मंगलवार, 10 सितंबर 2019

आजादी का बखार

        जब १५ अगस्त २०१९ को तिरंगा झंडा फहराया जा रहा था, तो गर्व और देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होते हुए मैंने सोचा था कि १९४७ में क्या खूब आज़ादी हमें मिली रही होगी, जैसे किसी गरीब भूमिहीन को बोरे भर भर अनाज मिल गया रहा हो।
      उस दिन दूर दराज के एक क्षेत्र में आजादी की जांच-परख करने जाना हुआ था तो वहां घिस‌इया दिखाई दिया था! वही घिस‌इया जो सड़क-चौराहे और गाँव-गिराव में चलते चलाते अकसर टकरा जाता है और जिसकी यदा-कदा चर्चा भी कर देता हूँ। उसे देखते ही मैं औचकते हुए पूँछ बैठा था, "अरे घिस‌ई, तू यहां कैसे, उस दिन तो तू शहर में मिला था!" घिस‌इया ने मुस्कुराते हुए, जैसे अपनी गरीबी पर फ़क्र करते हुए कहा था, "का गुरु, आप गरीबन को अस-तस समझते हो का, अरे ये आपको हर जगह मिल जाइहैं, बस आपका हृदै पवित्तर हो।" मैंने भी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया था, "हाँ सही कहा, अपने देश में गरीब भी भगवान की तरह सर्वव्यापी होते हैं न, और हाँ पवित्तर हृदै वाले ही गरीब खोज पाते हैं।" खैर, उस दिन तो जाँच पड़ताल करके मैं चला आया था, लेकिन इस पंद्रह अगस्त के दिन मेरे दिमाग में चकरघिन्नी की तरह यह प्रश्न नाच रहा था कि सन् सैंतालिस में बोरे भर भर मिली आजादी के वितरण में घिस‌ईया अपना हिस्सा पाने से छूटा क्यों? और मैं उसकी यादों के सहारे अपना भाषण बुनने लगा।
       असल में घिस‌इया के बाप-दादाओं से कहीं चूक हुई होगी। आजादी के मतलब से वे नावाकिफ रहे होंगे इसलिए उनकी दिलचस्पी आज़ादी के लिए मतवाले हो रहे लोगों को कौतूहल से देखने के सिवा और कुछ न रही होगी, और इसे लपकने में वे चूक ग‌ए। एक बात और, जिन्हें आजादी के मायने पता होता है वे ही नेता बनते हैं और बनाते हैं, फिर तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह बनने-बनाने का खेल चल निकलता है। इसीलिए नेताओं की पीढ़ियाँ सबसे ज्यादा आजाद होकर घूमती है। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे भारत देश इन्हीं के लिए आजाद हुआ है।
       वैसे ये करते भी तो क्या करते, इस भूखे नंगे देश में सभी को एक साथ आजादी बांटी नहीं जा सकती थी! ऐसा करने से अंग्रेजों से मिली आजादी का बखार खाली हो जाता और आजादी बांटने वालों के बच्चे भी घिस‌ईया की तरह आज मारे मारे फिर रहे होते। इसीलिए पंचवर्षीय प्लान के तहत शनै: शनै: आजादी बांटने की नीति अपनाई गई।   
         फिर क्या था आजादी के मालिकों में अंग्रेजों के लटके-झटके आ ग‌ए और अपनी मदद के लिए ये अंग्रेजियत की फौज खड़ी करते ग‌ए! इस फौज के साथ मिलकर ये आजादी का लुत्फ उठाना शुरू कर दिए। इनके लुत्फ पर कोई और मालिकाना हक़ न जताए इसलिए लबादे बुने ग‌ए, जैसे धर्म, भाषा, क्षेत्र, और तो और एक मायने में जाति के भी, क्योंकि नेताओं की आजादी के लिए ऐसे लबादे बेहद जरूरी हुए। इन लबादों को जनता की ओर उछाला गया, जिन्हें ओढ़-ओढ़ कर पगलाई-धगलाई जनता स्वतंन्त्रता की फुल अनुभूति प्राप्त करती रही है। कुलमिलाकर हुआ यह कि जैसे इन लबादों को बुनने के लिए ही हम स्वतंन्त्र हुए हों। 
       उस दिन गांव में आजादी की जाँच-परख करते करते मेरी निगाह बिना तार के बिजली के खम्भों पर चली गई, गांव वालों ने बताया आजादी के बाद से अभी तक बिजली नहीं आई, तो मैंने कहा "जैसे खम्भे गड़े वैसे बिजली भी आ जाएगी, थोड़ा गम खाओ, आजादी धीरे-धीरे आती है न।" इसी समय 'इंजिनियर कम ठेकेदार' ने कहा, "साहब, यह इंटरलाकिंग ईंटों की रोड मंदिर तक बना दिया है। आइए मंदिर तक चलें।" मैंने मंदिर की ओर जाती उस सड़क को निहारा जिसके एक ओर बस्ती तो दूसरी ओर खेत थे, लेकिन मुझे लगा इससे ज्यादा ज़रूरी उस गांव को जोड़ने वाले कच्चे रास्ते पर पुल की थी, क्योंकि बारिश के पानी ने रास्ते को काटकर तालाब में बदल दिया था। मैंने इंजीनियर की ओर देखते हुए कहा, "पहले पुल बनना चाहिए था।" तब तक साथ चल रहे मंदिर के पुजारी जी ने कहा, "आइए, मंदिर तक तक चलें.." पुजारी की ओर ध्यान से देखते हुए मैंने उसे जर्जर और निष्प्रयोज्य शौचालयों को दिखाते हुए कहा, "अच्छा ये बताइए, ये जो शौचालय बने हैं ध्वस्त होने के कागार पर हैं, कभी गांववासियों को इनका प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया है? नहीं किया है न, तो मंदिर तक मैं क्या जाऊँ! एक बात और पुजारी जी, इस गांव में कितनी गंदगी है! देख रहे हैं न, यहां के लोग बीमार जैसे दिखाई दे रहे हैं, कभी आपने इन्हें समझाया है कि अपने आसपास और स्वयं को साफ-सुथरा रखो? नहीं समझाया है न! तो आपके माथे के इस तिलक का कोई मतलब नहीं!" और वहां से चल दिया था।
         दरअसल यह सब मैंने झटके में बोल दिया था जिसके दो कारण थे। पहला, मंदिर में चढ़ावे के लिए मेरे जेब में प्रर्याप्त 'आजादी' नहीं थी, इसलिए मंदिर तक नहीं गया। दूसरे मुझे इस गांव में फुल आजादी का दर्शन नहीं हुआ। लेकिन पुजारी जी इसके बावजूद मुझे सुनकर मुस्कुरा रहे थे! उनकी इस मुस्कुराहट को मैंने उनके 'धर्म' का बड़प्पन माना जो मेरे प्रति 'क्रूर' नहीं हुआ।
       अरे हां! लबादे की बात पर मैं एक बात भूला ही जा रहा था, वह है स्वतंन्त्रता का लबादा! इस लबादे को बौद्धिकों के संम्प्रदाय के लोग ज़्यादा पसंद करते हैं! ये लोग क्रूरता में भी लोकतंत्र तलाशते हैं, तो गरीबी को आजादी का प्रतीक मानते हैं। यह बौद्धिक संम्प्रदाय जबरदस्त मानवीय होता है। इसमें लेखक, पत्रकार, मानवाधिकारवादी और स्वतंन्त्रता की चाह रखने वाले न जाने कौन-कौन से लोग शामिल हो जाते हैं और ये सुबह-शाम हुँहुँवाते रहते हैं। मुझे लगता है जब इनके जेब में 'आजादी' की कमी होती है, तभी हुँवा-हुँवा करते हैं अन्यथा घिस‌इया जैसों से, जो सत्तर साल से यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता रहता है, ये कोई मतलब नहीं रखते। हां, बात की खाल निकालना ये खूब जानते हैं, लेकिन किसी समस्या का हल इनके पास नहीं होता! आजादी का ठेका न मिल पाने पर ये अकसर आजादी के 'कस्टोडियनों' के उठने-बैठने और उनकी हरकतों पर ही फोकस्ड होकर उसमें अपनी 'आजादी' ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये बौद्धिक संम्प्रदाय के लोग शेर के सामने मिमियाते हैं। अपनी आजादी का ये ऐसे ही प्रयोग करते हैं।
      खैर, उस गाँव से लौटते ही मुझे अपनी 'आजादी' की फ़िक्र हुई तथा मैं घिस‌इया और उसके गाँव को भूल गया, क्योंकि घिस‌ई या उसके गांव की आजादी में वृद्धि से मेरी आजादी कम होती। वैसे भी इस देश में दो लोगों की आजादी में परस्पर समानांतर रेखाओं जैसा नहीं, तिर्यक रेखाओं जैसा संबंध होता है। इसलिए इनको भूलकर केवल लिखने और भाषण देने के लिए मैंने उसे और उसके गांव को अपनी यादों में सुरक्षित कर लिया।

