शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

बोरियतनामा

          मैं बैठे-बैठे बोर हो रहा हूँ..बोरियत भगाने के लिए कुछ लिखने की सूझ रही है..लेकिन यहाँ का दृश्यमान वातावरण बोरियत भरा होने के कारण विषय-विहीन प्रतीत हो रहा है, फिर भी लिख रहा हूँ...एक ओर कुछ बड़े-बूढ़े और बच्चे ताजिए का जुलूस उठने के इंतजार में बोर हो रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर सब्जी बेंचने वाला ग्राहक के इंतजार में..! इधर मेरे अगल-बगल बैठे चार-छह लोग बोरियत से बचने के लिए आपस में बतिया रहे हैं, तो वहीं कुछ कुर्सियाँ अपने खालीपन की बोरियत में बोर हुए आदमी की तलाश कर रहीं हैं। और उधर सामने छत पर खड़ी वह बेचारी अकेली लड़की भी इधर-उधर देखते हुए जैसे अपनी बोरियत दूर भगाने का प्रयास कर रही है...

            ...और अब मेरे सामने भुना चना रख दिया गया है, मैं अपनी बोरियत भगाने की गरज में एक-एक चना लेकर टूँगना शुरू कर देता हूँ..लेकिन यह महराया चना अपनी बोरियत से मेरी बोरियत द्विगुणित कर रहा है...निश्चित ही भड़भुजवा और दुकानदार दोनों लम्बी अवधि वाले बोरियत के शिकार होंगे...इधर जलेबी-समोसे वाला दुकानदार भी बोरियत का मारा दिखाई पड़ रहा है, जो अपनी ओर निहारते उस कुत्ते की बोरियत से अनजान है..! बेचारा कुत्ता उसे निहार-निहार कर बोर हो रहा है...जबकि वहीं जलेबी और समोसे पर बैठ-बैठ कर मक्खियाँ बोर हो रहीं हैं और बेचारी भिनभिना-भिनभिना कर अपनी बोरियत दूर कर रही हैं..! यहाँ बोरियत का ऐसा आलम है कि चौराहे पर लगा स्वच्छता का संदेश देने वाला वह फ्लैक्सी भी सामने पड़े कूड़े की ओर देख देख अपनी बोरियत में फटा जा रहा है, और बेचारे कूड़ागण हमारी बोरियत में खलल न पड़े, यह सोच-सोचकर यहाँ-वहाँ पड़े-पड़े बोर हो रहे हैं..! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे, यहाँ क्या आदमी...क्या जानवर और क्या कूड़ा...सभी अपनी बोरियत के साथ एक दूसरे की बोरियत से भी बोर हो रहे हैं...

           हाँ. मैं देख रहा हूँ...काफी देर से बैठा एक आदमी अपनी बोरियत से बोर होकर दूसरी जगह बोर होने के लिए उठकर चल दिया..तथा...अब तक आसमान में छाये छाये बोर हो रहे बादल भी अपनी बोरियत दूर करने के लिए बूँद बन टपकने लगे हैं और इन बूँदों से हमारी बोरियत में खलल पड़ा..हाँ, गजब! एक की बोरियत दूसरे की बोरियत भगाने के काम आती है..! लेकिन बादलों को आसमान में बोर होना मंजूर है, हमारी बोरियत दूर होना नहीं..और बादल बूँद बनना बंद हो गए..! 

          खैर, इस कायनात की बदौलत हमारी बोरियत दूर होने से रहा..! लेकिन यहाँ का मानव जरूर बोरियत दूर करने में माहिर है..क्योंकि अभी-अभी बोरियत दूर करने के लिए लिखने की अपेक्षा बात सुनने की विधि पर ध्यान गया...बातों का लब्बोलुआब यह निकल कर आया है कि कुछ अपने कार्यक्षेत्र में इस हद तक बोरियत के मारे होते हैं कि किसी चौराहे पर "चींटी की एक टांग क्यों टूटी" इसे जानने के लिए हलकान हो उठते हैं..! वाह!!  यह महानता से ओतप्रोत टाइप की बोरियत है और इस टाइप की बोरियत से देश सुधारा जा सकता है..!!! खैर.. 

