..हाँ, गजब! एक की बोरियत दूसरे की बोरियत भगाने के काम आती है..! लेकिन बादलों को आसमान में बोर होना मंजूर है, हमारी बोरियत दूर होना नहीं..और बादल बूँद बनना बंद हो गए..! 

          खैर, इस कायनात की बदौलत हमारी बोरियत दूर होने से रहा..! लेकिन यहाँ का मानव जरूर बोरियत दूर करने में माहिर है..क्योंकि अभी-अभी बोरियत दूर करने के लिए लिखने की अपेक्षा बात सुनने की विधि पर ध्यान गया...बातों का लब्बोलुआब यह निकल कर आया है कि कुछ अपने कार्यक्षेत्र में इस हद तक बोरियत के मारे होते हैं कि किसी चौराहे पर "चींटी की एक टांग क्यों टूटी" इसे जानने के लिए हलकान हो उठते हैं..! वाह!!  यह महानता से ओतप्रोत टाइप की बोरियत है और इस टाइप की बोरियत से देश सुधारा जा सकता है..!!! खैर.. 

            जुलूस आने की सुगबुगाहट से हमारी बोरियत में खलल पड़ने का अंदेशा उत्पन्न हो गया है..अरे हाँ! एक बात और ये जुलूस-फुलूस बोरियत में डूबे लोगों की बोरियत के विरूद्ध सामूहिक प्रतिक्रिया है..जिस जुलूस में जितनी भीड़ होगी उसी अनुपात में उसमें बोरों की संख्या होगी..हाँ "बोरियत-भाव" की एक खासियत यह कि यह धर्म, जाति, सम्प्रदाय से परे रहने वाली चीज होती है और सही मायने में इसमें एक टाइप का सेक्युलरिज्म होता है, हाँ इस सीमा तक हमारा देश बेहद सेक्युलर देश है..इस बात का अनुमान विभिन्न समयों पर उठते-बैठते सड़क चौराहों पर निकलते जुलूसों को देखकर लगाया जा सकता है.... 

          चलते-चलते हम एक बात और कहना चाहते हैं..जिस नेता के पीछे जितनी अधिक भीड़ होगी वह नेता या तो लोगों की बोरियत पहचानने में माहिर होगा या फिर बोर हो रहे लोगों का सरताज होगा! लेकिन इस देश में बोरियत की भी अपनी एक समस्या है, यहाँ बोरियत किसी एक बात के आधार पर टिकाऊ नहीं, कि कहें, बेटा! हम तो इस कारण से ही बोर हो रहे हैं..!! यहाँ बोरियत एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है...आज इस बात से तो कल उस बात से हमें बोर होना ही है..इसी वजह से बोरों के सरताजों या कहें बोरियत के विशेषज्ञों के लिए सार्वकालिक कठिनाई बनी रहती है..ये बेचारे! बोरियत को पहचानने और उसके पीछे के कारण पर शोध करते हुए बोर हो-होकर हलकान हो जाते हैं..और बोरियत है कि दूर होती ही नहीं... 

          लो भाई!  जुलूस अब पास आ गया हमारी बोरियत दूर हुई..लेकिन हमने आपको बोरियत- बोरियत पढ़ाकर जरूर बोर कर दिया है... कोई बात नहीं, क्षमा करिएगा..आखिर यह बोरियतनामा ही तो है..!!! 

तेल की दाम और बैलेंसिंग पावर

        पेट्रोल पंप का कर्मचारी कार की टंकी में पाइप का नोजल डालकर इत्मीनान से नोट गिनने लगा और मैं पंप के डिजिटल मानीटर पर लीटर और रूपए पर निगाह जमाए सन् चौरासी-पिचासी में अपने विजय सुपर स्कूटर को याद कर रहा था। वो भी क्या दिन थे, सात रूपए में एक लीटर पेट्रोल! लेकिन तब शायद ही कभी उसकी टंकी फुल हुई हो। उन दिनों बिजली-उजली न होने पर (अकसर नहीं होती थी) पेट्रोल पंप वाला हैंडिल घुमाते हुए पेट्रोल भरता। कार की टंकी फुल हुई और चौबीस लीटर पेट्रोल के दो हजार रूपए चुका कर सड़क पर आ गया। आगे बढ़ने पर देखा तेल-ओल के दाम से निश्चिंत घिसई सड़क पर अपने अरयें पैदल चला जा रहा था। अबकी बार मैं आम आदमी को नजरअंदाज करने वाले नेता की तरह उसके बगल से निकल लिया। 

