शुक्रवार, 6 मार्च 2020

आरे में आरा

          टहल-वहल कर आया और झाड़ू-वाड़ू भी लगाया क्योंकि बाहर की खर-पतवार पर क‌ई बार निगाह-सिगाह पड़ चुकी थी। अब चाय-वाय पी लेने के बाद इत्मीनान से बैठ गया हूं। फेसबुक पर कुछ पोस्ट करने के लिए मन कुलबुलाने लगा, जैसे अखाड़े को देख पहलवानी सूझे! तो सोचा आओ इस पर कुछ लिखें-फिखें ही। क्या लिखना है और क्या लिखते जा रहा हूं, बिना यह तय-फय किए और साथ ही लिखने के किसी दांव-पेंच पर भी विचार-फिचार किए बिना लिखना शुरू कर दिया।

          

           हां चाय-फाय पीते समय अखबार जरूर पढ़ रहा था। अखबार के पन्ने-सन्ने पलटते-फलटते संपादक महोदय द्वारा इसमें प्रकाशित 'खेद प्रकाश' पर निगाह पड़ गई, और मजे की बात यह कि खेद प्रकाश भी किस पर ? इस पर कि बीते दिन के अंक में "एक वाक्य के अंश के रूप में 'अच्छाई पर बुराई की जीत' छप गया है, जबकि इसके स्थान पर 'बुराई पर अच्छाई की जीत' होना चाहिए था।" और संपादक महोदय आगे कहते हैं 'इस गलती का हमें खेद है।' तो भ‌इया संपादक महोदय! इसपर खेद-फेद जताने की कोई जरूरत-फरूरत नहीं आपको। यही होता आया है इस देश में, पहले अच्छाई पर बुराई ही जीतती है फिर बुराई पर अच्छाई के जीतने की नौबत आती है! आप ध्यान नहीं दिए, अापके इस अखबार में आज यह जो समाचार छपा है न, कि "आरे में पेड़ों की कटाई पर रोक" इस बात का ठोस प्रमाण है। यानी कि मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने के बाद ही कटाई पर रोक लगी। देखा ! जरूरत के हिसाब से व्यवस्थित तरीके से बुराई को जीतने दिया जाता है, इसके बाद ही अच्छाई का नंबर आता है!! फिर काहे का खेद !!!

        

            संपादक जी आप नहीं समझते अच्छाई और बुराई के इस पटकी-पटका खेल को! हाँ यह खेल ही है क्योंकि यहां दोनों के लिए ताली बजाने वाले लोग हैं। जरा इस पर भी विचारिए, आरे में मतलब भर के पेड़ों पर आरा चल जाने से विकास वाले जरूर खुशी में ताली बजाए होंगे। वैसे तो आप संपादक हैं सब जानते ही होंगे, आपको भी अखबार बेंचना है, इसलिए अच्छाई या बुराई दोनों को जिताने का हुनर आपको पता होगा ही! अब यहीं देखिए, आपके अखबार के पन्ने पलटते समय आपकी प्रस्तुति "आरती संग्रह" वाली पत्रिका अखबार से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ी। मेरी भक्ति भावना को जैसे ठेस लगी और मैंने बिना देर किए झटापट श्रद्धाभाव से जमीन पर पड़ी पत्रिका को उठा लिया और इसके पन्ने पलटने लगा। खैर, इसमें आरती तो इतने बारीक अक्षरों में लिखा था कि आंख गड़ाकर भी पढ़ने में मुश्किल !! लेकिन वहीं उसी पत्रिका में छपे तमाम विज्ञापनों को कोई चाहे तो एक फर्लांग की दूरी से भी पढ़ ले। 

            

            तो समझिए! जैसे भक्ति के कवर पेज के साथ बड़े कौशल से आप दुनियादारी बेच रहे हो न, उसी तरह से अच्छाई के विजय का डंका भी बुराई को चुपचाप अपना काम करते रहने देने के लिए  बजाया जाता है, है न ? सच तो यह है, 'अच्छाई' ने ही बड़ी चालाकी से आरे में काम भर के पेड़ काटने दिए, और बुराई का यह काम हो जाने के बाद जब आई भी तो इस वाहवाही के साथ, कि देखो यह हुई न बुराई पर अच्छाई की जीत!! हां कि अच्छाई की इस जीत पर अब ढोल पीटो और दशहरा मनाओ। लेकिन इस खुशी में यह नहीं समझ में आता कि बुराई हार कर भी कैसे जीत जाती है और अच्छाई जीत कर भी कैसे हार जाती है, कि सीता को अन्तत: वनवास भोगना ही पड़ता है।

        

            तो, मेरे समझ से अच्छाई और बुराई के इस नूराकुश्ती पर इनमें से किसी की भी हार या जीत को कैजुअली-फैजुअली टाइप से ही लेना चाहिए। इनकी जीत या हार पर खेद-फेद या खुशी-फुशी मनाने की जरूरत नहीं। लेकिन बाजार और विकास इन दो जुड़वा भाईयों के बीच हम फंसे पड़े हैं, ये जिस पर चाहें रुलाएं या हंसाएं!! इधर आरे में आरा ऐसे ही चलता रहेगा।

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