रविवार, 25 सितंबर 2016

"विधा" और "बात"

           मित्रों! आज तो मैं स्टेडियम गया ही नहीं...अलसियाये से रहे, बस यहीं आवासीय कैम्पस में ही टहलने का कोटा पूरा किया। चाय पिया और मोबाइल चलाकर फेसबुक पर कुछ लाईक-फाईक सा करने लगा था। वैसे मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस "लाईक" करने या न करने के पीछे एक तरह का मनोविज्ञान काम करता है जैसे, किसी बात के कहने के पीछे। खैर, "फाईक" का आप गलत मतलब मत निकालें कि जिसे लाईक नहीं किया वह फाईक हो गया हो। मित्रों! यहाँ बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

             मान लीजिए कोई आप से कहे कि फला विधा में आप बहुत अच्छा लिख लेते हैं, तो इसका क्या मतलब है? समझिए! मेरे हिसाब से इस कहने का आशय मैंने यही लिया कि यह "विधा" ही आपके लिखे को साहित्यिक या असाहित्यिक का दर्जा दिलाएगी, लिखने के पीछे की "बात" नहीं। अब प्रश्न है कि हम लिखने की "विधा" या लिखने के पीछे की "बात" इनमें से किसी एक को महत्वपूर्ण मानें या फिर दोनों को? वैसे तो साहित्य में "कलागत विशेषताओं" की ही खूब चर्चा की जाती है और कभी-कभी "बात" पीछे छूट जाती है। अब यह उसी तरह से है जैसे वह चिरकुट कल्लनवा भी तो बात-बात में कहता है, "चोरी न करो" "झूठ मत बोलो" लेकिन क्या कोई उसकी बातों पर कान धरता है? लेकिन, जब यही बातें "आशाराम" माला पहने हुए किसी भव्य सिंहासन पर बैठकर कहेंगे तो लाखों उनके भगत बन उन्हें भगवान मान उन्हें मालामाल भी कर देंगे। हमको लगता है "विधा" और "बात" में भी यही सम्बन्ध है। मतलब बात महत्वपूर्ण नहीं विधा ही महत्वपूर्ण होती है। तभी बात भी सुनी जाती है। अब फिर प्रश्न है! किसी को विधा जेल में पहुँचाती है कि बात? यह बेहद गूढ़ प्रश्न है! मैं मानता हूँ, वह कल्लनवा बेचारा जेल नहीं जाएगा क्योंकि वह "विधा" के चक्कर को नहीं जानता! लेकिन जब कोई "बात" "विधा" की गुलामी करने लगती है तो फिर "आशाराम" को जेल जाना ही पड़ता है। यहाँ "बात" स्वतंत्र होती है लेकिन "विधा" नहीं। विधा सिंहासन होती है जो बात का अन्दाज बदल देती है, परतंत्र हो जाती है। मेरा निष्कर्ष है कि जब कोई कहे कि आप फला "विधा" में माहिर हैं तो आपकी "बात" कैदखाने की ओर पांँव बढ़ा रही है। सावधान हो जाइए! किसी विधा में बैठकर अपनी बात मत कहिए...बस! कहते जाइए...इसी में बात कहने की स्वतंत्रता है। 
              आज "हिन्दुस्तान" का सम्पादकीय पृष्ठ मेरे लिए काफी रुचिकर रहा। "अपने समय का सूर्य हूं मैं" आलेख "राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मतिथि पर उनकी काव्य चेतना का जायजा" ले रहा था। "दिनकर इस बात से खिन्न दिखते थे कि मार्क्सवादियों को लेखन की स्वतंत्रता नहीं थी, उन्हें पार्टी लाइन पर ही लिखना पड़ता था" और "दिनकर का मानना है कि अकसर राष्ट्रीयता का जन्म घृणा से होता है।" जैसी लेख की बातें प्रभावित करती हुई दिखी। इसीप्रकार "ये मेरा नया वाला मुगालता" वाकई, तरह-तरह के मुगालते पालने के लिए प्रेरित करता दिखाई दिया। "डर की मौत" जैसा आलेख "डर डरने से होता है" की याद दिला रहा था, और "युद्धोन्माद के खिलाफ" हम भी हैं।
           मित्रों, आज की ये बातें मेरी दिमागी #दिनचर्या के अंग रहे। हाँ..जो मैंने कहा है उसके आधे हिस्से को मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैंने आखिर, कहा क्या है! 
          चलते-चलते -
         निर्द्वन्द्व रहिए, निर्द्वन्द्व सोचिए..निर्द्वन्द्वता से कहिए....
         --Vinay 
         #दिनचर्या 17/23.9.16

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