          इतने वर्षों में तेल के दाम खूब बढ़े, लेकिन दो की जगह चार पेट्रोल-पंप भी खुले। जहाँ पहले बिजली के लिए सेहक रहे थे, वहीं विद्युतीकरण हुआ। यही नहीं एक दौर में बढ़े तेल के दाम को मनरेगा ने जस्टीफाई किया और इसके साथ ही आयी आटोमोबाइल क्रांति ने किसी बड़ी नदी के झरने जैसा तेल का खपत बढ़ाया। मतलब मनरेगा से महँगाई की अर्थव्यवस्था बैलेंस हुई, वहीं दूसरी ओर जनता भी खुश हुई थी..! हाँ, जब-जब तेल के दाम बढ़ते हैं, मनरेगा जैसी क्रांति भी आती है, और फिर महँगाई छू-मंतर हो जाती है। फिर भी हम तेल के बढ़े दाम का रोना रोते हैं।

        अचानक मैंने देखा, तेल के दाम को मुँह चिढ़ाते हुए किसी राजनीतिक पार्टी का झंडा लगाए तीन लक्जरी कारें मर्सिडीज, फार्च्यूनर और क्रेटा दना-दन मेरी कार को ओवरटेक कर गये। सिर खुजलाते हुए मैंने सोचा, जरूर ये तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध किसी धरने में जा रहे होंगे या फिर इनकी यह भाग-दौड़ बढ़ी महंगाई को बैलेंस करने की कवायद होगी। खैर, आगे हमारी कार एक वृहत्तर जाम में फंस गई..आगे-पीछे कार ही कार। हाँ कुछ ही क्षणों में मैंने स्वयं को ठहरी हुई कारों के सैलाब के बीच में पाया..वाकई! लोगों का महँगाई के विरूद्ध वृहत्तर बैलेंसिंग पावर देख मैं हतप्रभ था..!!

         एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, जो भी हो अपने देश में आम से लेकर खास तक, सब में अद्वितीय बैलेंसिंग पावर है! नागरिकों में विद्यमान इसी गुप्त पावर से पूरा देश गतिमान है, जिसमें ध्यान भंग करने की कला लुब्रीकेंट का काम करती है। इसीलिए प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन तक भारत-भूमि पर ध्यान भंग करने का कल्चर खूब फला फूला ! नमूने के तौर पर एक अखबार के मुखपृष्ठ पर छपे "तेल में जारी उबाल, रूपये में गिरावट" के ठीक बगल में इसका मुँहतोड़ उत्तर "बँगलादेशी घुसपैठियों को चुन-चुन कर निकालेंगे" भी छपा मिल जाता है। मतलब ध्यान भंग करने की कला के मार्फत राजनीति अर्थव्यवस्था को भी बैलेंस करती है। इसीलिए हम अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों टाइप के कथनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं। लेकिन जनता को जियादा राजनीति-फाजनीति या अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से मतलब नहीं होता, वह भी महँगाई को अपने मुफ्तखोरी से बैलेंस कर ले जाती है। इसलिए सरकारें अपनी रियाया के लिए मुफ्तखोरी के एजेंडे लेकर आती है।  

           वैसे असलियत में यहाँ महँगाई कोई मुद्दा नहीं होता, बस हमाम में घुसने भर की देर होती है और फिर सारा कुछ बैलेंस हो जाता है। लेकिन हमाम में घुसे हुए को इससे बाहर वाला पसंद नहीं आता। वह सब को इसमें घुसाना चाहता है। एक बार एक छोटा मुलाजिम हमाम में घुसने से बचना चाह रहा था, इस बात से चिढ़े बड़े मुलाजिम ने बैलेंस करने की गरज से उसे खूब हड़काए और चार्जशीट कर देने की धमकी दे दिए। इस पर उस अधीनस्थ ने अपने उन बड़े साहब के महँगाई से लड़ने के लिए जुटाए संसाधनों पर कटाक्ष किया और कहा, "फिर तो साहब हमसे पहले स्वयं आपको चार्जशीटेड होना पडे़गा" इसपर उन बड़े मुलाजिम ने उसे "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" घोषित कर उस पर हाथ रखना बंद कर दिया। हाँ,  कभी-कभी ऐसे ही "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" के कारण महँगाई से लड़ने का प्लान फेल्योर होता है और मजबूरन तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध आन्दोलन छेड़ना पड़ता है। 

           खैर, लौटकर घर आने तक कार में भराया चौबीस लीटर पेट्रोल फुँक चुका था और मैं मन ही मन तेल के लिए खर्चे दो हजार रूपए के जुगाड़ हेतु अपने "बैलेंसिंग पावर" की ओर फोकस कर रहा था। 