क्या बेवकूफी की बातें हैं!

         ऊपरवाला बड़ा करामाती होता है, नीचे वालों को नचाता रहता है। यह नीचे वाला बाकायदे बाजे-गाजे के साथ नाचता है। हालांकि यह ऊपरवाला कहीं नजर नहीं आता, इसके ऊपर होने का यही प्रमाण है कि हम इसे मानते हैं कि यह ऊपर है। कभी-कभी लोग हममें-तुममें सबमें इसके होने को प्रमाणित करते हैं, मतलब यह ऊपरवाला ऊपर-नीचे सबमें है। ऐसा हम इसे स्वप्रमाणित भी मानते हैं, हाँ इसके होने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं, सोच लेने भर से यह सिद्ध हो जाता है, नहीं तो ऐसा हम सोचते ही न, कि यह है। इसीलिए इस जगती का प्रत्येक चिंतनशील प्राणी अपने तर्कों को अपना परम सत्य मानकर स्वीकार किए बैठा है। ये अंतहीन लत्तेरे की-धत्तेरे की बहसें, इसी ओर संकेत करती है कि मेरी बात मेरे दिमाग से निकली है, तो जरूर मेरी बात का अस्तित्व है, बाकी, सारा डिबेट बेवकूफ बनाने के लिए होता है। 
       
         अब होना और करामाती होना दो चीजें हैं, किसी के होने से ही वह करामाती सिद्ध नहीं होता। ऐसे तो सभी हैं, तो क्या सब करामाती हैं? नहीं हैं न ! तो करामाती होने के लिए ऊपर होना जरूरी है, ऊपरवाला ही करामाती हो सकता है। यह ऊपरवाला ही है, जो नीचे वालों को अपनी अंगुलियों पर नचाता है, भले ही उसकी अंगुलियाँ किसी ने न देखी हो। दरअसल नीचे वालों को तमाम व्याधियों से बचे रहने के लिए, ऊपरवाले की अनदेखी-अंगुलियों के इशारे पर नाचना ही होता है। एक बात है इस ऊपरवाले के चक्कर में ये नीचे वाले ऐसे झूमते-गाते हैं जैसे मनोरोगी!
       
         यह ऊपरवाला वाकई करामाती है, और नहीं तो इसकी माया के वशीभूत हम नाचते न। यह मनोरोग नहीं, मायामय हो जाना है, इसी से ऊपरवाले का अस्तित्व पहचान में आता है !! इस ऊपर वाले के चक्कर में एक बात कहना है, ऊपरवाले और नीचे वाले के बीच इस मनोरोग या यूँ कह लें माया का ही संबंध है। यह संबंध हमें वहां तक ले जाता है कि प्रत्येक ऊपरी चीज हमें इस ऊपरवाले से कम प्रिय नहीं होती। यही कारण है, सब इसके लिए नाचते हैं और इसको पाने के लिए ऊपरवाले का संरक्षण चाहते हैं, जो अदृश्य होते हुए भी अपने नीचे वालों को संरक्षित किए रहता है।
       
        कभी-कभी हमें यह भी आश्चर्य होता है कि जिसके लिए हम इतना कूदते-फांदते हैं, रोते-गाते-हँसते हैं, छीना-झपटी पर भी उतरते हैं , वह तो सिद्ध-असिद्ध से ऊपर की चीज है। वैसे भी ऊपर की चीजें सिद्ध-असिद्ध के पचड़े में नहीं लाई जा सकती। बस इसपर केवल नाचा या कूदा-फांदा जा सकता है, और इसे देखकर ही ऊपरी-तत्त्व के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है, क्योंकि ऊपर की हवा जिसे लग जाती है, उसकी हालत विचित्र हो जाती है।