            जुलूस आने की सुगबुगाहट से हमारी बोरियत में खलल पड़ने का अंदेशा उत्पन्न हो गया है..अरे हाँ! एक बात और ये जुलूस-फुलूस बोरियत में डूबे लोगों की बोरियत के विरूद्ध सामूहिक प्रतिक्रिया है..जिस जुलूस में जितनी भीड़ होगी उसी अनुपात में उसमें बोरों की संख्या होगी..हाँ "बोरियत-भाव" की एक खासियत यह कि यह धर्म, जाति, सम्प्रदाय से परे रहने वाली चीज होती है और सही मायने में इसमें एक टाइप का सेक्युलरिज्म होता है, हाँ इस सीमा तक हमारा देश बेहद सेक्युलर देश है..इस बात का अनुमान विभिन्न समयों पर उठते-बैठते सड़क चौराहों पर निकलते जुलूसों को देखकर लगाया जा सकता है.... 

          चलते-चलते हम एक बात और कहना चाहते हैं..जिस नेता के पीछे जितनी अधिक भीड़ होगी वह नेता या तो लोगों की बोरियत पहचानने में माहिर होगा या फिर बोर हो रहे लोगों का सरताज होगा! लेकिन इस देश में बोरियत की भी अपनी एक समस्या है, यहाँ बोरियत किसी एक बात के आधार पर टिकाऊ नहीं, कि कहें, बेटा! हम तो इस कारण से ही बोर हो रहे हैं..!! यहाँ बोरियत एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है...आज इस बात से तो कल उस बात से हमें बोर होना ही है..इसी वजह से बोरों के सरताजों या कहें बोरियत के विशेषज्ञों के लिए सार्वकालिक कठिनाई बनी रहती है..ये बेचारे! बोरियत को पहचानने और उसके पीछे के कारण पर शोध करते हुए बोर हो-होकर हलकान हो जाते हैं..और बोरियत है कि दूर होती ही नहीं... 

          लो भाई!  जुलूस अब पास आ गया हमारी बोरियत दूर हुई..लेकिन हमने आपको बोरियत- बोरियत पढ़ाकर जरूर बोर कर दिया है... कोई बात नहीं, क्षमा करिएगा..आखिर यह बोरियतनामा ही तो है..!!! 

तेल की दाम और बैलेंसिंग पावर

        पेट्रोल पंप का कर्मचारी कार की टंकी में पाइप का नोजल डालकर इत्मीनान से नोट गिनने लगा और मैं पंप के डिजिटल मानीटर पर लीटर और रूपए पर निगाह जमाए सन् चौरासी-पिचासी में अपने विजय सुपर स्कूटर को याद कर रहा था। वो भी क्या दिन थे, सात रूपए में एक लीटर पेट्रोल! लेकिन तब शायद ही कभी उसकी टंकी फुल हुई हो। उन दिनों बिजली-उजली न होने पर (अकसर नहीं होती थी) पेट्रोल पंप वाला हैंडिल घुमाते हुए पेट्रोल भरता। कार की टंकी फुल हुई और चौबीस लीटर पेट्रोल के दो हजार रूपए चुका कर सड़क पर आ गया। आगे बढ़ने पर देखा तेल-ओल के दाम से निश्चिंत घिसई सड़क पर अपने अरयें पैदल चला जा रहा था। अबकी बार मैं आम आदमी को नजरअंदाज करने वाले नेता की तरह उसके बगल से निकल लिया। 

          इतने वर्षों में तेल के दाम खूब बढ़े, लेकिन दो की जगह चार पेट्रोल-पंप भी खुले। जहाँ पहले बिजली के लिए सेहक रहे थे, वहीं विद्युतीकरण हुआ। यही नहीं एक दौर में बढ़े तेल के दाम को मनरेगा ने जस्टीफाई किया और इसके साथ ही आयी आटोमोबाइल क्रांति ने किसी बड़ी नदी के झरने जैसा तेल का खपत बढ़ाया। मतलब मनरेगा से महँगाई की अर्थव्यवस्था बैलेंस हुई, वहीं दूसरी ओर जनता भी खुश हुई थी..! हाँ, जब-जब तेल के दाम बढ़ते हैं, मनरेगा जैसी क्रांति भी आती है, और फिर महँगाई छू-मंतर हो जाती है। फिर भी हम तेल के बढ़े दाम का रोना रोते हैं।

