शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

सत्य और धर्म...!

         हम सब के मन में आज-कल एक प्रश्न घुमड़ पड़ता है कि आखिर आज के सन्दर्भों में सत्य और धर्म किसे माने...? कारण...! आज की तमाम दुनियावी आकांक्षाओं, प्रतिस्पर्धाओं में इन दो शब्दों का मानक बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है....
         लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि क्या सत्य है; क्या धर्म है; इस विषय पर कन्फ्यूज हो सकते हैं...?
         इस विषय पर मेरा एक चिंतन है कि वास्तव में सत्य और धर्म आपके लिए कब महत्वपूर्ण होता है या फिर आपके जीवन के ये दो वैचारिक तत्व कब प्रकट होना चाहते है...या इनकी आवश्यकता आपको कब पड़ती है..? शायद उन्हीं क्षणों में इसका अर्थ पाया जा सकता है...युद्ध के क्षणों में विचलित अर्जुन को श्रीकृष्ण ने गीता के ज्ञान से इसका अर्थ समझाया था...! ठीक उसी प्रकार जीवन के द्वंद्वात्मक क्षणों में सत्य और धर्म अपने आप स्पष्ट होने लगता है...जीन पॉल सार्त्र के आस्तित्ववाद के दर्शन से भी इस तथ्य को समझा जा सकता है...जब कोई व्यक्ति अपने को फेंका हुआ पाता है तो वह अपना अस्तित्व निर्मित करने लगता है...अन्य शब्दों में कहें तो उसके लिए उसका सत्य और धर्म निर्मित होने लगता है....!  
        एक अन्य तथ्य पर भी विचार कर सकते हैं..कल्पना करिए कि इस धरती पर आप एकदम अकेले हैं...उस परिस्थिति में आप के लिए सत्य और धर्म क्या होगा? ऐसी स्थिति में यह भी हो सकता है कि इस अकेलेपन में 'सत्य' और 'धर्म' की कोई आवश्यकता ही न पड़े। इस परिस्थिति में पड़ा व्यक्ति केवल जीना चाहेगा, और तब इसमें सहायक बातें ही उस व्यक्ति के लिए सत्य या धर्म होगा। लेकिन समूह या समाज के बीच व्यक्ति के इस जीने के उद्देश्य में भी परिवर्तन होता है और इसके बरक्स 'सत्य' और 'धर्म' का निर्धारण होने लगता है।..क्योंकि तब व्यक्ति और समाज दोनों का उद्देश्य अपने अस्तित्व को उच्चतम स्तर तक ले जाना होता है।
        इस क्रम में यह स्पष्ट है कि वास्तव में सत्य और धर्म कोई स्वतंत्र या स्थिर तत्व नहीं हैं; इसे व्यक्तिश: या सामूहिक जीवन जीने के परिपेक्ष्य में उसके उद्देश्यों के अनुसार ही परिभाषित किया जा सकता है। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि प्रकृति के साथ व्यक्ति और समाज या तीनों के आपसी अन्तरक्रिया भी इसमें एक परिवर्तनकारी तत्व माना जा सकता है। अतः: सत्य और धर्म को निस्संग या निरपेक्ष तत्व के रूप में ग्रहण करना इसके प्रति एकांगी दृष्टिकोण होगा, जबकि इसका पैमाना व्यक्ति, समाज और प्रकृति के सापेक्ष ही तय हो सकता है। 
        
         मैं मानता हूं कि सत्य या धर्म की खोज करना एक तरह से मेनीप्यूलेशन है, क्योंकि यह खोज का विषय नहीं ! और न ही एक व्यक्ति का सत्य सबका सत्य बन सकता है। इस प्रकार सत्य कोई गणितीय सूत्र भी नहीं है। सत्य एक फेनामिना है अर्थात जो हमें दिखाई पड़े और समझ में आए वही हमारा सत्य है। जिस प्रकार हम कानून की किताबों को पढ़े बिना ही अपने आचरण को तय करते हैं कि हमारा यह कृत्य कानून का उल्लंघन करेगा या नहीं...उसी प्रकार हमारे लिए सत्य और धर्म भी है...यह स्वतः और सहज रूप में तय होता रहता है...और यह किसी व्यक्ति या समाज के लिए आपके द्वारा किये गए आचरण से स्वतः प्रकट हो जाता है...कानून और धर्म की किताबें तो केवल व्यकित या समाज के प्रति किए गए आपके गलत आचरण के दण्ड प्रक्रिया के लिए है..आप इसे पढ़ कर अपना आचरण तय नहीं कर सकते है...हाँ ये पुस्तक केवल धर्मगुरु या वकीलों के लिए अपने-अपने धंधे चमकाने के लिए उपयोगी हो सकते हैं..कहने का आशय मात्र यह है जब आप अपने व्यक्तिगत हित..आशा..आकांक्षाओं को ही लेकर चलते हैं तभी इन पुस्तकों की जरुरत पड़ती है...!!
       अंत में इतना कह सकते हैं कि आप अपने सत्य और धर्म को नकारात्मक उर्जा से मत निर्मित करें..आपका सत्य दूसरों का भी स्वतः सत्य बन जाए..आपका धर्म दूसरों का भी स्वधर्म बन जाए ऐसा ही सत्य और धर्म हो सकता है...!
 बहुत वर्षों पहले जब मैं अपने को इस जीवन में अपने को फेंका हुआ पाया था...तो इस जीवन के लिए अपनी भूमिका को तय करने की जद्दोजहद में उलझ गया था... “क्या कहूँ..?” का एक अंश...

मैं, मौन अपने में उदास,
देख रहा-
अंतर्तम का गह्वर,
आत्माभिव्यक्ति का पड़ा बीज,
खो रहा सत, निःशेष आवरण,
अनुर्वर भूमि, छीजता बीज,
संतुष्टि नहीं, अन्यत्र देख,
संभाव्य ईश्वरता का बीजांकुर
माल्यार्पण की नहीं अभिलाषा
ईश्वर बनने की आतुरता
पर, विस्मृति, यह कि
मानव हूँ, विवेक
बुद्धि का स्वामी हूँ
रहा न कोई
अब भाव सहज
अपना अपना सा
गढ़ रहा सत्य |

                                ----------------- विनय  

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