           आजकल सकल हिन्दुस्तान को ऊपर की हवा लगी हुई है। सभी को दिव्य अनुभूति प्राप्त हो रही है, सब नाच-गा और कूद-फांद रहे हैं। बड़ी विचित्रता है अपने हिन्दुस्तान में !  एक अजीब सा आध्यात्मिक भाव पसर आया है हिन्दुस्तान में !! हां बड़ा शोर है यहां, कुछ भी पकड़ में नहीं।

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

जीडीपी में परिवर्तन

       आजकल इस देश में जीडीपी के गिरने पर खूब हो-हल्ला मचा है, देश पीछे जा रहा है। अब जब देश पीछे जाएगा, तो कहाँ जाएगा? अगर इस ग्लोब पर देखोगे तो, अमेरिका और भारत भी आपस में आगे-पीछे होते रहते हैं ! चूँकि मामला अर्थव्यवस्था से जुड़ता है, इसलिए पीछे जाने का मतलब आज की अपेक्षा गरीब होने से लगाना यथोचित जान पड़ता है। अब जब देश गरीब होगा तो निश्चित ही इसका समय पीछे की ओर जाएगा। जो पाषाण युग तक देश को पीछे ले जा सकता है, क्यों है न? 
      तो हम मानते हैं, जीडीपी का गिरना इस देश को बाईसवीं सदी की बजाय एक बार फिर पीछे की ओर बीसवीं शताब्दी में ढकेल देगा और निनिहाते भारत का एक बार फिर दर्शन सर्वसुलभ होगा। आखिर क्यों नहीं होगा ? जब अर्थव्यवस्था डाउन होगी तो यही होगा। कुल मिलाकर समय परिवर्तन होगा ही और जीडीपी के गिरने के अनुपात में होगा। जितना यह गिरता जाएगा उतना देश का समय पीछे की ओर खिसकता जाएगा।
          अब अगर ऐसे ही जीडीपी का गिरना जारी रहा तो बीसवीं के बाद अट्ठरहवीं से उन्नीसवीं और फिर सत्रहवीं शताब्दी होते हुए देश की अर्थव्यवस्था मुगलकाल में पहुँच जाएगी। ऐसे में यहाँ एक बात ध्यातव्य है, आज इसके गिरने पर जो फूले नहीं समा रहे हैं, तब यही लोग गिरते-गिरते मुगलकाल की अवस्था तक आई जीडीपी को यहाँ से और नहीं गिरने देना चाहेंगे। तब धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर जीडीपी के स्थिर हो जाने की ये प्रार्थना करेंगे! मतलब धर्मनिरपेक्ष अर्थशास्त्रियों को आज की रेट की तुलना में मुग़ल काल तक ले जाने वाले जीडीपी का रेट स्वीकार होगा। लेकिन तब भक्त टाइप के अर्थशास्त्रियों को यहाँ भिनभिनाने का अवसर मिल जाएगा ! और ये बेचारे जो आज इसके गिरने से तमाम लानत-मलामत तथा ताने झेलकर चिंतित हुए जा रहे हैं, तब जीडीपी के गिरावट को भारत की सेहत के लिए रामबाण औषधि घोषित कर देंगे, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था मुग़लकाल में स्टे करे।
            मुगलकाल तक पहुंचकर स्थिर हुई जीडीपी के स्तर से दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री खुश होने से रहे। यहाँ आकर जीडीपी की छीछालेदर एक बार फिर तय मानिए। इसकी ऐसी खींचतान शुरू होगी कि दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री इसके गिरने के स्तर को, मुगलकाल से और नीचे ले जाकर भारत के सोने की चिड़िया होने वाले युग में पहुँचाना चाहेंगे। लेकिन वहीं वामपंथी अर्थशास्त्रियों को यह स्थिति नागवार गुजरेगी, क्योंकि इनके अनुसार इससे भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के साथ यहां आजादी और लोकतंत्र को भी खतरा पहुँचेगा। वहीं लगे दाहिने हाथ, दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री जीडीपी को और न गिरने देने की वकालत करने वालों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर देंगे, इनके अनुसार आखिर क्यों न पहुँचे भारत अपने सोने की चिड़िया वाले युग में! 
           अब जरा कल्पना करिए कि युगों से इस देश के जीडीपी की कितनी उठक-बैठक हुई होगी ! लेकिन पहले यह मसला दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के बीच का नहीं रहा होगा। गरीब बेचारा अपनी गरीबी से संतुष्ट रहा होगा, इसीलिए इतिहास में इसपर इतना हो-हल्ला मचने की जानकारी दर्ज नहीं है। लेकिन इधर जब से विकास को राजनीति का हथियार बनाया जाने लगा है तब से अर्थव्यवस्था के आँकड़ो को गरीबों को दिखाना जरूरी हो चला है कि देखो इस सरकार ने तुम्हारी स्थिति सुधारी कि बिगाड़ी है। लेकिन इन आँकड़ों को देख सुनकर गरीब यह नहीं समझ पाते कि इसे लेकर वे हँसें कि रोयें। यहीं पर आकर मुझे इस बात की चिंता होती है कि इस पर मचे हो-हल्ले से, यदि कहीं इस देश का गरीब जाग गया तो वह जीडीपी को मनरेगा जैसी कोई योजना न समझ बैठें !
          खैर, मुझे जीडीपी और अर्थव्यवस्था पर पड़ते इसके प्रभाव का ज्ञान नहीं है। लेकिन मैं भी, जब से लोग जीडीपी-जीडीपी चिल्लाने लगे हैं, तब से इसे मनरेगा जैसी कोई योजना ही समझने लगा हूँ। साधारण भाषा में इसे हम इस तरह समझा सकते हैं कि भारत जैसे देश में जीडीपी के बढ़ने या घटने से केवल गरीबों के पतरी (पत्तल) चाटने पर असर पड़ता है। अगर बढ़ गई, तो चाटने को कुछ ज्यादा मिल सकता है और घट गई तो चाटने भर को भी कुछ नहीं बचेगा, क्योंकि यहां जो गरीब नहीं होता उसका पेट बहुत बड़ा होता है, और सारी जीडीपी उसी के पेट में जाती है, जैसे मनरेगा की मजदूरी! इसीलिए गरीब बेचारे जीडीपी से मतलब नहीं रखते। इस पर ज़्यादा चर्चा करना दक्षिणपंथी और वामपंथी अर्थशास्त्रियों के खेल को शह देना भर है, जो राजनीति करते हों वही शह-मात का खेल खेलें। 

