शुक्रवार, 25 मई 2018

रामभरोसे सत्य

          रामभरोसे जी आज मुझसे फिर टकराये.. जबकि अभी कल ही मेरी किसी बात पर पैर पटक कर चल दिए थे.. हाँ.. मेरे दोस्त हैं लेकिन गँठिहा टाइप का नहीं है उनका मन..मन का उफान शान्त होते ही पूर्ववत् हो जाते हैं...जैसाकि, मैंने शायद पहले भी बताया था...वे सरकारी मुलाजिम हैं...

          उनसे टकराते ही मेरा ध्यान उनके मुख-मालिन्य पर चला गया...थोड़ा कुरेदते हुए मैंने पूँछा, "मित्र आज आपका चेहरा रौनकदार नहीं दिखायी दे रहा...कोई खास बात तो नहीं..?" 

         "सा....ला..फर्जी काम करो या झूँठ बोलो, तो कोई...(गाली) यह पूँछने नहीं आता कि क्यों कर रहे हो...लेकिन जरा सी सच बात क्या कह दी..जिसे देखो वही मुँह उठाये पूँछने चला आता है.. कि सच कहने के पीछे कारण क्या है..!! ...के (गाली)..अब चलो..सच कहने के पीछे का कारण भी बताते फिरो कि क्यों सच बोला..."

         अरे!  रामभरोसे जी इतने गुस्से में..!! मैं आश्चर्य चकित था..सोचा एक गिलास ठंडा पानी ही पिला दें इन्हें..लेकिन इस प्रचंड गर्मी में पानी भी गरम था..गुस्सा और न भड़क उठे, इसलिए पानी नहीं पिलाया..बेहद शान्त स्वर में पूँछा, "कुछ बात हुई है क्या..?" 

   

         "नहीं यार.. बात क्या होगी...अरे वही..वे पूँछते फिर रहे हैं..कि.. मैं सत्य के पक्ष में क्यों खड़ा हूँ...इसके लिए क्यों लड़ रहा..क्या कारण हैं इसके पीछे...मने यार...साला...सत्य के लिए लड़ना भी अपराध हो गया है...इसका भी कारण बताते फिरो..कि...काहे इसके लिए खड़े हो...!!!" रामभरोसे जी उसी आवेग में बोले। 

           उनके चेहरे पर अपनी नजरें टिकाए हुए मैंने पूँछा, "कौन..कहाँ..यह सब क्यों पूँछ रहा है आपसे..?" 

          "देखो...'क्यों' की तो मुझे नहीं पता..लेकिन...कौन...कहाँ पूँछ रहा..!! अरे ! यह पूँछते कि ऐसा कहाँ नहीं पूँछा जा रहा....सौ नहीं..दो सौ परसेंट जगहों पर पूँछा जाता है यह..! कोई जगह बाकी भी है जहाँ यह न पूँछा जा रहा हो...आप सच के साथ खड़े होकर तो देखिए..!!!"

           रामभरोसे जी चुप हुए तो मुझे ध्यान आया कि ये महोदय अपने कार्यस्थल की ही बात कर रहे हैं, क्योंकि...जब वहाँ की कोई बात इन्हें पिंच करती है तो ऐसा ही ऊल-जुलूल बकते हैं..रामभरोसे जी की बात फिर सुनाई पड़ी..

           "यार..सत्य के लिए लड़ने का कारण ..!! भला यह भी पूँछने या बताने की कोई चीज है.? लेकिन नहीं..सब काम-धाम छोड़ उन्हें कारण बताते फिरो...एक बात बताऊँ भाई साहब..! ये सब ठसके वाले न..सरकारों को गुमराह करते हैं..."

           रामभरोसे जी का आवेग अब थोड़ा शान्त हो रहा था...असल में जब वो अपने मन की कह लेते हैं तो शान्त-स्वर में आ जाते हैं। हाँ उनके लिए "ठसके वाले" मने नौकरशाही है। खैर.. 

            रामभरोसे मेरा मुँह ताक रहे थे...शायद अपनी बातों पर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में थे... मैंने उन्हें निराश भी नहीं किया और उनके दयनीय होते चेहरे पर गौर करते हुए कहा.. 

           "यार मित्रवर रामभरोसे जी..! काहे बखेड़े में पड़ते हो..सत्य का कोई एक रूप थोड़ी न होता है...यह तो बहुरूपिया है बहुरूपिया..!! इसे क्यों नहीं रामभरोसे ही छोड़ देते..?" 

