शनिवार, 17 सितंबर 2016

किताबें और नीली बत्ती

                कल मुझे लगता था कि आज की #दिनचर्या नहीं लिख पाएँगे!  कल ऐसा इसलिए कहा था कि केवल लिखने के लिए हम नहीं लिखेंगे और जब लिखने का मन तथा लिखने की परिस्थिति मिलेगी तभी लिखेंगे। हाँ, आज लिखने का मन भी हुआ और लिखने की परिस्थिति भी मिल गई। आज लखनऊ से महोबा ड्राइविंग करते हुए साथ में घर लिए हुए आया। साथ में, उनकी खुशी देख लिखने की हिम्मत आ गई और परिस्थिति भी मिल गई। सो, सोचा अब ऐसी परिस्थितियों में #दिनचर्या लिखने में क्या हर्ज! वैसे भी आज टोंका-टाकी नहीं होगी। 
                कल जब रावत साहब से मैं बात कर रहा था उसी समय बैंक से रिटायर्ड हुए एक हमारे पड़ोसी भी आ गए थे। बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूँछ लिया आप अपनी गाड़ी में नीली बत्ती लगाते हो?  मैंने उन्हें बताया कि मेरा ड्राइवर मेरी सरकारी गाड़ी में नीली बत्ती लगाए रहता है। साथ ही मैंने यह भी कहा कुछ आवश्यक और संवेदनशील सेवाओं के लिए ही यह बत्ती अनुमन्य होती है। लेकिन, मैंने उन्हें यह नहीं बताया कि उस दिन लखनऊ आते समय मैं अपने निजी वाहन में नीली बत्ती लगा कर आया था। असल में महोबा से चलते समय मेरे सरकारी ड्राइवर ने एक पुरानी नीली बत्ती यह कहते हुए मेरे निजी कार पर लगा दिया कि रास्ते में कोई परेशानी नहीं होगी। खैर, उसकी बात सच साबित हुई थी। हाँ, निजी कार पर बत्ती लगाते समय मेरी नैतिक चेतना थोड़ी जागृत अवश्य हुई लेकिन इस चेतना को मैंने परे ढकेल दिया था। 
     
               आज भी महोबा लौटते समय इस नीली-बत्ती ने अपना पूरा दायित्व निभाया। महोबा क्षेत्र में हाल ही में जम कर हुई वर्षा से मैदान हरे-भरे दिखाई दे रहे हैं कास भी फूले हुए हैं,  दूर समूह में फूले हुए कास विशाल जलराशि का आभास देते दिखाई दे रहे थे। इन्हें देखकर श्रीमती जी ने एक कहावत सुनाते हुए मुझे बताया कि यह कहावत उन्होंने अपने दादी के मुँह से सुना था --
        