बुधवार, 28 अगस्त 2019

धारा 370 हटाए जाने के मायने

       मोदी सरकार ने कश्मीर से धारा ३७० हटाकर कश्मीर और शेष भारत के बीच संवैधानिक स्वरूप ग्रहण कर चुके मनोवैज्ञानिक अलगाव की भावना को समाप्त किया है। सन 47 में कश्मीर की जो भी स्थिति रही हो, लेकिन तब से लेकर आज तक इसे भारत का अभिन्न अंग माना गया। इसके बावजूद इस धारा की चुभन की पीड़ा को कम करने के लिए ही बार बार राष्ट्रीय भावना को व्यक्त करते समय भारत की एकता की बात पर बल दिया जाता रहा है। धारा 370 भारत की एकता के बीच एक प्रश्नचिह्न्न की तरह था। इसके प्रावधान से कश्मीरियत के संरक्षण के बजाय अलगाववादी विचारधारा प्रोत्साहित हो रही थी और साम्प्रदायिक मानसिकता को उभारकर पाकिस्तान इसका लाभ उठा रहा था। शायद यही कारण है कि इसके हटाए जाने से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है, क्योंकि कश्मीर के विवाद में भारत को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलती दिखाई दे रही है।
          लेकिन कतिपय विपक्षीदल इसके हटाए जाने पर अपनी दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं, इसके पीछे किसी सैद्धांतिक की बजाय राजनीतिक कारण की भूमिका अधिक है। ये जानते हैं कि यदि यह नीति असफल होती है तो उनका विरोध याद किया जाएगा। वहीं दूसरी ओर ये इसे साम्प्रदायिक नजरिए से भी ये देख रहे हैं और अप्रत्यक्षत: मुस्लिम मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने की उनकी यह एक कोशिश भी है, क्योंकि इन्हें विश्वास है कि किसी भी नेता का आभामंडल उसका साथ दूर तक नहीं देता और जनता उसकी सफलता या असफलता को धीरे-धीरे विस्मृत करती चली जाती है।
          
         यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात यह देखने की है कि, कुछ विपक्षी नेताओं के विरोध के स्वर को पाकिस्तान भारत के विरूद्ध प्रोपैगंडा फैलाने के लिए कर रहा है, यह स्थिति ठीक नहीं। विपक्षी नेताओं को इसमें राजनीतिक अवसर तलाशने से बचना चाहिए, क्योंकि इतिहास में इस विरोध को भी याद रख जाएगा। विरोध की एक दूसरी धारा संविधानवादियों या मानवतावादियों की है,  जो विरोध से केवल यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे संविधानवादी या मानवतावादी हैं, यहाँ इनके लिए राज्य अप्रत्यक्ष रूप से गौड़ हो जाता है।

          कुलमिलाकर देखा जाए तो धारा 370 हटाने की कार्यवाही संवैधानिक हो या असंवैधानिक, यह एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करता है, ऐसी स्थिति में इसकी संवैधानिकता का प्रश्न गौण हो जाता है। दरअसल इस धारा को हटाकर उस भ्रम के आवरण को उच्छिन्न किया गया है, जिसका लाभ पाकिस्तान लेता आया है। इसलिए भारतीय जनता को इसके हटाए जाने की संवैधानिकता से कोई मतलब नहीं, इससे जो संदेश गया है उससे मतलब है।

शनिवार, 3 अगस्त 2019

मीडिया के जुलाहे

गजब  है भाई इस देश की मीडिया ! हाँ 'मीडिया' को लेकर कन्फ्यूजियाइए मत, आज के जमाने में इसका दो ही मतलब निकलता है; एक न्यूज चैनल और दूसरा सोशल मीडिया, बस। 

        अगर यह चैनल वाला मीडिया किसी बात पर जोश में है तो समझिए पूरा देश जोश में है और अगर शोक में है तो तय मानिए अक्खा भारत शोक में डूब रहा होगा। मने यदि यह कहे कि आज पूरा देश रो रहा है, तो रोने वाले को छोड़िए, मान लेना होगा कि रोने वाले को रूलाने वाला भी रो रहा है। वहीं, अगर मीडिया उत्सव मनाता दिखाई पड़े, तो फिर यही मान लेना उचित है कि पूरा देश उत्सव के मोड में है और रोने वाला भी उठकर भांगड़ा कर रहा होगा। और हां, अगर यह न्यूज चैनलीय मीडिया मान रहा है कि देश गु्स्से में है, तो बिना किसी किंतु-परंतु के स्वीकार कर लेना चाहिए कि निरहू, कतवारू, घुरहू तक खाने-पीने और रोजी-रोटी की चिंता छोड़ गुस्से में है। 

      हां, कभी-कभी यह मीडिया दुखात्मक लहजे में जब 'जनता मांगे न्याय' कहे, तो देश की जनता को इसमें थोड़ा सुधार करके इसे इस रूप में समझना होगा कि जानता तो जनता, बेचारे मीडिया वाले को भी न्याय चाहिए।

           बाकी सोशल मीडिया पीछे थोड़ी न रहेगा! यहां भी तो एक से बढ़कर एक महारथी भरे पड़े हैं, ये भी सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ मचाये पड़े रहते हैं। लेकिन नहीं नहीं ! सोशल मीडिया के इन जुलाहों के बीच जूतम-पैजार दर्शाता है कि एक सौ तीस करोड़ देशवासी इनके लिए सूत-कपास ही हैं ! अगर ये जुलाहे न हों, तो इनके अपने-अपने कौम या जाति और यहां तक कि इनके देश पर महासंकट छा जाए !! 

