गुरुवार, 12 मई 2016

ऐसे पत्थरों का विकल्प तलाशें....

             हाँ, महोबा के गाँवों की ओर जब हम निहारते हैं तो पहाड़ों की तलहटी में कोई न कोई गाँव बसा हुआ दिखाई दे जाता है। या इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं - महोबा जनपद के अधिकाँश गाँव पहाड़ों के ठीक नीचे ही बसे हैं! आखिर ऐसा क्यों है? इन गांवों का भ्रमण करते समय मैंने पाया है कि गांवों का पहाड़ों के नीचे बसने का एक खास कारण रहा है। ये गाँव ठीक पहाड़ों के नीचे की जिस भूमि पर बसे हुए होते हैं उस क्षेत्र की भूमि अन्य स्थानों की अपेक्षा नीची होती है जबकि जैसे-जैसे पहाड़ों से दूर जाते हैं भूमि ऊँची होती जाती है और गाँव से दूर पठार जैसा दृश्य उपस्थित करता है हालाँकि वह पठार जैसा नहीं होता लेकिन भू-जल की दृष्टि से कठिन होता है। जबकि पहाड़ के ठीक नीचे के जिस भू-भाग पर ये गाँव बसे होते हैं वहाँ का भू-सतह अासपास के स्थान से नीचा होने के कारण यहाँ के ग्रामीणों के लिए भू-जल प्राप्त करना आसान होता है तथा इसी कारण इस स्थान पर पर्याप्त मात्रा में हरियाली भी होती है।

              यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना समीचीन होगा कि वर्षाकाल में इन पहाड़ों पर पड़ने वाली बारिश की बूँदें धीरे-धीरे पहाड़ के पत्थरों की दरारों और रन्ध्रों से होते हुए भू-जल को समृद्ध करता रहता है। यही कारण है, ठीक पहाड़ों के नीचे की भूमि नम और वहाँ भू-जल तथा हरियाली की उपलब्धता वर्षाकाल के बाद भी बनी रहती है। शायद इसी कारण से महोबा के लगभग सभी पहाड़ों के नीचे गाँव बसे हुए हैं। 

            हम देख सकते हैं कि महोबा जैसे जनपद के लिए इन पहाड़ों की बेहद उपयोगिता है। वास्तव में महोबा भारत के उस भू-भाग पर बसा है जहाँ मानसूनी हवाओं का प्रभाव काफी कम रहता है और यहाँ पर्याप्त मात्रा में बारिश भी नहीं होती। लेकिन यहाँ के पहाड़ वर्षा जल-संचयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि जो कुछ वर्षा होती है ये पहाड़ इसे अपने दरारों-रन्ध्रों के माध्यम से धीरे-धीरे संचित करते रहते हैं। और यहाँ इन पहाड़ों के आसपास ही जिन्दगी बसती है। 

            लेकिन दुख है ! पत्थर की खदानों से इन पहाड़ों के लिए अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो चुका है। पहाड़ के पहाड़ गायब हो रहे हैं। इसी के साथ प्राकृतिक रूप से स्वतः जल-संचयन की प्रक्रिया भी प्रभावित हुई है। समय आ गया है, अब हमें ऐसे खदानों और पत्थरों का विकल्प तलाशना होगा। 
                                                                                                                     --विनय कुमार तिवारी

