रविवार, 25 सितंबर 2016

प्रकृति की आवाजें

            आज पाँच बजकर तैंतीस मिनट पर नींद खुली..वैसे एक बार रात ढाई बजे नींद खुली थी लेकिन फिर जो सोए तो घोड़ा बेंच कर ही सोए..एलारम-फेलारम की आवाज भी नहीं सुनी...हाँ, जब उठे तो सोचा देर हो गई है...का टहलने जाएँ..और थोड़ा फिर अलसियाने से लगे थे..लेकिन यह सोचते हुए कि अगर कभी ऐसे ही देर में उठे तो देर का बहाना बनाकर यह मन, आसानी से सबेरे-सबेरे के टहलने से वंचित करा देगा..फिर तो यह रोज का काम है...और मैं मन को परे झटकते हुए, फटाफट स्टेडियम की ओर निकल लिए..
              रास्ते में देखा, एक गाय महोदया अपनी नुकीली सींगों का निशाना मेरी ओर लिए सामने से चली आ रही थी...नुकीली सींगों को देख एकबार तो थोड़ा सहमा, फिर अगले ही पल कुछ सोचते हुए ठीक गऊ माता के बगल से विचारते निकल गए कि सड़क पर रहने वाली यह गाय झौंकारेगी नहीं.. इसका भी तो रोज यहीं सड़क पर घूमने का कार्यक्रम रहता है...शायद इसीलिए, ठीक बगल से निकलते समय उसने मेरी ओर निहारा तक नहीं। अब आगे बढ़े तो, एक कुत्ते महाशय पूँछ बरेरे बीच सड़क पर, मेरी ओर ही देखते खड़े दिखाई दिए, सूरत-शकल उनकी ठीक दिख रही थी..झपट्टेमार जैसे नहीं थे...जब उनके पास पहुँचा तो ये कुत्ते महाशय भी एक सज्जन व्यक्ति की तरह मुझे रास्ता देकर वहीं बगल में फिर से खड़े हो गए थे...उनकी इस "मनईगीरी" पर मैं मुस्कुरा उठा। 
            स्टेडियम में, ग्रुप वालों से आज भेंट हो गई, उनकी संख्या में एक की कमी थी..वे अापस में बतियाते हुए अपना टहल-कार्यक्रम पूरा कर रहे थे। उनमें से किसी एक को, कहते हुए मैंने सुना, "मुम्बई से उनके कलाकारों को निकल जाने के लिए कह रहे हैं..आखिर अपने देश के आतंक का वे विरोध भी तो नहीं करते..तो, फिर यही होगा" मने पाकिस्तानी कलाकारों को निकालना उचित है। मैंने इसे सुना भर, इस पर अपनी राय के बारे में सोचा भी नहीं। खैर... 
             लौटकर आवास पर आया, तो, बस यूँ ही कुछ देर तक शान्त बैठा रहा...कानों में तरह-तरह की आवाजें गूँज रही थी..कभी किसी मोटर की आवाज, तो कभी मनई की आवाज, कभी पंखे की आवाज तो कभी चिड़ियों की आवाज...मतलब, नानाप्रकार की आवाजें! इन आवाजों में, मैं प्रकृति की आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा था.. वैसे, मनई की आवाज भी प्रकृति की आवाज के ही श्रेणी में आएगी, लेकिन न जाने क्यों, यह आवाज मुझे बनावटी लगती है। इस आवाज को परे झटक, फिर से, चिड़ियों और हवा की सरसराहट जैसी ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने लगा था...इन आवाजों की गहराई में जाने पर कुछ बहुत बारीक सी मंद-मंद चीं-चीं जैसी ध्वनि सुनाई दी। इसपर ध्यान दिया तो, यह आवाज हमारे बाथरूम से आती हुई प्रतीत हुई। असल में, बाथरूम के गीजर के नीचे उलझे तारों के बीच गौरयों ने एक स्थाई सा घोंसला बना रखा है..एक बार, ऐसे ही तिनकों के भार से यह घोंसला एक ओर झुक गया था और गौरैया के अंडे से निकला एक नवजात बच्चा वहीं नीचे फर्श पर गिर पड़ा था। संयोगवश, मेरी निगाह उस पर पड़ गई थी, तब उस नवजात जीवित बच्चे को मैंने पुनः उस घोंसले में रख दिया और घोंसले के नीचे एक डंडी रख घोंसले को सीधा कर दिया था, जिससे गौरयों के अंडे या बच्चे इससे सरककर नीचे न गिरें। गौरैया का वह बच्चा बड़ा होकर उड़ गया था। बाद में, गौरयों ने मिलकर उस घोंसले को अपने बैठने लायक और बढ़िया बना लिया। 
      