          कुल मिलाकर इस मीडिया पर ये ज्ञान के परम तत्त्वी लोग, ऐसा ज्ञान बूंकते हैं कि अगर इनकी बात मान ली जाए तो भारत नामक यह देश पता नहीं कौन सी प्रक्षेपक गति हासिल कर ले कि बड़े से बड़े महारथी तक देखते रह जाएं !! क्योंकि इस देश की समस्या का समाधान इन्हीं के विचारों से है। ये अपनी कौम और अपनी जाति को तारने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। आखिर जब इनकी कौम और जाति तरेगी, तभी न देश तरेगा !! मेरे विचार से सोशल मीडिया के इन जुलाहों की बातों को इनके कौम वाले देशवासी यदि मानने लग जाएं तो निश्चित ही इस देश का सामाजिक-आर्थिक विकास 'पलायन-वेग' की  गति से उर्ध्वाधर की ओर उन्मुख होगा, जिसके लिए भारत सदियों से तरसता आया है और जिसे राजे-महराजे तो क्या, मुगलिया सल्तनत से लेकर अंग्रेज तक हांसिल नहीं कर पाए । वाकई, फिर तो दुनियाँ के देशों को हमारी बराबरी करने के लिए दुनियां के नक्शे में नहीं, ब्रह्मांड के नक्शे में भारत को खोजना पड़ेगा। 

            इसीलिए मेरी सलाह है कि अगर देश की सारी समस्याओं का समाधान चाहते हैं तो, प्रिंट मीडिया पर ज्यादा नहीं, केवल अपने मतलब भर का भरोसा करिए। बाकी इधर-उधर न जाइए, केवल और केवल इन न्यूज चैनलीय और सोशल मीडिया के खलीफाओं के जैसा अपने अंदर फीलिंग लाइए ! क्योंकि अगर देश के सभी लोग जोश, क्रोध, शोक और रोने आदि में मशगूल होंते रहेंगे, तो देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होकर हंड्रेड परसेंट निर्यातोन्मुखी हो जाएगी और अर्थव्यवस्था में 'आयात' जैसा शब्द एक भूला-बिसरा शब्द होगा। क्योंकि फिर तो भूख-प्यास से निफिरिक मीडिया-ओरिएंटेड देशवासियों को कुछ नहीं चाहिए। बाकी ज्ञान-वान अपने लोक-परलोक और कौम-फौम की चिंता के लिए सोशल मीडिया पर एकटक फोकस्ड रहिए। अब जियादा समझाने की जरूरत नहीं, जितना कहा उतना ही समझिए। कल्याणमस्तु।

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नेताजी बुरे फंसे!

           नेता जी बुरे फंसे ! बस इतनी सी ब्रेकिंग न्यूज की हेडिंग पढ़कर दिल बल्लियों उछल पड़ा। जैसे इत्मीनान हो गया कि बच्चू नेता जी! अब ज़्यादा न इतराओ, आप फंसे हो और वह भी बुरे !! नेता जी का बुरा फंसना मुझे खुशी दे गया, क्योंकि मैं ठहरा देशभक्त टाइप का आदमी। इसीलिए नेताजी की इस फंसावट में मुझे मेरी राष्ट्रोद्धार की परिकल्पना सजीव होती प्रतीत हुई। वैसे तो इस जग में जन्मने वाले सभी फंसे होते हैं और इसका प्रमाण भी हमसे ही मिल जाता है जब पूंछने पर कह बैठते हैं कि भइया हम तो दुनियादारी में फंसे भये पड़े हैं। हाँ कहीं भी घुस जाओ हर तरफ और हर चीज की अपनी दुनियादारी होती है।

           खैर टीवी के स्क्रीन पर बार-बार फ्लैश हो रहे इस ब्रेकिंग न्यूज पर अपनी नजरें जमाए हुए मैं देश के महान लोकतांत्रिक स्वरुप के प्रति श्रद्धावनत होकर मन ही मन इसे प्रणाम करने लगा और सोच रहा था कि जब यहां का प्रजातंत्र नेता जी तक पहुँच सकता है तो हम जैसे लोग किस खेत की मूली हैं, हम तो फंसे-फंसाए बैठे हैं। अपने इस आकलन के साथ भयमिश्रित प्रसन्नता महसूस करते हुए मैं राष्ट्र के सुखद भविष्य की कल्पना में मशगूल हो गया।   

           अभी मैं स्क्रीन पर दुप-दुप हो रहे इस न्यूज हेडिंग से उत्पन्न फीलगुडीय टाइप के रोमांच में खोया ही था कि मेरे मन में एक विचार फ्लैश हो उठा। वह यह कि, नेता जी‌ आखिर फंसे तो किसमें फंसे? क्योंकर और कहाँ फंसे? क्योंकि यहाँ फंसने फंसाने की किसिम किसिम की वैरायटियां हैं। किसी घपले-घोटाले में तो नहीं फंस गए बेचारे नेताजी!! 

       यही जानने के लिए मैंने एक बार फिर अपना ध्यान न्यूज को ब्रेक कर रहे हेडिंग पर फोकस किया, जो अभी भी फ्लैश हो रहा था। इसी बीच परचार-सरचार भी शुरू हो गया। लेकिन मैंने टीवी स्क्रीन से नजरें नहीं हटाया, कि क्या पता नजर हटी नहीं कि ये ससुरे टीवी न्यूज वाले इस ब्रेकिंग न्यूज का कोई पार्ट-टू दिखा कर चलता बनें और मैं देश हित के किसी महान पल का साक्षी बनने से रह जाऊँ। इन टीवी वालों ने अपने इस न्यूज से जैसे मुझे भी फांस लिया हो।

       एक देशभक्त टाइप के व्यक्ति की तरह मैं नेताजी के फंसने से होने वाले देशोद्धार के बीच आनुपातिक संबंध के मानसिक विमर्श में फंस गया। वैसे चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार आदि में फंसने को मैं ज्यादा महत्व नहीं देता और ऐसी फंसावट देशोद्धार की क्रिया में बाधक भी नहीं होती, क्योंकि नेता लोग जेल में रहते हुए भी प्राय: येन-केन-प्रकारेण देश सेवा करते हुए देखे जा सकते हैं। 

       मेरा दूसरा अंदेशा नेताजी के घपले-घोटाले में फंसे होने को लेकर था। वैसे घपले-घोटाले को लेकर मेरे अपने कुछ निजी विचार हैं। 

     दर‌असल इस देश का तांत्रिक-सिस्टम घपले-घोटाले को लेकर नहीं, अपितु टारगेट को लेकर  संवेदनशील होता है। और हो भी क्यों न, आखिर इतने पिछड़े और अविकसित देश में यदि टारगेट पूरा नहीं होगा तो देशोद्धार होना संभव नहीं। इसीलिए तांत्रिक-सिस्टम में टारगेट पूरा न करने वाले ही फंसते हैं और उनके विरूद्ध कार्यवाहियाँ होती है।

