मैं मित्र महोदय
से अन्ना के आन्दोलनों का बखान किए जा रहा था कि वह किस तरह सरकार को अपने फैंसले
बदलने के लिए बाध्य कर देते है...लेकिन मित्र महोदय मेरी बातों पर कान ही नहीं दे
रहे थे..धीरे से वे अपना हाथ तकिए के नीचे ले गए और जैसे छिपा कर रखे गए किसी चीज
को मेरे सामने निकाल रहे हों...! हाँ उनके हाथ में एक पत्र जैसा मुड़ा कागज था..!
उसे निर्विकार भाव से मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, “ज़रा इसे पढो..” मैंने उत्सुकतावश
इसे पढ़ना शुरू किया....यह ‘अन्ना के नाम पाती’ थी...
“आदरणीय अन्ना जी प्रणाम,
अभी-अभी हाल ही में केंद्र सरकार
द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी कानून के विरोध में दिल्ली में आप
(पार्टी नहीं) ने धरना दिया था| उस धरने में लाल झंडा थामें इस कानून का विरोध
करती महिलाओं के चेहरों पर क्या आपने गौर किया था..? ध्यान से आप देखते तो निश्चित
रूप से वे भूमिहीन महिलायें ही रही होंगी..! यदि आप ने इसे नहीं देखा तो एक बार
इनसे पूँछ ही लेते कि कितनी भूमि की मालिकान वे या उनके परिवार वाले है...? लेकिन
आप ने इसे भी जरुरी नहीं समझा...! और उनका भी इस्तेमाल झंडा ढोने वाले के रूप में
किया गया...आप मंच पर हुंकार भरने का तमाशा करते रहे..!!
अन्ना जी..! देश के किसी भी सुदूर
ग्रामीणांचल की गरीब बस्तियों में चले जाइए तो पायेंगे इन बेचारों के पास पैखाने
के लिए अपनी जमीन भी नहीं है..और इसके लिए ये मैदान भी तलाशना चाहें तो जमींदार
लट्ठ लिए खड़े मिलेंगे...! शायद इसी कारण इन बस्तियों की ओर जानेवाले मार्ग मल से
पटे मिलेंगे..खैर...कहने का आशय यहाँ यह है कि आज भी इस कल्याणकारी राज्य और आपके
होते यह गरीब समाज भूमिधरी होने के सुख से वंचित है..और..ये ‘मरजाद’ विहीन लोग
खुले में शौच जाने के लिए भी अभिशप्त है..!! हाँ जमींदारी उन्मूलन कानून, विनोबा
जी का भूदान आन्दोलन तथा इतने भूमि सुधारों सम्बन्धी कानून होने के बाद भी देश की
बहुत बड़ी गरीब आबादी भूमि के एक टुकड़े के लिए तरस रही है और भूमि का मालिकान देश
के कुछ प्रतिशत मुट्ठी भर लोगों के ही हाथ में आज भी है...! निश्चित रूप से
प्रस्तावित भू-अधिग्रहण कानून का कोई प्रभाव इन पर पड़ने वाला नहीं था...
हाँ अन्ना जी..! ऐसे में मुझे आश्चर्य
होता है की जंतर-मंतर पर आप पता नहीं किसके लिए बैठते हैं...क्या एक बार भी आप ने
इन वंचितों को भी कोई भू-अधिकार दिलाने के लिए आन्दोलन खड़ा किया..? मुझे तो अब
आपका जंतर-मंतर पर बैठना बनावटी और दिखावटी ही अधिक लगता है...बल्कि जैसे यह किसी
अन्य स्वार्थ सिद्धि हेतु प्रायोजित और लोगों को धोखा देने वाला हो...जैसे इस
उदाहरण में देखा जा सकता है....
