मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा

               स्कूल से आते ही विशाल ने अपने बस्ते को ड्राइंगरूम में पटका और कमरे में जा कर गुमसुम बैठ गया... उसकी मम्मी ने कई बार उसे नाश्ता करने के लिए पुकारा लेकिन उसने अनसुनी कर दी... कमरे में अकेले बैठे हुए विशाल को काफी देर हो गया था... तभी उसके कानों में उसके डैडी की आवाज पड़ी,
               "क्यों... विशाल नहीं दिखाई दे रहा है? ....वह कहाँ है...?" डैडी शायद मम्मी से उसी के बारे में पूंछ रहे थे|
               "इस बार परीक्षा में कम नम्बर आए हैं..शायद इसी लिए परेशान हैं..|" मम्मी उसी के बारे में कह रहीं थी|
               'हाँ....बात तो सही है... उसे इस बार की परीक्षा में कम नम्बर मिले हैं...कक्षा का तो वह सबसे तेज़ विद्यार्थी माना जाता था...! अनुराग और विभव जैसे छात्र जो सदैव कम नम्बर पाते रहे हैं वे भी इस बार उससे अधिक नम्बर ले आए...! उसकी कितनी बेइज्जती हुई इस बार...! और तो और उसकी टीचर ने भी तो कहा कि तुमसे ऐसी आशा नहीं थी... अब तक वह यही प्रयास करता आया है कि कक्षा में उसे सबसे अधिक इज्जत मिले...लेकिन परीक्षा में आए उसके अंक उसकी इज्जत को मिट्टी में मिला दिए...|' विशाल यह सब सोच ही रहा था कि उसके डैड के हाथ उसके कंधे पर पड़े...उन्होंने धीरे से उससे पूंछा,
                 "क्या बात है...क्यों परेशान हो..?"
                  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|" विशाल ने कहा|
                 "नम्बर कम आने पर क्यों चिंतित होते हो..? ...हाँ तुमने इस बार अच्छा नहीं किया...इसीलिए नम्बर कम आया...तुमने अच्छा नहीं किया..! तुमको इसपर सोचना चाहिए...!" डैड ने उसे थोडा समझाने के अंदाज में कहा।
                  "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" विशाल के डैड ने उसे समझाया।
                 उपरोक्त बातें हो सकता है बहुत साधारण स्तर की हो जिससे कोई विशेष अर्थ न निकलता हो...लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है| विशाल और उसके डैड के बीच के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि विशाल को परीक्षा में कम अंक आने की की उतनी चिंता नहीं थी जितनी इससे होने वाली अपनी बेइज्जती की...शायद बेइज्जती न हो तो नम्बर कम आने की चिन्ता भी न हो..!
                 कई वर्षों पूर्व किसी लेख में आया शब्द "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" ने ध्यान आकृष्ट किया था, यह शब्द उस लेख में प्रसंगवश आया था, इस शब्द की कोई व्याख्या उस लेख में नहीं था....लेकिन इस शब्द से मैं काफी प्रभावित था...तभी तो पढ़ने के कई वर्षों के बाद भी यह शब्द बार-बार याद आता रहता है....और मै अपने तरीके से इसकी व्याख्या करता रहता हूँ.... उक्त वार्तालाप के क्रम में "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" शब्द मुझे फिर याद आ गया.....इसका शाब्दिक अर्थ मैंने यही निकाला है...प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा अर्थात सूअर के मल के समान होता है..... अर्थात मात्र सम्मान पाने के दृष्टिकोण से किया गया काम सूअर के मल के समान होता है | इस प्रकार 'प्रतिष्ठा' की आकांक्षा से किया गया कार्य अपने आप में व्यर्थ और अपवित्र परिणाममूलक होता है...|  'विकिपीडिया' में इस शब्द की कोई व्याख्या न मिलने पर मैंने अपनी यही व्याख्या उसमें भी डाल दी है...|               ...खैर... जो भी हो विशाल भी कक्षा में सम्मान पाने का आकांक्षी है..वह कक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर इस सम्मान को पाना चाहता है... लेकिन यहाँ एक पेंच है...विशाल का मुख्य उद्देश्य ज्ञानार्जन या पढ़ाई में औव्व्ल आना हो सकता है... लेकिन उसने 'प्रतिष्ठा' को भी अपने इस उद्देश्य के साथ जोड़ लिया है... जो उसके कहे इस वाक्य से प्रमाणित होता है,  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|"  यहीं पर उसके मूल उद्देश्य 'ज्ञानार्जन' के साथ उसकी एक मनोवैज्ञानिक समस्या उत्पन्न हो जाती है... और वह यह कि.. उसकी 'ज्ञानार्जन की आकांक्षा' कक्षा में 'प्रतिष्ठा पाने की आकांक्षा' के समानांतर हो जाती है... इस प्रकार कक्षा में विशाल की आकांक्षा के ये दोनों तत्व एक दूसरे की सीमा निर्धारित करने लगते हैं....अर्थात..प्रतिष्ठा से संतुष्ट होने की सीमा को ही वह ज्ञानार्जन की सीमा मान सकता है... जो विद्यार्थी होने के मूल उद्देश्य से उसे भटका सकती है... क्योंकि वह उतना ही पढ़ेगा जितने से उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे....! अर्थात उसने पढ़ाई या ज्ञानार्जन हेतु अपनी एक सीमा निर्धारित कर लिया... शायद यहीं पर प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा बन जाती है...! ...प्रतिष्ठा की इसी 'विष्ठा' को समझते हुए विशाल के डैड ने उससे कहा था, "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" और यहाँ पर एक उल्लेखनीय बात और हो सकती है, प्रतिष्ठा की आकांक्षा उसकी ज्ञानार्जन की आकांक्षा पर भारी होने से वह परीक्षा में अधिक अंक पाने के लिए नकल की भी सहायता ले सकता है...! और अंत में ज्ञानार्जन के अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है...!
            विद्यार्थी और उसके डैड के बीच के उपरोक्त वार्तालाप से हम  "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" के अर्थ को समझने का प्रयास कर सकते हैं.... लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि समाज में प्रतिष्ठा पाने की हमारी लालसा ने हमें अपने पथ से भटका कर ऐसे कार्य करने पर हमें विवश कर देती है जिससे तमाम सामाजिक विद्रूपताओं के जन्म के साथ ही हम अपने मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं..!
              वास्तव में 'प्रतिष्ठा' जैसे किसी तत्व का कोई अस्तित्व नहीं.. और अगर अस्तित्व है भी तो हमारे कर्मों का...! प्रतिष्ठा को केन्द्र्विंदु मानकर किया गया किसी भी कार्य का परिणाम अंततः दुखदायी हो सकता है... हम दैनिक जीवन की घटनाओं से इसे प्रमाणित कर सकते हैं... 






















                 

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