            इस घटना के कई माह हो चुके हैं। तब से कई बार गौरयों के जोड़े यहाँ आकर अंडे दिए और अपने बच्चों को उड़ने लायक बनाए। इधर, मैंने ध्यान दिया...अभी एक माह भी नहीं हुआ होगा जब इस घोंसले से गौरया के बच्चों के चीं-चीं की आवाजों से जी हलकान हुए और उन गौरयों के बच्चों को उड़े हुए...लेकिन फिर से, गौरयों के एक दूसरे जोड़े के बच्चों की चीं-चीं की आवाजें सुनाई पड़ने लगी है। 
            हाँ, आज इन विभिन्न आवाजों के बीच मद्धिम-मद्धिम सी बेहद पतली सी यह आवाज उसी दूसरे गौरयों के जोड़े के बच्चों की है। वाकई!  इस एक घोंसले को लेकर गौरयों के जोड़ों के बीच की आपसी समझ से मैं आश्चर्य चकित सा था..आश्चर्यजनक रूप से जैसे ही एक जोड़ा अपने अंडों को से कर यहाँ से बच्चों को उड़ा इस घोसले को खाली करता है तो, दूसरा जोड़ा आकर इसी घोंसले में अपने अंडे देकर उन्हें सेने लगता है। सच में, मेरे लिए यह एक अद्भुत अनुभव! मैं इन चीं-चीं की आवाजों से अभिभूत था। खैर.. 
             मेरे एक मित्र हैं, एक दिन वो मुझसे इसलिए नाराज हो उठे कि मैं उनसे, उनके बन रहे घर के हालचाल नहीं पूँछे थे कि, अब तक उनका घर कितना, और कैसा बन चुका है। उनकी इस नाराजगी पर मैंने सोचा, वाकई! मैंने गलती की है, किसी की खुशियों के बारे में भी हमें जिज्ञासा होनी चाहिए। क्योंकि, कभी-कभी एक प्रसन्न व्यक्ति अपनी प्रसन्नता को दूसरों को सुनाने के लिए बेचैन हो उठता है। वैसे, घर एक ही होता है, जो एक बार ही बनता है, फिर तो इसके बाद सम्पत्ति खड़ी करना माना जा सकता है, और किसी की सम्पत्तियों के बारे मे ज्यादा पूँछ-ताछ करना मैं उचित नहीं मानता। आज बहुत सारे लोग मकान दर मकान खड़े करते जा रहे हैं, लेकिन शायद ही कोई घर बनाता हो! आज ज्यादातर मकान, जमीन, पानी, हवा को कब्जियाए सांय-सांय करते सूने से, केवल किसी की सम्पत्ति के रूप खड़े दिखाई देते हैं, जो किसी काम के नहीं। घर शानो-शौकत नहीं, सम्पत्ति नहीं, बल्कि घर वह जहाँ बच्चों को पाला-पोषा जाता हो। घर एक घोंसला ही होता है। हाँ.. घोंसलों पर ध्यान देना चाहिए, घोंसलों के हालचाल लेते रहना चाहिए, इसकी चिन्ता भी करनी चाहिए, इसे सँवारा जाना चाहिए। खैर...फिर अखबार पढ़ा था..
       
              "जागरण" में एक अन्दर की छोटी सी हेडिंग पर ध्यान अटका, "सांस्कृतिक मुद्दों व भगवाकरण ने रोकी बड़े सुधारों की राह" में "भारत को खुली और अनाश्रित समाज बनने की जरूरत है जिसका ध्यान मूलरूप से आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित हो।" जैसी बात से प्रभावित हुआ। सच में! हमारा समाज अनाश्रित तभी होगा जब चीजों का केंन्द्रीकरण नहीं होगा और उपभोग की लालसा कम होगी। जैसे, उन गौरयों के तमाम जोड़ों को मैंने एक ही घोंसले से काम चलाते देखा। 
           यही #दिनचर्या थी कल की। 
          चलते-चलते, 
          ध्यान और कुछ नहीं, बस प्रकृति की आवाजों को सुनना ही ध्यान है, ये आवाजें आपको भटकाएँगी नहीं... 
        --Vinay 
          #दिनचर्या 18/24.9.16

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