           बस मेरी इसी बात पर नाराज हो गए,  "देखो.. हमसे मजाक मत किया करो यार..इसमें बखेड़े और बहुरूपिया जैसी क्या बात..!मतलब...सही का पक्ष लेेना भी अब बखेड़ा हो गया..!!" और फिर मुँह फेरकर कर चल दिये।

           काश! रुकते तो इन्हें समझाता..

          "मेरे कहने का मतलब है कि 'सच' को देश की जनता के हवाले कर दो..आखिर सवा अरब की आबादी क्या झख मारने के लिए बैठी है..अरे 'सच' क्या है, इसे ही तय करने दो...बेचारी पाँच साल इसी का तो इन्तजार करती है..! ऐसा करके रामभरोसे जी आप जनता पर बड़ा उपकार करते...कम से कम बैठी-ठाली जनता अपने हिस्से का 'सच' तो हांसिल कर लेेती..!! और आप 'सच' कहने की मगज़मारी की ज़हमत से भी बच जाते...क्योंकि 'सच' जनता के बीच में चिंदियाया जा चुका होता...ध्यान रखिए..लोकतंत्र में जनता ही 'सच' तय करती है...आप जैसे सरकारी सेवक को 'सच' तय करने की अनुशासनहीनता से भी बचना चाहिए...बस यही मेरे कहने का मतलब था..!"

         पर अफसोस, रामभरोसे जी यह सब सुने बिना ही जा चुके थे...

गठबंधन

           गठबंधन के बिना यह दुनियाँ नहीं चल सकती, ऐसा मैं नहीं दुनियादारी कहती है..यहाँ कहाँ नहीं है गठबंधन! कोई बताए..? यह गठबंधन बिलावजह नहीं होता..हर कोई, या तो अपने फायदे के लिए, या किसी को जलाने के लिए, और नहीं तो सर्वाइव करने के लिए ही गठबंधन हेतु अभिशप्त है। वैसे गठबंधन के ये तीनों कारण भारतभूमि जैसे तपोभूमि-वासियों के लिए मुफीद साबित हुआ है। फिर भी हमारे यहाँ 'फायदे' और 'जलाने' वाले कारण विशेष कारगर है। लेकिन कुछ बेवकूफात्मक-दृष्टि वाले गठबंधन को हेयात्मक मान 'चोर चोर मौसेरे भाई' कह कर इसकी इज्जत खराब करते हैं। लेकिन जो देश कभी सोने की चिड़िया रहा हो, वहाँ इस चिड़िया को अपने-अपने जेब में लाने के लिए गठबंधनात्मक-तत्व की व्याप्ति होगी ही..! अंग्रेजों से संस्कारित होते हुए ही हमने इसे फिलासिफिकल टाइप का बंध माना है, मने इसके पीछे वह 'फिलासफी' है जिससे विकास प्रक्रिया गतिमान होती है। 

       देखा जाए तो प्रत्येक तीन में से दो, तीन इसलिए कि बगैर तीसरे की उपस्थिति के दो का गठजोड़ हो ही नहीं सकता, उस तीसरे के विरुद्ध ही गठबंधन करते हैं। ये गठबंधित-तत्व अपनी गाँठ के सहारे अपना आत्मबल मजबूत बनाकर तीसरे के आत्मबल को कमजोर करते हैं। इधर यह तीसरा इस गठीले-बंध की खुन्नस में अगड़म-बगड़म बोलता हुआ इसे अपवित्र बताकर स्वयं पुण्यात्मा टाइप की फीलिंग में डूब जाता है। लेकिन इस तीसरे एकाकी-तत्व के ऐसे जले-भुने विचारों से गठबंधनधारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि गठबंधितों की इतराहट और ही बढ़ती जाती है। शायद ऐसी ही इतराहटों को देख हमारे एक सीधे-सादे मित्र जो सरकारी मुलाजिम भी हैं, को अकसर घर में इस तरह के उलाहनों का सामना करना पड़ता है, जैसे -

          "सबसे ही तो दोस्ती किए फिरते हो..तो बनते रहो फिर बेवकूफ..!!"

           उस दिन जब अपनी इसी पीड़ा को बताकर वे खामोश हुए तो मैंने उन्हें समझाया था-

          "बात सही है..आप दोस्ती के चक्कर में एक गाँठ विहीन आदर्शात्मक बंधन में फँस जाते होंगे..और बिना गाँठ के आप गाँठ के पूरे भी नहीं हो पाते..इसीलिए बेचारे आपके घर वाले अभावजनित पीड़ा में यह उलाहना देते हैं...देखिये..! दोस्ती-फोस्ती तोड़कर गठबंधन का गाँठ बाँध लीजिए..कुछ बुद्धिमान टाइप का भी बनिए..!"

