मेरे एक
मित्र हैं कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं....मैं उन्हें कभी-कभी पत्रकार मानने की भूल भी
कर बैठता हूँ, आज मिलने पर मुझे उनके मुखमंडल पर कुछ-कुछ प्रसन्नता जैसी तिरती हुई
महसूस हुई...जो उन्हें शायद स्वयं की लेखनी के प्रति था, मैंने जब इसका कारण पूँछा
तो उनका उत्तर इस प्रकार था,
“देखो यार
तुम तो जानते ही हो मैं अन्दर से तथाकथित दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थक हूँ और वह
भी अपनी कुछ निजी मान्यताओं के कारण...! लेकिन मेरे लिखे को पढ़कर लोग मुझे वामपंथी
विचारधारा से मिलते-जुलते विचारों को मानने वाला घोषित किए दे रहे हैं, लेकिन मुझे
प्रसन्नता इस बात की है कि लोगों के ऐसा कहने पर यह तो सिद्ध हो ही रहा है कि
चीजों के विश्लेषण के क्रम में मैं अपने निजी विचारों को परे रखकर निष्पक्ष रहा
हूँ..!” फिर उन्होंने यह कहते ही तत्काल आगे और जोड़ा, “और मेरी तरह बेचारे अन्य भी
होंगे जो हो सकता है वामपंथी हो, लेकिन लोग उन्हें दक्षिणपंथी मान रहे हों..हाँ
नाहक ही हम गाली भी खाते होंगे...लेकिन...फिर भी मजा आता है..!”
मित्र का यह
लम्बा उद्बोधन सुन मेरे मुँह से अचानक निकला, “तो...तुम असली पत्रकार हो..! और...अपने
विचारों के प्रचारक नहीं हो...सच भी है यार...! पत्रकार का धर्म प्रचारक का नहीं
होता। "
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