सोमवार, 9 मई 2016

ये धर्म के आडम्बरी

        वैसे यह हमारी अपनी बात है (अपवाद भी मैं स्वीकार करता हूँ), कि ‘धर्म का आडम्बर’ व्यक्ति को क्रूर भी बनाता है, या फिर क्रूर व्यक्ति ही धर्म का आडम्बर करता है; क्योंकि ऐसे व्यक्ति की संवेदनाएँ कुंठित हो गई होती है| ऐसे व्यक्ति को अपनी क्रूरता का एहसास भी रहता है लेकिन अपने इस मनोभाव को परिमार्जित करने के स्थान पर ये लोग धार्मिक आडम्बर के साए में ही आत्मसंतोष की अनुभूति प्राप्त करते रहते हैं तथा स्वयं की नज़रों में हीनग्रंथि के शिकार ऐसे लोग दूसरों की नज़रों में अपना सम्मान तलाश करते हैं; ऐसी मेरी व्यक्तिगत मान्यता रही है..! खैर...
          अभी उस दिन पत्नी से जब मैं कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहा था तो उन्हें अपने बचपन की एक घटना याद आ गई..उनकी बताई इस घटना को आपसे भी साझा करने का मेरा मन हो गया है...तो लीजिए....
          हाँ तो, श्रीमती जी ने बताया कि वो उस समय आठ-दस साल की रही होंगी..उनकी ‘मावा’ यानी कि उनकी आजी ने उनसे और उनके जैसे बच्चों के सामने एक घटना का वर्णन किया था...असल में उनके घर में एक ‘पंडित जी’ आते थे..उस घर में पंडित जी की ‘पंडिताई’ का जबर्दस्त आभामंडल था...एक तरह से महात्मा का दर्जा प्राप्त थे...और ‘आजी’ उन्हीं पंडित जी का गुणगान बच्चों के सामने कर रही थी..
          पंडित जी एक दिन घर आए हुए थे...लगभग सुबह का समय रहा होगा पंडित जी दुवारे अर्धनिद्रित अवस्था में लेटे हुए थे, उन्हें अपने चारपाई के सिरहाने किसी जानवर की आहट मिली..बस आव देखा न ताव सिरहाने पर ही चारपाई से टिका कर रखी हुई लाठी को उठाया और उस जानवर पर एक जोरदार प्रहार किया..बस वह बेचारा जानवर लाठी की चोट खाकर जमीन पर गिर पड़ा..इसके बाद पंडित जी की आँख खुली और आँख मलते हुए उन्होंने देखा तो उनके होश उड़ गए तथा जोर से बोले, “राम..राम..मैंने तो कुत्ता समझकर इसे मारा था, यह तो बछिया है..हे भगवान् यह मैंने क्या किया..?” फिर पंडित जी घर में से गंगाजल मंगवाकर वहीँ जमीन पर गिरी बछिया के पास ही बैठ गए और गंगाजल के छींटे पर छींटे उस बछिया के शरीर पर मारने लगे तथा साथ में संस्कृत में मंत्रोच्चार भी करते जा रहे थे...कुछ क्षणों के बाद बछिया को होश आ गया था और वह उठकर खड़ी हो गई...
         पत्नी की इतनी बात सुन मैंने पूंछा, “इतने बचपन में सुनी हुई यह साधारण सी घटना तुम्हें अब तक क्यों याद रही..?” पत्नी ने कहा, “बात यह थी कि मावा इसे पंडित जी के महात्म्य से जोड़कर उनका बखान भी किए जा रही थी कि पंडित जी बड़े दयालु और परोपकारी तथा बहुत पहुँचे हुए थे कि बछिया उनसे जीवनदान पाकर जी उठी थी लेकिन उस समय पंडित जी के इस महात्म्य-वर्णन पर मैं मन ही मन सोच रही थी कि पंडित जी जब इतने ही दयालु और महात्मा थे तो उसे कुत्ता ही समझ कर क्यों मारा? किसी भी जीव के प्रति उनके मन में दया क्यों नहीं आई..क्या वह कुत्ता जीव नहीं था और उसके ऊपर भी दया नहीं करनी चाहिए थी? और तत्क्षण मन में उठे इन्हीं विचारों के कारण मावा की यह चर्चा मुझे आजतक नहीं भूली..”
          पत्नी से हुई इस वार्ता के बाद धार्मिक आडम्बरों के प्रति मेरी उक्त धारणा और पुष्ट हुई, यह भी कि चाहे ‘पंडित’ हों या फिर ‘मुल्ला’ हों, ऐसे व्यक्ति संवेदनाओं का सामान्यीकरण नहीं कर पाते...इनकी दृष्टि इनकी ‘पोथी’ तक ही सीमित रहती है तथा इनके स्वरचित ‘आभामंडल’ से धर्मभीरु साधारण जन भ्रमित होता रहता है, एक हद तक इसे हम ‘क्रूरता’ मानते हैं|

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