          बस, यह सुनते ही वे हमसे नाराज हो मुँह फेरकर चल दिए, जैसा कि वो अकसर करते हैं, खैर वे हमारे मित्र भी हैं लेकिन उनसे हमारा गठबंधनात्मक रिश्ता नहीं है, इसलिए नहीं बुलाएंगे..

           लेकिन अगर वे मेरी पूरी बात सुनते, तो समझाता कि आज के जमाने में गाँठ वाला रिश्ता ही ज्यादा मुफीद और बुद्धिमानी भरा होता है, इसकी डोरी कहीं और से भले ही टूट जाए लेकिन गाँठ वाली जगह से नहीं टूटता...इसीलिए गाजे-बाजे के साथ अपने यहाँ गठबंधन का रस्म मनाया जाता है । खैर, यह तो पति-पत्नी के बीच का मामला हो सकता है, लेकिन आज लगभग सभी टाइप के रिश्तों में गाँठ पड़ना रिश्ते का आपद्धर्म हो चुका है। यदि रहीमदास जी होते तो अब यही कहते -

            "रहिमन धागा प्रेम का, अब तोड़ लियो चटकाय

             गठबंधन ते फिर जुड़ै, गाँठ न फिर तुड़ पाय ।। 

"माननीयपन" धन "विकास" बराबर "लोकतंत्र"

         रामभरोसे जी वैसे तो हैं सरकारी मुलाजिम, लेकिन उनमें संजीदगी कूट-कूट कर भरी हुई है। अपनी इसी संजीदगी की वजह से वे छोटी-छोटी बातों के भी गहराई में उतर जाते हैं और फिर इस देश की किसी कचहरी में उलझे हाल-बेहाल-फटेहाल आदमी की रोनी जैसी सूरत बना लेते हैं। उस दिन जब हमसे बीच रास्ते टकराए, तो अपने इसी गेटअप में मेरे सामने थे..! उन्हें इस मनःस्थिति में देख मैं समझ गया था कि जरूर ये किसी बाल जैसी बात की खाल में उलझे होंगे। आखिर बात को दिल पर लेने की उनकी आदत जो है..! उन्हें देख मैंने सोचा..! संजीदे टाइप के इंसानों की यह एक बड़ी कमजोरी होती है कि उनमें खिलंदड़पन नहीं होता और बिना इसके ये बेचारे अपनी नौकरी कैसे निपटा रहे होंगे..क्योंकि नौकरीपेशा वालों में खिलंदड़पन तो होना ही चाहिए अन्यथा सर्वाइवनेश का संकट उत्पन्न हो जाता है..खैर, मुझे किसी की जाती जिंदगी से क्या मतलब, अपन के मित्र हैं इसलिए कह रहा था।

             तो, रामभरोसे जी को देख छूटते ही मैंने पूंछा, “भाई रामभरोसे जी, कोई बात चुभी है क्या..कुछ परेशान से हैं?” ‘अच्छा ये बताइये..! अगर कल का कोई लौंडा आपसे ये कहे कि..यह तुमसे नहीं होगा..तो चुभने वाली बात होगी कि नहीं..?’ रामभरोसे जी जैसे गुस्से में बोले हों। आगे उसी रौ में फिर बोले, ‘अरे भाई..लोकतंत्र में चुने हुए को ही तो सम्मान दिया जाता है, कि हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे को माननीय-फाननीय पुकारते फिरें..! फिर तो इस देश में सवा सौ करोड़ "माननीय" होंगे..और ऐसे में असली माननीय बेइज्जती महसूस करेंगे कि नहीं..आखिर प्रोटोकाल भी तो कोई चीज होती है..!!’ रामभरोसे जी की बात मेरे समझ में तो नहीं आई, लेकिन वे अपनी बातों की संजीदगी में बहकते प्रतीत हुए..! दरअसल वे ग्रामीणों के बीच अपने रात्रि-प्रवास के एक सरकारीनुमा कार्यक्रम का अनुभव सुनाना चाहते थे..जिसका लब्बोलुआब कुछ ऐसा था -