रूपए का गिरना

             पेट्रोल पंप की ओर कार मोड़ते ही मुझे घिसई दिखाई पड़ गया। देखते ही मैंने उसे जोर से पुकारा, "का हो घिसई का हालचाल बा?" हालचाल पूँछने से खुश हुआ घिसई मेरे पास आकर बोला, "सब गुरू का आशीर्वाद हौवे.." वैसे मैं कोई गुरूवाई नहीं करता और न ही इसे कोई "गुरु-मंन्त्र" दिया है लेकिन इसका "गुरू" वाला संबोधन मुझे खुशी दे जाता है। खैर, उसके मेरे पास आने से गांजे की गंध मेरे नथुनों में पहुँच गयी..मैं समझ गया कि इसने अवश्य गाँजा चढ़ा रखा है..असल में क्या है कि गाँजे का नशा उसे सारी समस्याओं से मुक्त कर देता है, सूदखोरों से लिया कर्ज हो या फिर रूपये का चढ़ना उतरना, यह सब वह भूल जाता है..! मैं ठहरा थोड़ा बुद्धिजीवी टाइप का और ऊपर से उसका "गुरू" का संबोधन सोने पर सुहागा, तो मैं उस मूढ़मति को रूपये के गिरने की बात से जागरूक करने की तरकीब सोचने लगा कि आगे वह कुछ ऐसा करे कि रूपया गिरने की नौबत न आए। उसके गांजे की गंध से परेशान मैं बोला, "यार घिसई, तुम्हारा गाँजा छूट नहीं रहा..जबकि रूपया भी गिर रहा है..." यह सुन पहले तो वह सकपकाया, फिर नीचे इधर-उधर दायें-बायें देखा और फिर अपनी जेब टटोलकर खीं-खीं करते हुए बोला, "का गुरू रूपया कहाँ गिरा है? रूपया तो मेरी जेब में ही है..।" 

          जैसा कि बुद्धिजीवी लोग नासमझों पर झल्लाते हैं, ठीक वैसे ही मैं भी उससे झल्लाहट में बोला, "यार घिसई..तुम चाहे जितना घिस जाओ, लेकिन तुम्हें अकल नहीं आयेगी...रूपया तुम्हारी जेब से नहीं डालर से गिरा है..." मेरी बात पर अब वह खुल कर हँस पड़ा और बोला, "का गुरू..हमका ओत्ता मत बनावा...रूपया कतऊँ डालन पर फरsथैै..जउन डालन से गिर पड़े..? अऊर गुरू..! अगली बार महकऊआ गुटका खाए रहब..तs..ई गंजवा न महके.." उसकी बात पर मैंने अपना माथा पकड़ लिया..कहना तो चाहा कि "तुम..गांजे और गुटखे में ही चूर रहोगे..तुम दो हजार ओनइस नहीं समझ पाओगे..!तुम्हें दूर की सोच नहीं है..इसीलिए तुम रूपये का गिरना नहीं समझ पा रहे हो.." लेकिन कहने से मेरी हिम्मत जवाब दे गयी। 

             फिर भी घिसई को रूपये का गिरना समझाना जरूरी था! क्योंकि बात अब दो हजार ओनइस की चल निकली है। हालांकि मैं डालर के बजाय रूपए को किसी और चीज से गिराने की तरकीब पर विचार कर रहा था कि गाँजा के साथ उसके गुटखे की बात पर मुझे कोफ्त हो आयी। मैं समझ गया कि इसे समझाना बड़ा मुश्किल काम है और समझाने की गुंजाइश भी खतम.! अमेरिकनों का डालर गिरने से रहा, वे तो सौ डेढ़ सौ वर्ष आगे की बात सोचते हैं, जबकि हम पाँच साल की प्लानिंग वाली परम्परा से हैं, हमारा रूपया तो गिरता उठता ही रहेगा।फिलहाल रूपया उठाने की जगह जी डी पी बढ़ा दिया गया है..अब सारा कुछ बैलेंस ! 

             इस बीच गांजे की महक को छिपाने के लिए घिसई महकऊआ गुटखे की गोमती की ओर लपक लिया था, और इधर मैं भी सर खुजलाते हुए पेट्रोल पंप की ओर। इस बार मैंने कार में चौबीस लीटर पेट्रोल भरवायी जो हाल के दिनों में मेरे लिए एक रिकार्ड की बात थी। 

रविवार, 2 सितंबर 2018

मांसाहारी कि शाकाहारी?