“किसी विकास सम्बन्धी कार्यालय में
सैकड़ों लोगों के नाम की सूची देते हुए कोई कहे कि इन लोगों को रोजगार से अभी तक
वंचित रखा गया है और योजना होते हुए भी इन्हें कोई रोजगार नहीं दिया गया है...इस
समूह के नेता के तौर पर ‘कोई’ कुछ गरीब मजदूर जैसे दिखने वालों के साथ धरने पर बैठ
जाए...और..जब इस सूची की जांच की जाए तो पता चले कि सूची में सम्मिलित लोगों ने न कभी
काम माँगा और न ही उन्होंने ऐसे किसी सूची पर हस्ताक्षर ही किये...और तो और...जब
धरने में शामिल लोगों से उनकी समस्या पर बात की जाए तो रोजगार की बजाय वे आवास,
राशन-कार्ड, पेंशन आदि का रोना रोने लगें..! अब इस आंदोलनरत धरने का नेतृत्व-कर्ता
एक बरगलाए समूह का नेतृत्व करते हुए दिखा जिसके पीछे का उद्देश्य कुछ लोगों को
ब्लैकमेल करना था और इसके पीछे क्षेत्र में अपनी नेतागीरी की धाक ज़माना भी था...”
अन्ना जी देखा आप ने..! उक्त उदाहरण
में नेतृत्व-कर्ता लोगों की वास्तविक समस्याओं के प्रति आन्दोलन-रत नहीं था बल्कि
इसके पीछे उसके निहित उद्देश्य थे जो कम से कम उन गरीबों के वास्तविक हितों को
साधता दिखाई नहीं दे रहा है...कम से कम आप से ऐसी आशा नहीं की जाती..!
अन्ना जी...चीजों पर सार्थक बहस होनी
चाहिए...हो सकता है भूमि अधिग्रहण कानून में कोई कमियाँ हो...लेकिन देश भी अब
गुलाम नहीं है...जो नहीं समझेगा जनता तो उसे स्वयं अपने मताधिकार से पांच साल बाद
कुर्सी से उतार देगी...कानून तो बनते-बिगड़ते रहेंगे...लेकिन किस परिस्थिति में एक
दूसरी आजादी के आन्दोलन की बात आप कर रहे हैं...? अभी तो आप असली आजादी ही नहीं ला
पाए हैं...इन व्यर्थ के आन्दोलनों से कुछ होने वाला नहीं है...!!
अन्ना जी एक बात और है..आज शहरों का
विकास हो रहा है नए-नए आवासीय क्षेत्र विकसित हो रहे हैं, किसानी के लिए सबसे अधिक
उपजाऊ भूमि शहरी आवासीय क्षेत्र में बदलते जा रहे हैं...और..सुदूर ग्रामीणांचल का
गरीब भूमिहीन मजदूर इन्हीं नव विकासमान क्षेत्रों में आ-आ कर मजदूरी कर अपनी
‘मरजाद’ बचाने में कामयाब हो पा रहा है...लेकिन फिर भी भूमि के लिए मर-कटने वाले
किसान किस लालच में अपनी जमीनों को बेंच अपनी ‘मरजाद’ खो रहे हैं..? वास्तव में यह
अर्थ-जगत बहुत ही रहस्यमय है...यहाँ ‘मरजाद’ और ‘भूँख’ बाजार में नीलाम होते
हैं...और इस नीलामी में कोई न कोई नेता भी बनता रहता है..! प्लीज अन्ना जी..अगर
किसी को बचाना है तो सभी को ऐसी नीलामी और इस तरह के नेता से बचाइए..!!
अन्ना जी...एक बात और है, हो सकता है...आपको
यह बात कड़वी लगे...चेहरे-मोहरे, ओढ़ने-पहनावे, टोपी आदि से आप तो शुद्ध रूप से
पारंपरिक, सादगी से परिपूर्ण और सांस्कृतिक लगते हैं और इसी कारण आप में भारतीयों
के लिए किसी आन्दोलन को खड़ा कर देने की क्षमता भी दिखाई देती है...लेकिन कभी आप ने
यह गौर किया है कि यह सुरुचिपूर्ण सांस्कृतिकता, पारम्परिकता किसी देश के विकास
में कितना योगदान दे सकती है..?