            ऐसे कार्यक्रम से यह अंतर्ज्ञान हो सकता है कि किसी भी राजनीतिक दल को सत्ताधारी ही होना चाहिए अन्यथा लोकतंत्र का कोई मजा नहीं। इससे सत्ताधारी दल का अदने से अदना गैर-इलेक्टेड कार्यकर्ता भी अपने अन्दर ‘माननीयपन’ का अहसास करता है और कहीं से आकर इसमें समाहित हुए विकास से लोकतंत्र को सार्थक बनाता है। इसीलिए ये नेता बेचारे लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए रात-दिन एक किए रहते हैं। बकौल रामभरोसे, उस सरकारीनुमा कार्यक्रम में जनप्रतिनिधियों के अलावा उनके चमचों तक में ‘माननीय’ कहलवाने की होड़ मची थी, जबकि इस उपाधि के नवाजने में वो चूजी हो रहे थे। बस यही चूक उनसे हुई और अपने संबोधन के बीच में अटक गए थे ..! तभी किसी नेता के चमचे ने उन्हें चुभने वाली वह बात कही होगी कि ‘यह तुमसे नहीं होगा’।

          पूरी बात सुनते ही दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए मैंने कहा, ‘अच्छा तो ये बात है..!!’ रामभरोसे जी ने फिर तल्खी भरे स्वर में कहा, ‘यार, यह बात भर नहीं है...मैं तो उस छुटभैय्ये से वहीं पर कहना चाहता था..कि वाकई, यह मुझसे नहीं होगा..इसके लिए पहले संविधान में संशोधन कराओ कि सत्तादल का प्रत्येक पदाधिकारी, मंडल या कमंडल जिस भी टाइप का अध्यक्ष हो, वह भी ‘माननीय’ ही माना जाएगा...आखिर.. इलेक्टेड होने पर लुच्चे-लफंगे तक को जब यह उपाधि मिल जाती है, तो इन्हें कहने में क्या गुरेज..!’

            मैंने रामभरोसे जी को समझाया, ‘देखिये..आप ठहरे सरकारी मुलाजिम, इस बात पर इतने तल्ख़ न हों, अन्यथा लोकतंत्र विरोधी होने के साथ आप पर विकास विरोधी होने का ठप्पा भी लग जाएगा..और..नौकरी खतरे में पड़ेगी सो अलग से..! पहले यह समझिए..किसी में ‘माननीयपन’ का आना उसके भावी विकास का लक्षण होता है...क्योंकि "माननीयपन" बिना विकास के चैन से बैठ ही नहीं सकता..! इन दोनों में दाँत कटे रोटी होती है..और हाँ, आजकल सरकार नहीं "पार्टी-सरकार" होती है, जिनके एजेंडे में ‘माननीयपन’ का लोकतंत्रीकरण कर इसे जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं तक पहुँचाना होता है..फिर विकास भी इसी "माननीयपन" के पीछे-पीछे दौड़ते हुए जमीन पर आएगा और विकास जमीनी होगा..इसके लिए संविधान में किसी संशोधन-फंसोधन कि जरुरत नहीं है, केवल मन में विकास की ललक होनी चाहिए बस..! देखा नहीं..इसीलिए, आजकल दलितों के यहाँ भोजन कर उनमें भी ‘माननीयपन’ लाया जा रहा है..जिससे "विकास" उन तक पहुँचे..! तो, मैं तो कहुंगा...किसी को ‘माननीय’ कहना विकास में सहयोग देना ही है और यही देश-सेवा भी है...ज्यादा ओटोकाल-प्रोटोकाल, नियम-फियम में पड़ोगे तो, आप इस देश-सेवा से वंचित हो जायेंगे..’।

            लेकिन मेरे इस प्रवचन का रामभरोसे जी पर कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि उनपर नियम-फियम का गहरा असर जो था..! पैर पटकते हुए वे जाने लगे तो उन्हें जाते देख मैंने जोर की आवाज में कहा, ‘यह देश रामभरोसे ही चल रहा है...’ मेरी इस आवाज पर पलट कर उन्होंने मुझे देखा तो जरूर, लेकिन फिर आगे बढ़ गए...इधर मैं भी अपने इस विचार के साथ अपनी राह हो लिया कि अगर ऐसे ही अदल-बदल "पार्टी-सरकारें" आती-जाती रहीं तो एक न एक दिन जन-जन तक यह "माननीयपन" और "विकास" दोनों पहुँच जाएगा और फिर "माननीयपन" धन "विकास" बराबर "लोकतंत्र" तो होता ही है..! फिर तो हमारे रामभरोसे जी की समस्या का इतिसिद्धम् टाइप का हल भी इसी में निकल आएगा..!! 

ये बचाने वाले लोग!