           तमाम मानसिक ना-नुकुर के बाद पाँच पैंतालीस..हाँ इसी टाइम सुबह टहलने निकला..सड़क पर कुछ कदम चलने पर आभास हुआ कि पहनी हुई मेरी टी-शर्ट का रंग कुछ बदला हुआ है.. "टी-शर्ट तो वही पहनी थी जिसे रोज पहनता हूँ..फिर रंग कैसे बदल गया इसका...!" ऐसा मैंने सोचा। एक बार फिर मैंने ध्यान से टी-शर्ट को देखा.."अरे! इसे तो, मैंने उल्टा पहन रखा है..!!" जैसे अबकी बार मुझे समझ आयी। खैर, बेवकूफियों के बाद समझ आती है और इस समझ के बाद हम थोड़ा राजनीतिक हो लेते हैं..परिणामत: लम्बे हाथ सड़क पर मैंने निगाह डाली, इक्का-दुक्का लोग आ-जा रहे थे..सड़क पर चलते हुए टी-शर्ट उतारकर फिर सीधा पहना और इस प्रकार अपनी बेवकूफी से निजात पायी।
          टहलते हुए मैं एक दूसरे सड़क मार्ग पर हो लिया...लेकिन कुछ दूर जाकर मुझे वापस होना पड़ा...क्योंकि आगे कुछ लोगों का निधड़क "शौच कार्यक्रम" चल रहा था।  एक व्यक्ति जो अपने हाथ में पानी भरी बोतल लिए हुए था एक अन्य व्यक्ति से बतियाते हुए सुनाई पड़ा, "औरतों के लिए तो पाँच बजे सबेरे तक ही ठीक रहता है.." असल में ये महाशय भी हाथ में पानी का बोतल लिए मैदान खाली होने का इन्तजार कर रहे थे! शायद ये कुछ शर्मीले टाइप के थे। सच में, अभी तक हम खुले में शौच को कुरीति नहीं मान पाए हैं..
           आवास पर लौट आया था और यूँ ही चन्द्रकान्त खोत की पुस्तक "बिम्ब प्रतिबिंब" के पन्ने पलटने लगा था। स्वामी विवेकानंद के मुँह से कहलायी गई इसकी कुछ पंक्तियाँ बरबस ध्यान को आकृष्ट कर रही थी, जैसे, "सिद्धि प्राप्ति की भूख व्यक्ति के बौद्धिक अवनति का लक्षण है। सिद्धि प्राप्त व्यक्ति तमाम वासनाओं का शिकार हो सकता है।"
        
          इसीतरह "सिंह जैसा मांसाहारी प्राणी एक शिकार करके थक जाता है, किंतु बैल जो शाकाहारी होता है, पूरा दिन चलता है। चलते-चलते ही खाता है और सोता है।" "सत्वगुण के विकास के बाद मांसाहार की इच्छा नहीं होती, किंतु सत्व गुण के लक्षण हैं...परहित के लिए सर्वस्व का समर्पण, कामिनी-कंचन के प्रति सम्पूर्णतः अनासक्ति, निरभिमान और अहमभाव का सम्पूर्णतः अभाव। ये सभी लक्षण जब एक व्यक्ति में समाहित हो जाते हैं तो उसे मांसाहार की इच्छा नहीं होती।" " किसी भी प्रकार के राजनीति पर मेरा विश्वास नहीं है। ईश्वर और सत्य - यही विश्व में श्रेष्ठ राजनीति है। शेष सभी झूठ है, तुच्छ है..।" 
           हाँ बस यूँ ही मैं इन पंक्तियों पर भटकता रहा...एक बात है, शाकाहार या मांसाहार की बात से बढ़कर एक दूसरी चीज है, वह है पाखंड रहित आचरण..। खैर.. आज मैंने अपने दिन की सुबहचर्या अपनी बेवकूफी के साथ शुरू किया था, तो..
        #चलते_चलते 
         हम अपने बेवकूफियों के क्षण में राजनीति और पाखंड से दूर शुद्ध मन वाले होते हैं..यह शाकाहारी होने का लक्षण है..!!
            #सुबहचर्या 
             (30.8.2018)

