गुरुवार, 8 सितंबर 2016

नजरिया

                मित्रों! आज की मेरी #दिनचर्या वैसी ही शुरू हुई जैसे कल शुरू हुई थी। हाँ, आज मैंने टहलते हुए, स्टेडियम की और विजय सागर की एक दो तस्वीरें भी ली है। बाकी स्टेडियम का माहौल रोज की ही भाँति था। कार वाले हमसे पहले ही यहाँ पहुँच चुके थे। टहलते समय हमारे-उनके बीच रास्ते के सम्बन्ध की दूरी का अन्तर कुछ ज्यादा ही हो चुका था, जिसे मैं अपनी चाल से पाट नहीं पाया। सही है कि, सम्बन्धों में दूरी इतनी नहीं बढ़ जानी चाहिए कि फिर इन्हें पाटना मुश्किल हो जाए। स्टेडियम में टहलने का अपना कोटा पूरा कर मैं वापस चल पड़ा।
              रास्ते में पांच-छह महिलाओं  को भी स्टेडियम से लौटते देखा। ड(आज स्टेडियम में महिलाओं की कुछ ज्यादै भीड़ रही) और साथ ही रास्ते पर ही पड़ने वाले एक मझोले कद के पीपल के वृक्ष पर भी पड़ी। पीपल के वृक्ष के तने के पास तीन-चार महिलाएँबैठी थी तथा जड़ के पास एक दीपक जल रहा था। पीपल के तने के चारों ओर धागे भी लिपटे थे। ध्यान आया, आज शनिवार है, और शनिवार को महिलाएँ पीपल के वृक्ष की पूजा करती हैं। वैसे एक बात है, अपने परिवार के सुख-चैन, कल्याण के लिए स्त्रियाँ ही अधिक चिन्तित रहती हैं।
                 फिर हम अपने आवासीय कैम्पस में जैसे ही प्रवेश किए, ड्राइवर साहब दिख गए उनको तीन-चार कुत्ते घेरे हुए थे। मैंने उन्हें कुत्तों के साथ खेलते देख पूँछा, "अब ये इतने बड़े हो गए..!" "हाँ, सर" हमारे बीच कुछ बातें होने लगी। असल में सात-आठ महींने पहले ये कुत्ते तब अपने पिल्लेपने से उबर रहे थे। उन दिनों पत्नी भी आयीं हुयीं थी, हम दोनों साथ-साथ, स्टेडियम से टहल कर आए थे। हम अपने आवास का गेट खुला छोड़ बरामदे के फर्श पर ही बैठ गए थे। पीछे-पीछे साथ में ही ये सभी पिल्ले हमारे साथ लान में घुस आए और उसकी हरी दूब पर आपस में खूब उछल-कूद मचा रहे थे। इसी बीच मैंने अपना एकदम सफेद स्पोर्ट्स जूता पैरों से जैसे ही निकाल कर वहाँ रखा, इनमें से एक पिल्ले महाशय बड़ी तेजी से आए और मेरे एक जूते को मुँह में दबाकर उतनी ही तेजी से खुले गेट से बाहर भाग गए..! फिर मैं भी अपने नए जूते की चिन्ता में उसके पीछे उतनी ही तेजी से भागा, लेकिन वह जूते को लेकर बाउंड्री की ओट में जा चुका था और दिखाई नहीं पड़ रहा था। जूते के लेकर मैं चिन्तित हो गया, तभी वे महाशय जूते को वैसे ही अपने मुँह में दबाए मेरी ओर आते दिखे और मेरे पैरों के पास जूते को छोड़ उछलते भाग खड़े हुए..एकदम किसी शरारती बच्चे की तरह..! इस दौरान मेरी बन-बिगड़ रही भाव-भंगिमा पर पत्नी ने खूब चुटकी भी ली थी। खैर..
               आज ड्राइवर से बात करने के बाद जब मैं अपने आवास की तरफ आया तो, ये कुत्ते भी मेरे पीछे-पीछे, मेरे आवास तक जैसे मुझे छोड़ने आ गए हों..! शायद ये मुझसे इस बात से प्रभावित थे कि, मैंने इनके पालक (ड्राइवर) से बात कर लिया था!
                  आज अखबार थोड़ी देर बाद आया, तब तक मैं चाय पी चुका था। "दैनिक जागरण" की खबर "डाक्टर को बेटी पैदा हुई तो पति ने माँगा तलाक" में "ससुर किया अल्ट्रासाउंड, पति व सास ने कहा एबार्शन कराओ" भी लिखा था!  पढ़कर मन ही मन मैंने सोचा, "ससुरों को अब यही काम रह गया है"।
                एक बेटी का पिता न हो पाने की पीड़ा टीस रही थी...वैसे, हमारे पैरेंन्टल कस्बाई क्षेत्र "Mungra Badshahpur is a Block, The number of women is 1020 to every 900 men. which had a population of 26,747. Males constitute 49.89% of the population and females 50.11%. Mungra Badshahpur has an average literacy rate of 71.8%, higher than the national average of 68.5%: male literacy is 77.7%, and female literacy is 65.9%" में आनुपातिक रूप से बेटों की अपेक्षा बेटियों की संख्या काफी अधिक है! स्वयं मेरे परिवार में बेटियों की संख्या अधिक रही है। निश्चित रूप से हमारे क्षेत्र में बेटियों का सम्मान बेटों से अधिक होता है। खैर...
                मैं इसी में खोया था कि इसी अखबार की एक दूसरी छोटी शीर्षक वाली खबर "तीन तलाक न हो तो बीवियों को मार देंगे शौहर" पढ़ जब तक पुरुषत्व के अहंकार को समझता तभी यह हेडिंग "झाँसी ले जाते समय प्रसूता की मौत" आँखों के सामने आ गई..! एक स्त्री के हिस्से में ही जैसे सारी पीड़ा लिखी होती है।
         
              "हिन्दुस्तान"  में भी एक हेडिंग से "दहेज की माँग को लेकर गर्भवती को जिन्दा फूंका" एहसास हुआ कि हमारे पुरुषत्व का अहंकार स्त्रियों के प्रति वीभत्स रूप में प्रकट होना जारी रखे हुए है।

                अखबार में "नजरिया" मिला "कुत्ते तो हमें समझते हैं मगर हम?" में पढ़ा कि "हम लोगों को जानवरों की अक्लमंदी समझने के लिए भी समान दिलचस्पी दिखानी चाहिए।....कुत्ते हमें समझने में पूरी तरह सक्षम हैं" तो दूसरी तरफ शीर्षक में "कोई समझता ही नहीं" में "आमतौर पर हम जो होते हैं, वैसा दुनिया के सामने दिखना नहीं चाहते" पढ़कर समझ में आया कि ऐसी स्थिति में हम किसी को क्या और कैसे समझेंगे? एक जानवर में समझ है, लेकिन इंसानों में नहीं।
                इसके बाद शासकीय कार्यों में व्यस्त हो गया, सायं आठ बजे मुक्त होने के बाद इस दिनचर्या को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ....
                            --Vinay 
                             #दिनचर्या 4

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