        घपले-घोटाले तो टारगेट पूरा होने के बाईप्राॅडक्ट है, जिससे भारत देश का लोकतंत्र समृद्ध होता है। अब अगर टारगेट पूरा नहीं होगा, तो घपले-घोटाले भी नहीं होंगे और देशोद्धार का उद्देश्य भी पूरा नहीं होगा। इसीलिए केवल लक्ष्य पूरा करने पर सारा जोर होता है। इस प्रक्रिया में घपला-घोटाला मौज का विषय होता है और टारगेट पूरा न होना सजा का। 

       घपले-घोटाले को तभी सजा का विषय माना जाता है जब इसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता, अन्यथा घोटालेबाज सदैव से पुरस्कृत होते आए हैं। यही कारण है कि चमक-दमक भरी जगहों पर घोटालेबाज ही होते हैं। एक तथ्य और, घपला-घोटाला कभी सिद्ध भी नहीं किया जा सकता।

        इस प्रकार घपले-घोटाले लोकतंत्र को जीवित रखने के काम आते हैं, इसके पीछे राष्ट्रोद्धार की भावना छिपी होती है! निश्चित ही नेता जी का घपले-घोटाले में फंसना देश हित में नहीं होगा और यह बेफालतू की बात होगी।

       अभी मैं नेता जी के फंसने को लेकर अपने इसी मानसिक विमर्श में गोता लगा रहा था कि टीवी स्क्रीन पर बड़े जोर से एक और ब्रेकिंग न्यूज फ्लैश हुई, जो स्क्रीन पर लगातार दुपदुपा  रही थी। 

       “नेता जी आचार-संहिता के उल्लंघन में फंसे” बस यही था ब्रेकिंग न्यूज पार्ट-टू! इस न्यूज ने तो वाकई में मुझे ब्रेक कर दिया। इतनी देर से मैं पहाड़ इसलिए नहीं खोद रहा था कि मुझे चुहिया की तलाश थी और न ही मैं खजूर पर अटकना चाहा था। देशोद्धार के प्रति आशान्वित मेरा हृदय इस समाचार से बैठ गया। 

       आखिर आचार-संहिता के उल्लंघन में फंसना भी कोई फंसना होता है! पता चला कि माननीय ने कुछ ऐसा-वैसा कह दिया था, जिसे कहने का, उनका कहने वाला आशय नहीं था। अब किसे यहां कौन समझाए कि इस देश का टारगेट लोकतंत्र है और नेता का टारगेट चुनाव जीतना, चुनाव जीत कर ही ये देश का टारगेट पूरा कर सकते हैं, जो एकदम से देशहित का विषय है। नेता जी भी अपना टारगेट पूरा कर रहे थे, तो क्या बुरे फंस गए? लेकिन जो टारगेट पूरा करने के चक्कर में फंसते हैं उन्हें मैं निरपराध मानता हूँ।

         फिर भी, चुनाव के पीरियड में अपने देश का थका-मांदा लोकतंत्र इसी आचार-संहिता की मच्छरदानी में आराम फरमाता है। बाकी समय वैसे भी उसकी नोचाई-चोथाई चलती रहती है, लेकिन यहाँ भी उसे चैन नहीं लेने दिया जा रहा। नेता जी ने मच्छरदानी में आराम फरमाते लोकतंत्र को डिस्टर्ब करने की कोशिश किया, लेकिन यह उनका माफीएबल बचपना है। 

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खुलासा

       अभी एक नया-नया टी वी चैनल आया है, वही टी वी चैनल माने समाचार चैनल! आखिर चैनलों में भी तो समाचार चैनल का ही धंधा चोखा जो होता है !! रिमोट का बटन दबाते दबाते मैं इसी नये चैनल पर पहुंच गया था, देखा ऐंकर महाशय उछल-उछल कर कुछ वी आई पी टाइप के लोगों के ऊपर कराये गए अपने चैनलीय स्टिंग आपरेशन के खुलासे ऐसे कर रहे थे जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया हो, जबकि बात कुछ भी नहीं थी, बस इतनी कि बेचारे ये स्टिंगित नेता येन-केन प्रकारेण चुनाव लड़ने के लिए फंड की तलाश में थे, जबकि अपने लिए फंड कौन नहीं तलाशता? लेकिन ये ऐंकर महाशय इस छोटी सी बात पर भी इन बेचारों की लत्तेरे की धत्तेरे की किए जा रहे थे।
           
          हालांकि इस खुलासित समाचार चैनलीय स्टिंगित नेताओं की चुनावी फंड की डिमांड उन्हें फंडित करने वाले की हितचिंता की गारंटी के साथ और बाकायदे देश के लोकतंत्र के हित में कुछ टिप्स को फालो करने के लिए ही थी। आखिर इस देश में लोकतंत्र की समृद्धि के लिए नेता को भीड़ और नशेड़ी वोटर ही तो चाहिए। क्योंकि यहां का मतदाता बिना नशे का फुल डोज़ लिए लोकतंत्र में जान नहीं फूंकता। वोटर के मदमत्तावस्था में पहुंचते ही भारतीय लोकतन्त्र के पैरों में घुंघरू बंध जाता है और तब भीड़ के सामने इसकी चाल देखने लायक होती है। तो, इस स्टिंगीय खुलासे से यही लब्बोलुआब निकल कर आ रहा था कि भावी उम्मीदवारों की फंड मांगने की सारी क़वायद लोकतंत्र के पैरों में घुंघरू बांध कर उसे भीड़ के सामने नचाने की ही थी।