        अचानक मैंने देखा, तेल के दाम को मुँह चिढ़ाते हुए किसी राजनीतिक पार्टी का झंडा लगाए तीन लक्जरी कारें मर्सिडीज, फार्च्यूनर और क्रेटा दना-दन मेरी कार को ओवरटेक कर गये। सिर खुजलाते हुए मैंने सोचा, जरूर ये तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध किसी धरने में जा रहे होंगे या फिर इनकी यह भाग-दौड़ बढ़ी महंगाई को बैलेंस करने की कवायद होगी। खैर, आगे हमारी कार एक वृहत्तर जाम में फंस गई..आगे-पीछे कार ही कार। हाँ कुछ ही क्षणों में मैंने स्वयं को ठहरी हुई कारों के सैलाब के बीच में पाया..वाकई! लोगों का महँगाई के विरूद्ध वृहत्तर बैलेंसिंग पावर देख मैं हतप्रभ था..!!

         एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, जो भी हो अपने देश में आम से लेकर खास तक, सब में अद्वितीय बैलेंसिंग पावर है! नागरिकों में विद्यमान इसी गुप्त पावर से पूरा देश गतिमान है, जिसमें ध्यान भंग करने की कला लुब्रीकेंट का काम करती है। इसीलिए प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन तक भारत-भूमि पर ध्यान भंग करने का कल्चर खूब फला फूला ! नमूने के तौर पर एक अखबार के मुखपृष्ठ पर छपे "तेल में जारी उबाल, रूपये में गिरावट" के ठीक बगल में इसका मुँहतोड़ उत्तर "बँगलादेशी घुसपैठियों को चुन-चुन कर निकालेंगे" भी छपा मिल जाता है। मतलब ध्यान भंग करने की कला के मार्फत राजनीति अर्थव्यवस्था को भी बैलेंस करती है। इसीलिए हम अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों टाइप के कथनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं। लेकिन जनता को जियादा राजनीति-फाजनीति या अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से मतलब नहीं होता, वह भी महँगाई को अपने मुफ्तखोरी से बैलेंस कर ले जाती है। इसलिए सरकारें अपनी रियाया के लिए मुफ्तखोरी के एजेंडे लेकर आती है।  

           वैसे असलियत में यहाँ महँगाई कोई मुद्दा नहीं होता, बस हमाम में घुसने भर की देर होती है और फिर सारा कुछ बैलेंस हो जाता है। लेकिन हमाम में घुसे हुए को इससे बाहर वाला पसंद नहीं आता। वह सब को इसमें घुसाना चाहता है। एक बार एक छोटा मुलाजिम हमाम में घुसने से बचना चाह रहा था, इस बात से चिढ़े बड़े मुलाजिम ने बैलेंस करने की गरज से उसे खूब हड़काए और चार्जशीट कर देने की धमकी दे दिए। इस पर उस अधीनस्थ ने अपने उन बड़े साहब के महँगाई से लड़ने के लिए जुटाए संसाधनों पर कटाक्ष किया और कहा, "फिर तो साहब हमसे पहले स्वयं आपको चार्जशीटेड होना पडे़गा" इसपर उन बड़े मुलाजिम ने उसे "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" घोषित कर उस पर हाथ रखना बंद कर दिया। हाँ,  कभी-कभी ऐसे ही "डिशबैलेंसिंग प्वाइंट" के कारण महँगाई से लड़ने का प्लान फेल्योर होता है और मजबूरन तेल के बढ़े दाम के विरूद्ध आन्दोलन छेड़ना पड़ता है। 

           खैर, लौटकर घर आने तक कार में भराया चौबीस लीटर पेट्रोल फुँक चुका था और मैं मन ही मन तेल के लिए खर्चे दो हजार रूपए के जुगाड़ हेतु अपने "बैलेंसिंग पावर" की ओर फोकस कर रहा था। 