ज्ञान का ज्ञान

          आज जब बाहर सड़क पर टहलने निकले तो वातावरण में धुँधलका छाया हुआ था, एकदम कुहरा के माफिक..इस मौसम में सुबह के छह बजे जैसे कुहरा पड़ रहा हो..! सड़क पर चलते हुए मेरे आगे पीछे से मोटरसाइकिल या अन्य छोटे वाहन आ जा रहे थे..इन्हें देखते हुए मन में खीझ उठ रही थी कि सबेरे की ये शान्ति भंग कर रहे हैं..और इतने सबेरे ही इन सब के निकलने की ऐसी कौन सी आवश्यकता आन पड़ी है..? इस बीच एक मोटरसाइकिल जबर्दस्त ढंग से धुँआ छोड़ते हुए मेरे आगे बढ़ गयी..उसके धुएँ और गंध से मेरे नथुने भर गए..एक अजीब से गुस्से और खीझ में मैं वापस लौटना चाहा, लेकिन मन में आया किसी तरह अपने टहलने का कोटा पूरा कर लें..वैसे भी आजकल टहलने का रूटीन सही नहीं चल रहा है..खैर..
         अखबार पढ़ते हुए "वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का निधन" पर निगाह पड़ी..
         ....हाँ..अखबार पढ़ने का चाव तो मुझे बचपन से ही रहा है, लेकिन धीरे-धीरे समझदारी बढ़ने पर सम्पादकीय पृष्ठों पर लेख भी पढ़ने लगा था..जिनके लेख मुझे अतिप्रिय होते उनमें कुलदीप नैयर भी थे..! उन दिनों इंटर कालेज में पढ़ रहा था..किसी विषय पर कुलदीप नैयर का लेख छपा था..उस लेख के बारे में उस दिन घर पर मेरे दादा जी समेत अन्य लोग बतिया रहे थे..क्योंकि आज से तीस-पैंतीस वर्ष पहले बिना लाग-लपेट के फुर्सत में आपस में लोग खूब बतियाते भी थे..! मैं कुलदीप नैयर का वही लेख पढ़ रहा था...तभी उस बातचीत के दौरान किसी ने मुझसे कहा, "अरे यह कुलदीप नैयरवा तअ.. वामपंथी..है एकर लेख तअ ऐसई ऊटपटांग रहथअ.." और यह कहते हुए मुझे उनके लेख पढ़ने से हतोत्साहित किया गया...लेकिन इस घटना के बाद कुलदीप नैयर के लेख पढ़ने में मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई..और आज तक यह जिज्ञासा बनी रही..इस घटना के बाद से धीरे-धीरे मेरे अंदर अपनी बनायी हुई किसी धारणा के विपरीत वाली धारणा को जानने की जिज्ञासा भी बढ़ चली थी...असल में घटनाओं और बातों पर नैयर जी का बौद्धिक विश्लेषण तार्किक हुआ करते थे..उनके लेखों को पढ़ने से सोचने की एक और दृष्टि का पता चलता था...

             #चलते_चलते 
            अगर हम अपने ज्ञान के विरोधी ज्ञान को नहीं जानते तो हम कुछ नहीं जानते...
               #सुबहचर्या 
               (24.8.2018)
                   श्रावस्ती 

हम क्यों न शरीर को ही आत्मा मानें?

            हम क्यों न शरीर को ही आत्मा माने..? आखिर, आत्मा मानने से अनेकानेक लफड़े जो खड़े हो जाते हैं..! फिर तो, परमात्मा मतलब एक ऊपरवाले का कांसेप्ट भी मानना पड़ता है, और..द्यूलोक वासी परमात्मा की ओर यह शरीरधारी आत्मा निहारती रहती है। ऊपरवाला-ऊपरवाला कहते-निहारते शरीर की भी ऐसी की तैसी हुई रहती है तथा परमात्मा से मिलन की इस व्यग्रता में शरीर जाए भाड़ में टाइप से मनःस्थिति बन जाती है। वैसे तो, शरीर के रहते आत्मा और परमात्मा के मिलन की संभावना नहीं है, लेकिन ख़ुदा-न-खा़स्ता शरीरधारी आत्मा का परमात्मा से मिलन हो भी जाए, तो इस प्रकरण में पूरे दो सौ प्रतिशत चांसेज ऐसे शरीरधारी-आत्मा के पागल घोषित हो जाने की होती है..! 
           हाँ तो, इस आत्मा-परमात्मा वाले कांसेप्ट के कारण नीचेवाले को ऊपरवाले से मिलाने के लिए तमाम तरीके या विधि-विधान के झंझटों वाला खेल भी शुरू हो जाता है। यही नहीं प्योर ऊपरवाले के हिमायती कुछ लोग तो, जैसे अपने-अपने स्वर्गयान लेकर जहाँ-तहाँ पागलों की भाँति घूमते रहते हैं, मतलब उनके स्वर्गयान पर सवार हो जाओ तो ठीक, नहीं तो ये आत्मा को भूत बनाकर छोड़ देते हैं..! इसीलिए इस नीचेवाले-ऊपरवाले के खेल में पूरे मर्त्यलोक में एक अजीब सी धींगामुश्ती मची हुई है..! और ऊपरवाले से अपनी करीबी दिखाने की प्रतिस्पर्धा में ये शरीरधारी आत्मएँ अपनी अच्छी भली देह को जोकर बना देती हैं !! खैर..
        
          कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है, जैसे इस कांसेप्ट के साथ हम धोखेबाजी कर रहे हों। या तो हम अपने कांसेप्च्युअल परमात्मा से धोखा करते हैं या फिर अपनी इस आत्मा से..! क्यों भाई!! अगर आत्मा को परमात्मा से मिलाने की इतनी ही चिंता है, तो इस शरीर के लिए इतनी जद्दोजहद क्यों..! क्यों आत्मा को शरीर से बाँधने का इतना जतन करते हो..? क्यों आत्मा-परमात्मा के बीच शरीर को रोड़ा बनाते हो? इसीलिए तो, मैं कहता हूँ, तुम्हारा यह चिकित्साशास्त्र आत्मा-परमात्मा के मिलन का पक्का विरोधी है ! क्योंकि ऊपरवाले का कट्टर से कट्टर हिमायती भी अपनी आत्मा या कह सकते हैं रूह को इस शरीर से अलग होने नहीं देना चाहता..!! है कि नहीं..? 
          वैसे एक बात और है..शरीर और आत्मा दो परस्पर विरोधी चीज भी है, दोनों में तालमेल जैसी कोई बात नहीं है..! तो, इस आत्माघोंटू शरीर का रहवासी आत्मा कैसे हो सकती है..मैंने स्वयं न जाने कितनी बार अपनी आत्मा का गला घोंटा है..ऐसे में मैं आत्मा का कांसेप्ट स्वीकार नहीं करता...और इस अस्वीकरण के साथ ही परमात्मा के झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है..!!
        ऐसा मैं इसलिए कह रहा, क्योंकि आत्मा की जगह शरीर के कांसेप्ट में विश्वास करनेवालों के जनाजे बड़े दर्शनीय होते हैं..और ऐसे  लोग प्रकृति में व्याप्त क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम को मानने वाले होते हैं। 