        ...कुछ लोग "बचाओ-बचाओ" के शोर के साथ मेरी ओर बढ़े आ रहे थे...उत्सुकतावश मैं अपने आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ देखने लगता हूँ ..!! लेकिन संकटापन्न की कोई स्थिति दिखाई नहीं देती ...फिर भी किसी को बचाने के आपद् धर्म के पालन का लोभ संवरण नहीं कर पाता और मैं भी "बचाओ-बचाओ" के उस शोर के आगे हो लेता हूँ ..! अचानक, मेरे कानों में एक कड़कदार आवाज गूँजती है, कोई मुझे रुकने के लिए कहता है और सकपकाया हुआ मैं रुक जाता हूँ...मेरे रुकते ही दौड़कर कुछ लोग मुझे पकड़ लेते हैं और मुझे पकड़नेवालों में जैसे पकड़ने की होड़ लग जाती हैै...! खैर, मैं उन सब के द्वारा पकड़ लिया जाता हूँ...अब वे चिल्ला रहे थे...ये हमने बचा लिया...बचा लिया...!! इस शोर के बीच मुझे ऐसा प्रतीत हुुआ जैसे मुुझे बचाने की छीना-झपटी मची हो...मैं माजरा समझने की कोशिश करने लगता हूँ...

           ... मुझे पकड़े हुए कोई कह रहा है, "मैंने बचाया" तो दूसरे की आवाज सुनाई पड़ी "नहीं, पहले मैंने बचाया.." तो कोई कह रहा था.. बचाने वाला तू कौन होता है...बचाया तो मैंने है.." फिर इन्हीं में से कोई बोल रहा था..."बचाने का सर्वाधिकार हमारे पास सुरक्षित है...हम ही किसी को बचा सकते हैं...तू बीच में कौन होता है...!!" मैं देख रहा हूँ... इस बीच कुछ लोग तू-तू मैंँ-मैं पर उतर आते हैं और मुझे छोड़ आपस में ही गुत्थमगुत्था हुए जा रहे थे..! अचानक...मैं चिल्लाने लगता हूँ, "क्या तमाशा है.. किसे बचा रहे हो..? छोड़ो मुझे..." इसके बाद आवाज आती है, "हम तुम्हें ही बचा रहे हैं...कैसे छोड़ दें...फिर तो, तुम बच नहीं पाओगे.!!"  किसी ने कहा..."देखना, छोडना मत इसे, नहीं तो बचने से बचकर भाग जाएगा यह..! बड़ी मुश्किल से किसी को बचाने का अवसर हाथ आया है..! अब इसे बचाकर ही दम लेना होगा...!!!"

         .....बचाने वाले के हाथों से स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करते हुए बड़ी मुश्किल से मैं बोल पाया..."मैं तो आलरेडी बचा हुआ हूँ भाई...! बचे हुए को क्या बचाना..मुझे बचाने-सचाने की कोई जरूरत नहीं.." लेकिन इन लोगों के बीच मेरी आवाज अनसुनी रह जाती है, जबकि इनके बीच फंसा हुआ मैं नुचा जा रहा था...इनके बीच मेरा दम घुटने लगा था...जैसे मेरा प्राण निकलने वाला हो...मैं बेबस भगवान से प्रार्थना करने लगा...हे भगवान..! मुझे इन बचाने वालों से बचा लो..." एक अजीब सी सडबेचैनी भरे कशमकश में आखिर मेरी नींद टूट जाती है ..!!

        ओह..! डर से मेरी धुकधुकी अभी तक बढ़ी हुई है.. मैंने अपने चारों ओर देखा...मैं बिस्तर पर ही था.. लेकिन डर का आलम यह था कि मुझे यह तसल्ली होने में कुछ सेकेंड और लगे कि मैं कोई स्वप्न ही देख रहा था और मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है..!! फिर मैंने अपने नथुने फुलाए.. बल्कि नथुने को खींच कर नसिका-छिद्र को चौड़ा किया...अब आराम से साँस लेने लगा था...कुछ गहरी सांसें ली.. असल में एक नासिका-छिद्र से साँस लेने में मुझे थोड़ी प्राब्लम होती है..! अब मैं बिस्तर पर उठ बैठा था...

             इस भयावह स्वप्न के पीछे के कारण की मैंने तहकीकात शुरू कर दी... ध्यान आया..! अभी कल ही टीवी चैनलों कुछ ज्यादा ही न्यूज-फ्यूज देख लिया था...लोग-बाग संविधान और लोकतंत्र को बचाने निकल पड़े थे और इसे लेकर चैनलों पर डिबेट में बड़ा चिल्ल-पों मचा था...शायद, इन्हीं समाचारों का मुझ पर कोई प्रभाव रहा होगा...!!