        लेकिन ऐंकर महोदय भ्रष्टाचार के इस खुलासे को धमाकेदार बताए जा रहे थे। अब उन्हें कौन समझाए कि भ्रष्टाचार में जो 'आचार' शब्द जुड़ा है न, वही जीवन को खुशनुमा बनाता है, नहीं तो इस जीवन में नीरसपने के सिवा और कुछ भी नहीं है। यह बात इस देश के आम से लेकर खास सभी टाइप के मतदाता जानते हैं। शायद यह ऐंकर ही है, जो इसे न जानते हों, अन्यथा अपने खुलासे पर इतना कूद-फांद न मचा रहे होते। हद तो तब हो गई जब अचानक चिल्लाने जैसी ब्रेकिंग आवाज में बोल पड़े कि "स्टिंग में धराये फला नेता को फला पार्टी ने ससम्मान अपने दल में शामिल करा लिया।" मैंने ध्यान दिया इसे ब्रेकिंग टाइप का न्यूज़ बनाते समय उनकी भाव भंगिमा देखने लायक थी। जैसे वे, मने ऐंकर जी ही किसी स्टिंग में धरा लिए गए हों और उनकी टीआरपी घट गई हो। खैर चैनल पर विज्ञापन भी आने शुरू हो गए थे जैसे अपने इस प्रायोजित स्टिंग आपरेशन के खुलासे वाले प्रोग्राम की टीआरपी के घटने के पहले ही उसे भंजा लेना चाहते हों।
         
        ये चैनल वाले भी बड़ी चालू चीज होते हैं, बेबात को बात बना देते हैं और बात को हवा में उड़ा देते हैं। देखिए तो इनके स्टिंग में खुलासे वाली जैसी कोई बात नहीं है, जो बात सबके सामने पहले से ही खुली है उसका क्या खुलासा? लेकिन नहीं, भाई को चैनल चलाना है टीआरपी बढ़ाना है..विज्ञापन पाना है और कमाई करनी है। क्या जनता बेवकूफ है, लेकिन यह जनता है सब कुछ जानती है, इसीलिए इस खुलासे की कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई। हां जनता को पता है कि भीड़ का हिस्सा बनने, मुफ़्त में पीने और यहां तक कि उसके वोट की कीमत भी उसे मिलती है और उसे यह सब देने वाले यही नेता लोग होते हैं। बेचारे स्टिंगित नेता इसी के लिए तो फंड इकट्ठा कर रहे थे! जनता समझ गई है कि यह खुलासा या इस तरह के खुलासे उसके लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुल्हाड़ी चलाने के समान है।

        आखिर जनता भी तो जानती है कि यही चुनावी मौसम है, जिसमें उसे कुछ पाना होता है, नहीं तो फिर पांच साल टकटकी लगाए इसका इंतजार करना होता है। अतः वह भी सोचती है कि इसी मौसम में पी पा लो, मदमत्त हो लो और जहां मिले मुफ़्त की रोटी तोड़ लो, नहीं तो यहां कुछ मिलने वाला नहीं है! वैसे भी यहां का लोकतंत्र गरीबों के नाम पर गरीबी दूर करने के लिए मनरेगा टाइप की योजना है!! अरे हां, मनरेगा पर पिछले दिनों मिले घिसइया की बात याद आ गई। वही घिसई जिसकी चर्चा अकसर मैं आप सबसे कर बैठता हूं।
       
          घिसई को नशे में मदमत्त देख, मैंने उस दिन उसे गुस्से में डपटते हुए कहा था कि तूने आज फिर पी ली है, जबकि तू कहता है कि अपने पैसा का नहीं पीता? घिसइया वहीं नशे में लड़खड़ाते हुए मेरे सामने फर्श पर बैठ गया था और हाथ जोड़कर मुझसे बोला था, "नहीं हुजूर..आज भी मैंने अपने पैसे से नहीं, मनरेगा के पैसे से पिया है।" यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया था। मैंने उसे फिर से डपटते हुए पूंछा, अरे, बेवकूफ मनरेगा का पैसा क्या तुम्हारा पैसा नहीं है?" मेरी इस बात पर घिसइया ने उसी तरह नशे में झूमते हुए मुझे समझाया था।

      असल में क्या है कि घिसई को बिना काम किए हुए मनरेगा के साढ़े पंद्रह हजार रुपए मजदूरी के मिले थे, और प्रधान जी ने उसमें से पंद्रह हजार रुपए लेकर उसे पांच सौ रुपए दिए थे, उसी पांच सौ रुपए से उसने अपने दोस्तों संग शराब पी थी। घिसईया के इस खुलासे पर मैं विस्फरित नेत्रों से उसे देखने लगा था। मुझे अपनी ओर इस तरह घूरते देख नशे में चूर वह अपनी लाल-लाल मदमाती मिचमिचाती आंखों से मेरी ओर देखते हुए बोला था, "अब बताओ हुजूर..मैंने मुफ़्त में पिया कि नहीं?" मैं घिसई को वैसे ही देखे जा रहा था, मुझे लगा लोकतंत्र में अपना हिस्सा पाकर वह नशे में झूम रहा है।

      ज़रा सोचिए, घिसई के इस खुलासे के सामने चैनल वालों का यह खुलासा कहां ठहरता है !! खैर जो भी हो लेकिन एक बात है, अगर अब घिसई मुझे मिल जाए तो मैं इन खुलासे करने वाले चैनलों के ऊपर उसे विधिक कार्यवाही करने के लिए उकसाउंगा, क्योंकि उसके बचे-खुचे लोकतांत्रिक अधिकारों पर ऐसे खुलासे बाधक के समान है।
       
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अभिभूतिकरण

        घिसई अकसर नेताओं के भाषणों को "आरत के मन रहई न चेतू" टाइप से आब्जर्व करता है और उसी में अपना भाग्य तलाशता है। कभी-कभार मिलने पर इन भाषणों का जिक्र वह मुझसे जरूर करता है, और मैं इन बातों के बीच में छिपे पप्पू-गप्पू-पन से उसे परिचित भी कराता रहता हूँ। असल में क्या है कि डरता हूँ, आम आदमी से भी गया गुजरा अपना यह घिसई कहीं ऐसे भाषणों से अभिभूत होकर चकरघिन्नी में न फंस जाए..! क्योंकि यह चकरघिन्नी बड़ी रोमांटिक चीज होती है। 

        उस दिन गरीबों को जागरूक करने में लगे किसी स्वयंसेवी संस्था के एक नेतानुमा पदाधिकारी सामने बैठे घिसई टाइप आदमियों को समझाते हुए बोल रहे थे, "बोलो, योजनाओं की जानकारी लोगे कि नहीं..बोलो.." और  हुंकार के उठते समवेत स्वर के साथ उनसे नारा लगवाते, "जोर से बोलो..भारत माता की जय।" पहले तो "योजनाओं की जानकारी" और "भारत माता की जय" के बीच का कनेक्शन समझ में नहीं आया, लेकिन मैंने अहसास किया कि इस जयकारे के जस्ट बाद देशभक्ति की भावना में मेरा रोयाँ खड़ा हो चुका है! इस रोमांच के साथ ही मैं इन दोनों के बीच के कनेक्शन को जान गया। अब सभा विसर्जित होने के बाद नेता जी निश्चिंत होकर अपने पीछे 'भारत माता' को छोड़ जाएंगे, जो अपने इन लालों पर कृपा बरसायेगी। मतलब उन नेता जी की बातों से मैं भी अभिभूत था। तो, ऐसेई होता होगा अभिभूतीकरण और अभिभूतावस्था.!! 