आदरणीय इंसान

          मित्रों! सच बताएँ...लिखने का कुछ भी मन नहीं करता..फिर भी लिख रहा हूँ...! शायद ऐसा ही लिखना होता है..आखिर कोई संवेदना कितनी बार जगे..? इसकी भी तो कोई सीमा है..वैसे जब लिखना होता है तो हम शान्त बैठते हैं..मन के कोने-कोने टहलते हैं, इसी आशा में कि कोई भाव या संवेदना अपूँछ वाली स्थिति में उदासीन भाव से वहाँ बैठा मिल जाए और तनिक लिखने के बहाने ही सही उससे परिचय भी हो जाए...लेकिन सच बताएँ... उस भाव या संवेदना से मेरा कोई रिलेशन नहीं होता, उसे तो हम यूँ ही लेखकीय विषय बना लेते हैं.... हाँ..वैसे ही जैसे "गाइड" में देवानंद सिद्ध साधू बन जाता है.. बेचारा वह नायक अपने इस साधूपने से मुक्ति चाहता था.... लेकिन...लोगों की भावनाओं का सम्मान करते-करते वर्षा के लिए आमरण अनशन करते हुए प्राण त्याग देता है...और जनता उसको पहुँचा हुआ संत घोषित कर देती है... 
         ...वैसे उस फिल्म का, वह नायक संत न भी रहा हो, लेकिन धूर्त नहीं था..अन्यथा संतई के नाटक में प्राण न गंवाता...तो...संतई करने के लिए धूर्तता एक अत्यन्त आवश्यक गुण है, नहीं तो संतई का नाटक भी बहुत भारी पड़ता है...
           सच में, लेखक बहुत शातिर दिमाग का होता है...जैसे कोई वकील...हाँ, जैसे वकील कानून का ज्ञाता होता है और न्यायाधीश के समक्ष बखूबी बहस कर लेता है...वैसे ही ये लेखकीय कर्म में प्रवृत्त लोग भी होते हैं और भावनाओं-संवेदनाओं को खोज-खोजकर उससे बहस करते हैं...और आप होते हैं कि लेखक को ही महान..महात्मा...हरिश्चंद्र...आदरणीय-फादरणीय जैसे नाना उपाधियों से विभूषित कर देते हैं...!! और इधर आपके उस आदरणीय-फादरणीय लेखक जी, इस बात से हलकान हुए रहते हैं..कि... इस अखबार या उस अखबार में या फिर इस पत्रिका या उस पत्रिका में हम छपे कि नहीं..? खैर 
         कहने का मतलब यही है कि अच्छा लिख देने से हम आदरणीय-फादरणीय या महात्मा नहीं हो जाते..आदरणीय स्थिति में पहुँचने वाला व्यक्ति लेखक नहीं हो सकता...वह ज्यादा से ज्यादा उपदेशक भर हो सकता है..और आजकल उपदेशकों के हालात क्या है..!! यह बात आप सब से छिपी नहीं है...
        इस लेख का मैं लेखक हूँ..मैंने शुरू में ही बता दिया था कि लिखने का मन नहीं है...देखा..! यह लिखते हुए मैंने, आपसे कितना झूँठ बोला था..!! जबकि लिखते-लिखते इतना लिख दिया...आखिर बिना मन के यह कैसे संभव..!!!!! 
        तो...मेरे लिखे को पढ़कर मुझे आदरणीय-फादरणीय की श्रेणी में न पहुँचाएं...अन्यथा लिखना मुश्किल हो जाएगा...
       आज सुबह साढ़े तीन बजे खिड़की से आती वर्षा की बड़ी-बड़ी बूँदों की हर-हर आवाज से जाग उठा था...धीरे-धीरे करके पाँच बज गए..वर्षा जारी थी...कुछ क्षण के लिए फेसबुक वाल चेक किया, बहुत लोगों की कवितामयी भावनाएँ पढ़ने को मिली...पर अफसोस सब फेसबुक वाल तक ही सिमटी हुई..!! फेसबुक पर तो सब अच्छे लोग ही होते हैं...मने इन "फेसबुकिया संतो को सीकरी से क्या काम" टाइप से इस फेसबुकीय-लेखन का क्या..!!  इधर टहलने से बचने के लिए मेरे मन को भी वह "रेनी-डे" वाला बहाना मिल गया था..इस बहाने के साथ एक बार फिर नींद आ गई...लगभग सात बजे दरवाजे पर किसी की जोरदार थाप के साथ उसकी आवाज सुनकर फिर जाग उठा..बाहर निकला..होती वर्षा की एक तस्वीर ली...यही होती वर्षा ही एकदम असली बात है..इस तस्वीर को आप से शेयर कर रहा हूं.... 
#चलते_चलते 
         भाई..जो साधू या महात्मा के वेश में होता है...उसके अंदर भगवान नही...इंसान खोजिए..! निश्चित ही हर वह आदरणीय एकदम आप जैसा ही इंसान निकलेगा...
       #सुबहचर्या 
        (11.8.18)
          श्रावस्ती 