हम अपने देश के प्रति इस बात पर गर्व
करते हैं कि हम एक प्राचीन इतिहास वाले सांस्कृतिक रूप से संपन्न देश के लोग हैं...हाँ
इसी प्रकार इंग्लैंड, यूरोप के लोग भी अपने ऊपर गर्व कर सकते है.. और...एक देश
बेचारा अमेरिका है..! जिसके पास सत्रहवीं सदी के पूर्व का कोई गर्व करने वाला
इतिहास या परम्पराएं नहीं है जिस पर वहाँ के लोग गौरवान्वित हों..! लेकिन वह
सांस्कृतिक और परम्पराविहीन देश अमेरिका..! आज दुनिया का सिरमौर देश है और वहाँ के
राष्ट्रपति का स्वागत हम पलक-पांवड़े विछा कर करते हैं...! जबकि पूर्वज-विहीन एक
साधारण से व्यक्ति को वहाँ का जनमानस राष्ट्रपति बना देता है...क्यों..? क्योंकि
वे अमेरिकी अपने सांस्कृतिक या ऐतिहासिक जीवन से सीखने की बजाय जीवन की व्यावहारिक
और वास्तविक आवश्यकताओं को अपनी प्रगति के लिए अधिक उपयोगी मानते हैं..और इसी को
विकास का आधार बनाते हैं|
हमारे यहाँ हालात क्या हैं..? एक चायवाला
केवल विकास की बात कर भारत का प्रधानमन्त्री नहीं बन सकता...बल्कि किसी की टोपी
पहनने से मना करने के साथ ही प्रच्छन्नं रूप से उसे तथाकथित नॉन-सेक्युलर होने या
फिर साम्प्रदायिक होने का आरोप भी धारण करना पड़ेगा...| कारण..? स्वतंत्रता के बाद
के हमारे ज्यादातर आन्दोलन वास्तविकताओं की अनदेखी करते हुए तथा स्वतंत्र होने के
अहसास के बगैर खड़े किये जाते रहे हैं...जो कुछ दूर जा कर अपनी बेमौत मर जाते
हैं..और..यहाँ का जनमानस इन आन्दोलनों से ठगा हुआ अगली चुनाव प्रक्रिया को
क्रान्ति के रूप में इस्तेमाल करता है...! बात यहीं पर बिगड़ती है...कुछ लोग भले ही
अपनी ‘मरजाद’ बनाए रखें...लेकिन यदि आप जैसे लोग चीजों पर सार्थक बहस न कर इस तरह
के आन्दोलनों से लोगों को गुमराह करते रहेंगे तो चुनाव दर चुनाव देश का समय व्यर्थ
होता रहेगा...! और..एक क्रांति लोगों के लिए तरसती रहेगी..! क्योंकि..लोगों को कौन
अपनी-अपनी ‘मरजाद’ की खोलों से बाहर निकालेगा..?
अंत में आदरणीय अन्ना जी एक बात और कहना
चाहता हूँ...कुछ लोग कह सकते हैं गरीबी तो मानसिकता में होती है या डार्विन के
विकासवाद के ‘उत्तरतम के जीवितता’ के सिद्धांत का उल्लेख कर उनकी यही नियति मान लेते
हैं| लेकिन आधुनिक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा एवं आप जैसे लोगों के होते ये तर्क
आज बेमानी हैं...बस आवश्यकता है आप जैसे लोग किसी के हाथ का खिलौना न बने..! हम
आपका बहुत सम्मान करते हैं..!!
आपका ही एक शुभचिंतक”
इसे पढ़ मैंने एक गहरी स्वांस भरी...
“हूँ....तो आप इसे छिपा कर क्यों रखे हैं..डरिए नहीं बगैर आपके नाम के मैं इसे
अपने फेसबुक में पोस्ट करूँगा शायद अन्ना जी के पास यह पहुँच जाए और वे या अन्य
लोग आपके विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा नहीं करेंगे....” मैंने थोड़ा विनोदपूर्ण अंदाज
में कहा...|
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