           वैसे तो, अपनी संस्कृति में बचाने का कल्चर बहुत पुराना है, लेकिन संविधान के उद्भव के बाद बचाने के लिए एक आइटम और मिल गया..! संविधान को नेताओं ने आपस में मिलजुल कर बनाया था, इसलिए इसके बचाने का दायित्व नेतागण ही निभाते हैं और इन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा चिन्ता रहती है! शायद इन्हें पता है कि आम आदमी किस खेत की मूली है..संविधान बचाना इसके वश की बात नहीं..!! और हाँ, ये नेता ही हैं, जो यह भी जानते हैं...अगर संविधान न रहे तो देश में, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी टाइप से लोकतंत्र भी नहीं रहेगा..! इसीलिए ये बेचारे अपने नेतृत्व-कला से संविधान में फूँक मार-मार लोकतंत्र की सुरीली तान छेड़ते हैं और इसी में रमे हुए सुखार्जन करते हैं...खैर जो भी हो, हमें संविधान और लोकतंत्र बचाने का श्रेय इन नेताओं को देना ही पड़ेगा...

             एक बात बता दें...अपने देश की आम जनता किसी को बचाने में रुचि भी नहीं रखती..अभी पिछले दिनों एक समाचार पढ़ा...दिल्ली के पास एक नाले में कार समेत गिरकर सात लोग डूब कर मर गए...उन्हें बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया। बल्कि उन्हें डूबते देख उनके गहने और पैसे अलग से लूट लिए गए..काश..! वहाँ कोई नेता होता, तो तय मानिए दौड़कर अकेले ही वह उन सात अभागों को डूबने से बचा लेता..लेकिन उनके भाग में बचना नहीं लिखा था क्योंकि नेता लोग संविधान बचाने से बचें, तब तो आम-आदमी को बचाएँ...!! वैसे भी आम-आदमी लुटेरी और संवेदनहीन होती है..इन्हें बचाने का पाप ये नेता अपने सिर पर लेना भी नहीं चाहेंगे..!!!

         लेकिन, यह तो पक्का हो चला है कि सपने में मुझे नेतागण ही बचा रहे होंगे..अन्यथा बचाने का श्रेय लेने के लिए कोई ऐसे ही आपस में गुत्थमगुत्था नहीं होता..! इस स्वप्न से जागने पर, मुझे एक महत्वपूर्ण सीख मिली...वह कि...किसी बचे हुए को ही बचाना चाहिए...और...बचाते-बचाते उस बचने वाले को बेदम कर देना चाहिए..जिससे इस बात के प्रमाणीकरण में आसानी हो कि इसे बचाया गया है..! अन्यथा वह आलरेडी अपने बचे होने के संबंध में कोई राजनीतिक वक्तव्य जारी कर सकता है और तब, बचाव-क्रिया को मात्र एक राजनीतिक स्टंट माना जा सकता है..! और हाँ..आम आदमी को बचाने का कोई लाभ नहीं है...इसीलिए संविधान को ही बचाना चाहिए..अगर इस देश का संविधान बचा रहेगा तो सब बचे रहेंगे...!

भाईचारे के उन्मूलन में भाईचारे के साथ सहयोग करे!!

         कानपुर की ओर जा रही बस पर मैं चढ़ लिया। बस की साठ परसेंट सीटे भरी थी। एक खाली सीट पर मैं बैठ गया। बस में बैठे यात्रियों पर एक नजर फिरायी। कंडक्टर मेरे पास आया..उससे टिकट बनवाया, मेरे दिए पाँच सौ के नोट से बाकी के रूपए उसने उसी समय नहीं लौटाए। वापसी वाला रूपया टिकट पर लिख दिया..हलांकि, बस में भीड़ नहीं थी, चाहता तो पैसा उसी समय लौटा सकता था। अब मुझे बस से उतरते समय पैसा वापस लेने की बात याद रखना होगा। खैर, बस कंडक्टरों का, बाकी के पैसे तुरंत न लौटा कर इसे टिकट के पीछे लिख देना, एक शगल जैसा बन गया है। 

       सड़क पर बस कूदते हुए चल रही थी, जबकि सड़क चिकनी थी। बस का पहिया या फिर उसका टायर गड़बड़ हो..टायर में गर्टर पड़ा हो...। वैसे, कूद-फाँद करती चलती यह बस खूब खड़खड़ भी कर रही थी..। बस के आगे एक ट्रक चला जा रहा था..उस ट्रक के साथ ही मेरी निगाह अपने बस-ड्राइवर पर भी पड़ी! सोचने लगा, "देखो यह ट्रक को ओवरटेक कर पाता है या नहीं..क्योंकि बस की कंडीशन ऐसी नहीं लगी कि वह ट्रक को पार कर पाए...बस-ड्राइवर सिर पर कैप लगाए हुए था, लेकिन पता नहीं क्यों..!  हो सकता है कैप लगाना उसका शौक हो..। आखिर ड्राइवर ने ट्रक को ओवरटेक कर ही लिया। इस दौरान बस कुछ ज्यादा ही खड़खड़ करने लगी।