बेजुबानी अस्तित्व बोध

          आज सुबह टहलने निकले, तो वही पाँच पैंतालीस पर..! मन नहीं कर रहा था..लेकिन मन का क्या ! वह ऐसे ही होता है। तो, मन के विरुद्ध मैं टहलने निकल लिया..वैसे भी हमें कभी मन के अनुकूल या कभी मन के विरुद्ध निर्णय लेना ही पड़ता है, यही नहीं जरूरत पड़े तो ऐसा निर्णय लेना भी चाहिए..बशर्ते यह हम पर निर्भर करता है कि हम ऐसा करके चाहते क्या हैं..? खैर
         मैं स्वयं का स्वास्थ्य-शुभेक्षु बन सड़क पर पग-चालन करने लगा..सड़क पर चलते-चलते मैंने विकास भवन की एक तस्वीर ली..तस्वीर लेते हुए मन में आया कि तस्वीर खींचते हुए कोई देखेगा तो यही सोचेगा कि इस स्थान में ऐसी क्या खास बात है, जो तस्वीर खींची जा रही है..? अब किसी के लिए खास हो या न हो, मेरे लिए खास तो है ही..!! और किसी की सोच से बेपरवाह मैंने तस्वीर मोबाइल में कैद कर ली..।
            चलते हुए सामने देखा..सड़क पर गौ-पशु समूह में खड़े थे, जैसे आदमियों के काम में व्यवधान डालने का ठान कर ही ये सब यहाँ खड़े हों..! मेरे सामने ही एकाध ट्रक और बस इन्हें बचाते हुए साइड से निकल लिए..। आगे गायों की देखा-देखी घोड़े भी सड़क पर अधिकार जमाए खड़े दिखाई पड़े..शायद इन घोड़ों को भी अपना अस्तित्व-बोध हो आया हो...कि..गाय ही नहीं हमारे भी कुछ जीवनाधिकार हैं..!! मैंने सोचा, इन घोड़ों की तरह अब अन्य सभी जानवरों को समझदारी से एक जानवर-संघ बनाकर सड़क पर आ जाना चाहिए..कि..आखिर गाय ही क्यों..? वैसे एक बात है, अगर जानवरों ने मिलकर अपना कोई संघ खड़ा किया, तो यह जानवर-संघ इंसानों पर अवश्य भारी पड़ेगा..! क्योंकि जातीय-धार्मिक आधार पर जानवरों की अपेक्षा इंसानों में प्रजातीय भिन्नता सर्वाधिक है..और..जो लगातार सुदृढ़ भी होती जा रही है...मेरा मानना है कि सभी जानवरों को समवेत रूप से इसका फायदा उठाना चाहिए, जो इन्हें मिल भी सकता है...!! खैर। 
          थोड़ा और आगे बढ़े, तो सड़क के आर-पार लगे लखनऊ, बहराइच, श्रावस्ती आदि शहरों की दूरी बताने वाले बोर्ड पर कई लंगूर अपने बच्चों समेत चहलकदमी करते दिखाई पड़े...इन्हें देखते हुए मुझे तुरंत ध्यान आ गया कि ये बंदर शायद इंसानों की फितरत को अच्छी तरह समझते हैं, इसीलिए सड़क पर नहीं उतर रहे..! थोड़ा और आगे चला, तो एक कुत्ता महाशय जानवर-महासंघ का विद्रोही टाइप बन आदमियों का सहयोग करते प्रतीत हुए..! ये महाशय अकेले ही सड़क के नियमों का पालन करते हुए चले जा रहे थे। इन्हें इस तरह जाते देख मैंने सोचा, "इनका काम तो कुत्तागीरी से ही चल जाता होगा..इन्हें जानवर महासंघ में सम्मिलित होने की क्या जरूरत है..शायद इसीलिए निश्चिंत हैं..!" खैर..
         मैं अपने इन विचारों के साथ रात में हुई बारिश से उपजे ठंडकपने का फायदा उठाते पग-दर-पग चलता जा रहा था..अचानक देखा..! सामने कुछ दूर एक इंसान सड़क पर ही (पटरी नहीं) अपनी साइकिल छोड़ वहीं सड़क से खंती की ओर बढ़ गया, जहाँ एक छोटा सा तालाब भी था...मैंने ध्यान दिया तो पाया, अरे! यह तो यहाँ बैठा प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान को धता बता रहा है...किसी की निजता भंग करने वाला अवैधानिक कृत्य मानकर मैं सड़क पर गिरी-पड़ी साइकिल समेत उसके इस पर्सनल अभियान की तस्वीर नहीं ले पाया..! एक बारगी तो मैंने सोचा, "काश..! प्रधानमंत्री यहाँ लट्ठ लेकर खड़े होते, तो उनका स्वच्छता अभियान अवश्य सफल हो जाता..!!" लेकिन अगले ही पल मुझे इल्म हुआ, "प्रधानमंत्री ही नहीं प्रधानमंत्री के पुरखे भी खंती में बैठे उस व्यक्ति के स्वच्छता अभियान को नहीं रोक पायेंगे...बेचारे प्रधानमंत्री को हम नाहक ही दोष देते हैं..!!" खैर यह देश ही ऐसा है, यहाँ सब को जोर की लगी है..महान से महान प्रधानमंत्री भी इसे रोक नहीं सकता..!!! 
            अब मैं वापस लौट पड़ा था आवास के पास पहुँचने को ही था कि आर्त स्वर में बकरियों की मिमियाहट सुनाई पड़ी, मैं कुछ समझता तब तक सामने से आती एक मोटरसाइकिल पर निगाह पड़ गयी..मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा व्यक्ति दो बकरियों को अपने गोंदी में बेरहमी के साथ दबाए बैठा था और वहीं मोटरसाइकिल के दोनों ओर टंगे बोरे में भी एक-एक बकरियां बँधी थी..मने उस मोटरसाइकिल पर कुल चार बकरियां और दो आदमी थे...!!  इन्हें इस तरह जाते देख मैंने सोचा, "पता नहीं इन बकरियों की अम्मा इनका खैर मनाने के लिए बची भी होगी या नहीं..."
       चलते_चलते 
         जिसको अपनी पड़ी होती है...उसे ऊँच-नीच कुछ भी नहीं सूझता..
           #सुबहचर्या 
            (26.7.18)