रूपए का गिरना

             पेट्रोल पंप की ओर कार मोड़ते ही मुझे घिसई दिखाई पड़ गया। देखते ही मैंने उसे जोर से पुकारा, "का हो घिसई का हालचाल बा?" हालचाल पूँछने से खुश हुआ घिसई मेरे पास आकर बोला, "सब गुरू का आशीर्वाद हौवे.." वैसे मैं कोई गुरूवाई नहीं करता और न ही इसे कोई "गुरु-मंन्त्र" दिया है लेकिन इसका "गुरू" वाला संबोधन मुझे खुशी दे जाता है। खैर, उसके मेरे पास आने से गांजे की गंध मेरे नथुनों में पहुँच गयी..मैं समझ गया कि इसने अवश्य गाँजा चढ़ा रखा है..असल में क्या है कि गाँजे का नशा उसे सारी समस्याओं से मुक्त कर देता है, सूदखोरों से लिया कर्ज हो या फिर रूपये का चढ़ना उतरना, यह सब वह भूल जाता है..! मैं ठहरा थोड़ा बुद्धिजीवी टाइप का और ऊपर से उसका "गुरू" का संबोधन सोने पर सुहागा, तो मैं उस मूढ़मति को रूपये के गिरने की बात से जागरूक करने की तरकीब सोचने लगा कि आगे वह कुछ ऐसा करे कि रूपया गिरने की नौबत न आए। उसके गांजे की गंध से परेशान मैं बोला, "यार घिसई, तुम्हारा गाँजा छूट नहीं रहा..जबकि रूपया भी गिर रहा है..." यह सुन पहले तो वह सकपकाया, फिर नीचे इधर-उधर दायें-बायें देखा और फिर अपनी जेब टटोलकर खीं-खीं करते हुए बोला, "का गुरू रूपया कहाँ गिरा है? रूपया तो मेरी जेब में ही है..।" 

          जैसा कि बुद्धिजीवी लोग नासमझों पर झल्लाते हैं, ठीक वैसे ही मैं भी उससे झल्लाहट में बोला, "यार घिसई..तुम चाहे जितना घिस जाओ, लेकिन तुम्हें अकल नहीं आयेगी...रूपया तुम्हारी जेब से नहीं डालर से गिरा है..." मेरी बात पर अब वह खुल कर हँस पड़ा और बोला, "का गुरू..हमका ओत्ता मत बनावा...रूपया कतऊँ डालन पर फरsथैै..जउन डालन से गिर पड़े..? अऊर गुरू..! अगली बार महकऊआ गुटका खाए रहब..तs..ई गंजवा न महके.." उसकी बात पर मैंने अपना माथा पकड़ लिया..कहना तो चाहा कि "तुम..गांजे और गुटखे में ही चूर रहोगे..तुम दो हजार ओनइस नहीं समझ पाओगे..!तुम्हें दूर की सोच नहीं है..इसीलिए तुम रूपये का गिरना नहीं समझ पा रहे हो.." लेकिन कहने से मेरी हिम्मत जवाब दे गयी। 

             फिर भी घिसई को रूपये का गिरना समझाना जरूरी था! क्योंकि बात अब दो हजार ओनइस की चल निकली है। हालांकि मैं डालर के बजाय रूपए को किसी और चीज से गिराने की तरकीब पर विचार कर रहा था कि गाँजा के साथ उसके गुटखे की बात पर मुझे कोफ्त हो आयी। मैं समझ गया कि इसे समझाना बड़ा मुश्किल काम है और समझाने की गुंजाइश भी खतम.! अमेरिकनों का डालर गिरने से रहा, वे तो सौ डेढ़ सौ वर्ष आगे की बात सोचते हैं, जबकि हम पाँच साल की प्लानिंग वाली परम्परा से हैं, हमारा रूपया तो गिरता उठता ही रहेगा।फिलहाल रूपया उठाने की जगह जी डी पी बढ़ा दिया गया है..अब सारा कुछ बैलेंस ! 

             इस बीच गांजे की महक को छिपाने के लिए घिसई महकऊआ गुटखे की गोमती की ओर लपक लिया था, और इधर मैं भी सर खुजलाते हुए पेट्रोल पंप की ओर। इस बार मैंने कार में चौबीस लीटर पेट्रोल भरवायी जो हाल के दिनों में मेरे लिए एक रिकार्ड की बात थी।