रविवार, 2 सितंबर 2018

हम क्यों न शरीर को ही आत्मा मानें?

            हम क्यों न शरीर को ही आत्मा माने..? आखिर, आत्मा मानने से अनेकानेक लफड़े जो खड़े हो जाते हैं..! फिर तो, परमात्मा मतलब एक ऊपरवाले का कांसेप्ट भी मानना पड़ता है, और..द्यूलोक वासी परमात्मा की ओर यह शरीरधारी आत्मा निहारती रहती है। ऊपरवाला-ऊपरवाला कहते-निहारते शरीर की भी ऐसी की तैसी हुई रहती है तथा परमात्मा से मिलन की इस व्यग्रता में शरीर जाए भाड़ में टाइप से मनःस्थिति बन जाती है। वैसे तो, शरीर के रहते आत्मा और परमात्मा के मिलन की संभावना नहीं है, लेकिन ख़ुदा-न-खा़स्ता शरीरधारी आत्मा का परमात्मा से मिलन हो भी जाए, तो इस प्रकरण में पूरे दो सौ प्रतिशत चांसेज ऐसे शरीरधारी-आत्मा के पागल घोषित हो जाने की होती है..! 
           हाँ तो, इस आत्मा-परमात्मा वाले कांसेप्ट के कारण नीचेवाले को ऊपरवाले से मिलाने के लिए तमाम तरीके या विधि-विधान के झंझटों वाला खेल भी शुरू हो जाता है। यही नहीं प्योर ऊपरवाले के हिमायती कुछ लोग तो, जैसे अपने-अपने स्वर्गयान लेकर जहाँ-तहाँ पागलों की भाँति घूमते रहते हैं, मतलब उनके स्वर्गयान पर सवार हो जाओ तो ठीक, नहीं तो ये आत्मा को भूत बनाकर छोड़ देते हैं..! इसीलिए इस नीचेवाले-ऊपरवाले के खेल में पूरे मर्त्यलोक में एक अजीब सी धींगामुश्ती मची हुई है..! और ऊपरवाले से अपनी करीबी दिखाने की प्रतिस्पर्धा में ये शरीरधारी आत्मएँ अपनी अच्छी भली देह को जोकर बना देती हैं !! खैर..
        
          कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है, जैसे इस कांसेप्ट के साथ हम धोखेबाजी कर रहे हों। या तो हम अपने कांसेप्च्युअल परमात्मा से धोखा करते हैं या फिर अपनी इस आत्मा से..! क्यों भाई!! अगर आत्मा को परमात्मा से मिलाने की इतनी ही चिंता है, तो इस शरीर के लिए इतनी जद्दोजहद क्यों..! क्यों आत्मा को शरीर से बाँधने का इतना जतन करते हो..? क्यों आत्मा-परमात्मा के बीच शरीर को रोड़ा बनाते हो? इसीलिए तो, मैं कहता हूँ, तुम्हारा यह चिकित्साशास्त्र आत्मा-परमात्मा के मिलन का पक्का विरोधी है ! क्योंकि ऊपरवाले का कट्टर से कट्टर हिमायती भी अपनी आत्मा या कह सकते हैं रूह को इस शरीर से अलग होने नहीं देना चाहता..!! है कि नहीं..? 
          वैसे एक बात और है..शरीर और आत्मा दो परस्पर विरोधी चीज भी है, दोनों में तालमेल जैसी कोई बात नहीं है..! तो, इस आत्माघोंटू शरीर का रहवासी आत्मा कैसे हो सकती है..मैंने स्वयं न जाने कितनी बार अपनी आत्मा का गला घोंटा है..ऐसे में मैं आत्मा का कांसेप्ट स्वीकार नहीं करता...और इस अस्वीकरण के साथ ही परमात्मा के झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है..!!
        ऐसा मैं इसलिए कह रहा, क्योंकि आत्मा की जगह शरीर के कांसेप्ट में विश्वास करनेवालों के जनाजे बड़े दर्शनीय होते हैं..और ऐसे  लोग प्रकृति में व्याप्त क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम को मानने वाले होते हैं। 

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