          बस में बैठे-बैठे मैं ऊब रहा था, मोबाइल चलाने लगा..बस अब रुक-रुक कर चल रही थी, मने चलती फिर रुकती और फिर चल जाती टाइप से..नहीं-नहीं!  बस खराब नहीं थी...सड़क पर ट्रकों के कारण जाम लगा हुआ था..इस हाईवे पर ट्रक बड़े बेतरतीब और बेढब चलते हैं, जैसे देश में राजनीति चलती है..! पता नहीं कब..कहाँ..किस बात पर निरर्थक जाम लग जाए...बस में कोई कहता सुनाई दिया...देश के एक सौ पैंतीस करोड़ जागेंगे तभी देश की समस्याएँ हल होंगी। मैं सोच रहा था...क्यों जागें बेचारे ये एक सौ पैंतीस करोड़ लोग..? जागेंगे तो असुरक्षित नहीं हो जाएंगे.? मेरे हिसाब से जागा हुआ व्यक्ति अकेले होता है, और जो अकेला होता है, उसे कोई पूँछने वाला नहीं होता..! अभी तो कम से कम इन एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों को अपनी जाति, धर्म, क्षेत्र के भाईचारे का सहारा तो मिल जाता है..!!! और अन्य बचे-खुचे लोग माल-पानी के साथ भाईचारा निभाते हैं..। तो, ऐसे में जागने की गुंजाइश एकदम खतम..! कुल मिलाकर अगर ये जागे, तो समझिए देश में भाईचारा खतम..!! अभी तो इसी भाईचारे से बहुत काम होते हैं.! एक तो यही कि, सबको अपने मन का करने की छूट मिलती है...यही भाईचारा देश में स्वतंत्रता की गारंटी भी है..!! अगर नहीं तो, कोई सिद्ध करके दिखाए इसे..!!! 

           बस रुकी थी..ककड़ी वाला आ गया, एकाध-दो ने उससे ककड़ी खरीदी, तब तक बस चल दी, ककड़ी वाला बस से उतर गया..बेचारा ढ़ग से बेच भी नहीं पाया..फिर खड़-खड़ करते हुए बस चलने लगी। कंडक्टर हाँथ में टिकट मशीन और कांधे पर बैग लिए अपनी सीट से खड़े होकर "घाटम पुर से कौन चढ़ा बस में.." कहते हुए मेरे बगल में आकर खड़ा हो गया। मेरे पीछे किसी का टिकट बनाकर "किसी का टिकट बाकी तो नहीं..?" कहते हुए जाकर अपनी सीट पर बैठ गया और अपने बेबिल पर बस-यात्रियों के आँकड़े भरने लगा। कंडक्टर चश्मा पहने हुए था। मेरा ध्यान मेरे आगे सीट पर बैठे महिला -पुरुष पर गया, वे लगातार आपस में बतियाये जा रहे थे, पुरुष बीच-बीच में अपना सिर खुजलाने लगता। हाँ..ऐसे ही जब पत्नी जी मेरे समक्ष कोई समस्या रखती हैं और मैं उसे नहीं सुलझा पाता, तो मैं भी अपना सिर खुजलाने लगता हूँ। अब तो बिना किसी समस्या के ही मुझे अपना सिर खुजलाते देख कह पड़ती हैं "कोई समस्या सुलझ नहीं पा रही है क्या..!" और मैं सिर खुजलाना बंद कर देता हूँ। 

             कंडक्टर की आवाज कानों में पड़ी "जिसका पैसा बाकी हो ले ले.." कंडक्टर के प्रति प्रशंसित भाव से मैंने सोचा...बेचारा बिना कहे पैसा लौटा रहा है..!! मैंने भी कंडक्टर से अपने बकाए के पैसे लिए...इस खड़खड़िया बस में खड़खड़-ध्वनि के सिवा बाकी शांति है...हलांकि, एक साथ बैठे रहने के अलावा यात्रियों के बीच कोई भाईचारा परिलक्षित नहीं हो रहा है..! एक बात तो है, अगर देशवासियों के बीच भाईचारा न हो, तो देश में बहुत शान्ति रहे..! देश में मचा चिल्ल-पों, शायद आपसी भाईचारे का ही परिणाम है..! मैं तो कहता हूँ, इस देश में भाईचारा अशान्ति का नहीं, जिन्दादिली का पहचान है..!! देश में अमन-चैन या कानून-फानून का पालन होते हुए देखने वालों को, मैं भाईचारे का दुश्मन मानता हूँ..!! आईए!  हम देश से भाईचारे को नहीं कानून-फानून को मिटाएँ..। अगर ऐसा नहीं करेंगे, तो देश से भाईचारा मिटने का भय रहेगा..!! 