                               "बोलई गोह फूटई वन कासा, अब नाहीं बरखा की आशा।"
            जैसे मैं अपने दादाजी से बहुत प्रभावित रहा हूँ, वैसे ही श्रीमती जी अपनी दादी की बात करती हैं। खैर, मुझे यही पता था कि जब "कास बन फूले" मतलब यह शरद ॠतु के आगमन का संकेत है। 
            हाँ, एक बात और है, कल की दिनचर्या में कुछ बातें छूट (छूटी हुई बातों को अगले दिनचर्या में शामिल करने का सर्वाधिकार मेरे पास सुरक्षित रहेगा) गई थी, असल में कल मैंने बेमन से लिखा था, कल मैं हजरतगंज स्थित "यूनिवर्सल बुक स्टोर" गया था, बस ऐसे ही! यहाँ हमारे एक मित्र रणवीर सिंह चौहान की वह किताब दिखाई पड़ गई जिसे मैं पढ़ना चाहता था। असल में, मैं और रणवीर दोनों स्वास्थ्य-भवन में अपनी स. लेखाधिकारी की नौकरी एक साथ शुरू किए थे। बाद में वे उत्तराखंड पी.सी.एस में चयनित हुए और मैं उत्तर प्रदेश राज्य विकास सेवा में आ गया। वर्तमान में रणवीर भाई को आई.ए.एस. कैडर मिल चुका है। खैर.. उनकी किताब "स्याह, सफेद और स्लेटी भी" मैंने तुरंत ले ली। अब नौकरी में हम बहुत "सर..सर.." करते रहते हैं तो, अजय नावरिया की किताब "यस सर" जैसे शीर्षक से प्रभावित इस पुस्तक को भी खरीद लिए। इधर फेसबुक पर कुछ अधिक ही व्यंग्य-विधा पर चर्चाएँ पढ़ रहा हूँ तो, व्यंग्य के विद्यार्थी की तरह शरद जोशी की "घाव करे गम्भीर" और परसाई की "ऐसा भी सोचा जा सकता है" तो सोचने के चक्कर में खरीद लिया। इधर हाल के दिनों में फेसबुक पर श्री अनूप शुक्ल जी द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी की पुस्तक की चर्चा "हम न मरब" काफी सुन चुका हूँ सो दिखाई पड़ने पर इसे भी खरीद लिया। अब साथ में श्रीमती जी की निगाह राही मासूम रजा की किताब "आधा गाँव" पर पड़ी सो उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मुझे इस किताब को लेनी पड़ी, हालाँकि बहुत पहले किसी से माँग कर यह किताब मैं पढ़ चुका था। 
              काउंटर पर किताबों का दाम चुकाने के बाद मैंने इसके बारे में जब उन्हें बताया तो उनके चेहरे की रंगत देख लगा जैसे, मैंने कोई बुरा काम किया हो। 
         
           शायद, कल की बेमन की #दिनचर्या के पीछे का एक कारण यह भी रहा हो। वैसे, समय हर घाव भर देता है, तो आज किताबों के चुकाए मूल्य के बारे में हम यही फील कर रहे हैं। 
              हाँ..जैसे-जैसे इन किताबों को पढ़ते जाएंगे वैसे-वैसे यदि कोई हमारे हिसाब की बात हमें पता चलती है तो, आप मित्रों से भी शेयर करते रहेंगे। 
              शाम को आसपास के कुछ पहाड़ों पर चढ़ वहाँ पसरी हरियाली भी देख आए। श्रीमती जी ने कहा, "प्रकृति को अपने मूल स्वरूप में देखना ही ईश्वर दर्शन है"। मैंने मन ही मन सोचा, "जब धरती पर आदमी का साम्राज्य नहीं फैला रहा होगा तो धरती अपने मूल स्वरूप में ऐसी ही रही होगी।" खैर...
                पहाड़ के ऊपर बाबा गोरखनाथ की तपोस्थली की रक्षा करते हुए एक बाबा जी, जो दो साल पहले यहीं बाँदा से अपना घर छोड़ आए हैं और अपने घर से कोई मतलब नहीं रखते, ने कहा, "सधुअई बहुत कठिन चीज होती है।" यह सुन मैंने सोचा अपने फन के माहिर लोग ही अपना काम कर पाते होंगे। पहाड़ से नीचे आने पर पता चला कार के एक पहिए की हवा निकली हुई थी। पहिया बदला। पंचर बनवाने गया तो पता चला कोई पंचर नहीं है। श्रीमती जी ने कहा, "किसी ने शरारत की होगी।" मुझे भी यही बात समझ में आई। फिर हम दोनों महोबा के कीरत सागर पर पहुँचे। काफी देर तक इसके पानी में पैर लटकाए बैठे रहे। 
               हाँ, चलते-चलते एक बात कहना चाहते हैं -
        कभी-कभी, किसी बात की अच्छाई या बुराई पर बहुत नहीं सोचना चाहिए। 
                             --Vinay 
                             #दिनचर्या 11/10.9.16

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