          घिसई भी कभी-कभी भाषण सुन लेने के बाद ऐसा ही अभिभूत हुआ रहता है, तब उसका भूत उतारना मुश्किल होता है, और जब-तब समझाने के दौरान मुझसे कह बैठता है, "गुरू..तुहूँ पार्टीबंदी में फंसि गवा ह्यअ.." इसपर कहने को तो मैं उससे यह भी कह सकता हूँ, "मिस्टर घिसई जी..बुद्धिजीवियों की बुद्धि दरअसल पार्टीबंदी में पड़ने पर ही खुलती है, और तभी उनकी बुद्धि की गहराई का पता चलता है" लेकिन कहता नहीं, क्योंकि घिसइया ऐसी बातों को समझ ही नहीं पाएगा। हालाँकि मेरी पत रखने के लिए वह हाँ-हूँ के अंदाज में मूंड़ी जरूर हिलाता रहता है, खैर। 

           आज मिलते ही वह बोल पड़ा था, "गुरु अब तउ ई सरकार बदलै क पड़ी।" इस बात में उसकी दृढ़ता देख मैं समझ गया कि अपनी अभिभूतावस्था में वह ऐसा बोल रहा है, क्योंकि उसकी एकदमै वाली आम-आदमियत उसे इतने दृढ़-निश्चय पर कभी नहीं पहुँचा सकती! हाँ, आजादी के इतने वर्षों बाद पैदा हुए बेचारे घिसई जैसों को आज भी निर्णय लेने के लिए अभिभूतीकरण की प्रक्रिया से गुजरना और गुजारना पड़ता है।      

        मैंने अभिभूतीकृत घिसई का भूत अपने आप उतरने तक, उसे कुछ भी समझाना व्यर्थ समझा और उससे पूँछा, "ऐसा क्यों!" 

         छूटते ही घिसई बोला-

        "अइसा एहि बदे कि गुरू, ई सरकार हमई लोगन के लिए घपलऊ-घोटालऊ नाहीं करइ देत बा, हमरे बेरोजगारी का तनिकऊ खियाल ई सरकार को नाहीं अहै..आसमानी घोटाला कइके बड़कवन को जरूर फायदा पहुँतावत बा..फिर तउ सरकार बदलै क पड़िबइ करी..!" 

          उसकी इन तल्ख बातों से मैंने अनुमान लगाया कि जरूर किसी नेता के भाषण से इसका अभिभूतीकरण सम्पन्न हुआ होगा। लेकिन इधर चुनावी-कार्यक्रम सम्पन्न हो जाने से नेताओं के भाषणबाजी की भी संभावना नगण्य थी। फिर भी मेरे दिमाग में आया कि इस देश के नेता चिर-चुनावी-मुद्रा बनाए रखते हैं, जैसे रनवे पर उड़ान भरने के लिए तैयार खड़ा कोई विमान ! हो न हो, ऐसे ही चुनावी-मोड में किसी चिर-ऐक्टीवेटेड-पर्सन टाइप नेता ने इस घिसई को अपनी बातों से अभिभूत कर दिया हो.!!

        खैर, मेरा अनुमान सही निकला, दरअसल वह एक नेता के लान में घास छिलायी का काम करके वापस आ रहा था। उन नेता जी ने अपने घर पर ही उसे अपनी बातों से अभिभूत कर दिया था। उन्होंने उसे समझाया था कि अगर सरकार घपले-घोटाले करने देती तो शहर में खाली पड़े अपने बड़े "पिलाट" में वे "बेल्डिंग" बनवाते और उस निर्माण कार्य में उसे यानी घिसई को कई महीनों का रोजगार दे देते। साथ में घिसई ने मुझे यह भी बताया कि "गुरू, ऊ बड़ा दयालू हैं, कह रहे थे, पिछली बार हमने अपने पैसे से वृद्धाश्रम बनवाए जहाँ बूढ़े होने पर तुम भी रहि सकत हो और गुरू...ऊ कह रहे थे कि वैकुंठ-धाम को इतना भव्य बनवाया है कि ऊँहा जाने पर बहुत शांति मिलेगी..!" घिसई के ही अनुसार, अंत में नेता जी ने उसे यह भी समझाया था, "देख घिसइया, तुझ जैसे लोग किरांतिकारी-एपरोच नहीं रखते हैं, इसीलिए भुगतते हैं, सरकार बदलो और अबकी बार बड़के-चुनाव में मुझे जिताओ, आखिर तुम्हारे जीने-मरने तक का खयाल हमहीं रख सकते हैं, बताओ हमसे बड़कवा धार्मिक कउन होगा..!"

        मुझे ध्यान आ गया, शायद ये वही नेता जी रहे होंगे जिन्होंने एक दिन अपने द्वारा किए गए कार्यों के उद्घाटन के अवसर पर अपनी उपलब्धियों को गिनाते-गिनाते वृद्धाश्रम और वैकुंठ-धाम की सुख-सुविधा और उसकी भव्यता का ऐसे बखान किया था कि जैसे, सामने बैठी जनता में जल्दी-जल्दी वृद्ध होकर वृद्धाश्रम जाने और फिर मरकर वैकुंठ-धाम की सुख-सुविधा भोगने की लालसा जगा रहे हों..!! मैंने देखा था, उनके पी.ए.जी यह भाषण सुनकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।

      खैर, मैं समझ गया कि आज घिसइया का अभिभूतीकरण कस के हुआ है और इसपर से "किरांतिकारी-एपरोच" वाला भूत इतनी आसानी से उतरने वाला नहीं है, क्योंकि इसकी अभिभूतावस्था दीर्घकालिक स्वरूप धारण किए प्रतीत हो रही है। और अपने इन्हीं विचारों के साथ, उसे समझाए बिना मैंने अपनी राह पकड़ ली। 
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