            बस के पीछे से टीं-टीं की एक तीखी आवाज कानों में पड़ती है। किसी तरह पास मिलने पर वह बस के आगे आ गई..अपने हार्न के मुताबिक वह "साबुनदानी" ही थी..अकसर ट्रक वाले मारुति की छोटी कारों को "साबुनदानी" ही कहते हैं। इधर बस में थ्री सीटर पर मैं अकेला बैठा था..कमर में हलके दर्द का अहसास होने पर मैं किसी का लिहाज किए बिना उस पर लेट जाता हूँ...वाकई, यहाँ सब को अपनी ही दर्दानुभूदि की पड़ी है..! इन्हीं वजहों से अपने देश में एक-दूसरे का लिहाज करना भी खतम हो रहा है..।

          बस कूदते हुए चली जा रही है और लेटे-लेटे ही मैं, देश में व्याप्त भाईचारे की चिन्ता में निमग्न टाइप का हो रहा हूँ...इधर क्या है कि कुछ असामाजिक तत्व देश में व्याप्त भाईचारे को समाप्त करने का कुचक्र रचते प्रतीत हो रहे हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता, सरकार भी भाईचारे के बल पर ही चलती हैं..!! ये नाहक ही सरकार के दुश्मन बनते हैं..! सरकार में रहते हुए वहाँ भाईचारे की भावना से जो काम नहीं करते सरकार दुश्मनी वश ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देती है..! अलबत्ता कोरट-कचहरी और मीडिया-फीडिया भी कभी-कभी भाईचारे और सरकार दोनों के दुश्मन बनते प्रतीत होते हैं..! और सरकार को भाईचारे के खिलाफ कर देते हैं...! मजबूरन सरकार को भी भाईचारे का दुश्मन बनना पड़ता है..लेकिन, ई कोरट-कचहरी और मीडिया-फीडिया में भी तो भाईचारा का कीटाणु घुस रहा है..!! और ये भी भाईचारे के संरक्षण हेतु सन्नद्ध हो जाते हैं.. 

           चलती बस का पूरा डल्ला-पल्ला हिल रहा था..! बस के खड़खड़ेपना से कुछ ज्यादा ही परेशान होकर मैंने सोचा, "कहीं ई खड़खड़िया बसवऊ न, भाईचारे की देन हो.." और इस विचार के साथ ही भाईचारे से आतंकित होते हुए मैंने सोचा..इस भाईचारे ने तो देश को खड़खड़िया बना दिया है...एक बात बताना जरूरी हो जाता है, कुछ नहीं तो कम से कम आपको सावधान करने के लिए ही...जब कहीं बहुत ज्यादा ही "भाई-भाई" गूँजता हुआ सुनाई पड़े, तो निश्चित मानिए वहाँ भाईचारे का अन्डरवर्ल्ड टाइप से पूरा कुनबा होता है..! फिर यहीं पर भाइयों के भाई भी तो होते हैं..!! 

            बस चली जा रही है...निश्चित ही मुझे यह झकरकट्टी बस अड्डे तक पहुँचा देगी.. फिर तो लखनऊ पहुँचा ही समझिए..! मैं यही सोच रहा था कि एक बार फिर जाम से बस का चक्का जाम हो गया..! यह जाम में फंसे एक दूसरे से भाईचारा निभाते हुए इत्मीनान से खड़े थे कि तभी मेरा बस-ड्राइवर किसी ट्रक-ड्रावर को गरियाने लगता है..! मन ही मन मैं बस-ड्राइवर के हिम्मत को दाद देता हूँ..वह साथ वह ड्राइवरी के भाईचारे से मुक्त हुआ तो बस का पहिया भी थोड़ा ढीला हो गया और उचकते हुए बस चल पड़ी...इधर आप भी मेरी इस बस-यात्रा में मेरे साथ खूब भाईचारा निभा चुके हैं, अगर आपको भी कहीं पहुँचना है तो, इस संदेश के साथ बस से उतर लीजिए, कि "इस देश को गति देने के लिए देश से भाईचारे के सम्पूर्ण उन्मूलन हेतु भाईचारे के साथ आपस में सहयोग करें...!!!"