शनिवार, 17 सितंबर 2016

जीवन का रहस्य

              मेरे प्रिय मित्र श्री Rakesh Mishra जी की चिन्ता यही है कि, "पुस्तकीय पाठन में हम खुद के खूबसूरत पलों से अकसर दूर हो जाते हैं, विश्राम से परे हो जाते हैं..." और परिणामस्वरूप हम "खुद को पढ़ना...या...हम कहाँ से आए हैं! हमें कहाँ जाना है! और हम कौन हैं! पर सम्यक चिन्तन नहीं कर पाते हैं...." ऐसे प्रश्न, पहले भी हमें मथ चुके हैं, लेकिन, आज मित्र के प्रश्न ने मुझे कुछ कहने के लिए प्रेरित किया है...
           
           वाकई! यह प्रश्न मेरे लिए भी महत्वपूर्ण रहा है, मैं स्वयं अपने ब्लॉग "अकथ-मन" की टैग लाइन "आखिर, मेरे होने का मतलब क्या है!" लिख रखा है। यही नहीं मेरे लिखने की कोशिश भी तमाम ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने का ही प्रयास होता है! इस लिखने की प्रक्रिया में, कभी-कभी ऐसे प्रश्नों का उत्तर पाने सम्बन्धी मेरे अपने विचारों की मौलिकता पर मुझे सन्देह होने लगता है, विचारों के दोहराव की आशंका बलवती हो जाती है। क्योंकि, कहीं का सीखा-पढ़ा विचार अवचेतन में घर किए रहता है और अवचेतन में घर किए यही विचार ऐसे प्रश्नों के उत्तर बन फूट पड़ते हैं। 
         
            वास्तव में! नए चिन्तन, नए विचारों के हम संवाहक कैसे बन सकते हैं, यहीं पर यह महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है। फिर, प्रश्न खड़ा होता है, क्या पुस्तकें आत्मचिंतन की प्रक्रिया को बाधित करती हैं?मौलिक-विचार, आत्मचिंतन में ही उभरते हैं, और अपनी मौलिकता के लिए मैं भी पुस्तकें पढ़ने को तरजीह नहीं देता। इसीलिए किताबें पढ़ने में मेरी विशेष रुचि नहीं रही है। बल्कि मैंने, स्कूली पाठ्यक्रम या प्रतियोगी परीक्षाओं के दिनों में ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ी हैं, इधर के वर्षों में चार-छह किताबें ही पढ़ी हैं। वास्तव में, मुझे पुस्तकें पढ़ने की अपेक्षा आत्मचिंतन में अधिक आनंद आता है। शायद, आत्मचिंतन की प्रक्रिया में ही हमें अपनी मौलिकता से साक्षात्कार होता है, हम अपने को जान पाते हैं। यह जरूर होता है कि किताबें हमें सूचित करती हैं, और इस सूचना पर हम स्वयं को भी कस सकते हैं। 
           
              अगर हम काव्य या साहित्य की उत्पत्ति पर निगाह डालते हैं, तो इसके मूल में संवेदना की ही पृष्ठभूमि मिलती है। "यात्क्रौंच मिथुना" को देख, उनके हते जाने की पीड़ा से, प्रथम कवि की संवेदना मुखरित हुई तो, तमाम साहित्यकार अपनी संवेदनाओं के ही बल पर कालजयी रचनाओं के प्रणेता बने। यह सब आत्मचिंतन और तत्क्रम में आत्मबोध से ही उपजा रहा होगा। तब तो, किताबें भी नहीं छपा करती थी। वास्तव में, ज्ञान किताबों का मोहताज नहीं होता। अगर ऐसा होता तो, आज साहित्य और विज्ञान का भी अस्तित्व भी न होता। 
             
              हाँ, एक बात हम मान सकते हैं ; किताबों से हमें सूचनाएँ मिलती हैं, मतलब किताबें सूचनाओं की संवाहक होती हैं। इस रूप में किताबों का अपना एक अलग महत्व है। किताबें, सूचनाओं के माध्यम से संवेदनाएँ जगाने और संवेदनाओं से साक्षात्कार कराती हैं। जैसे, एक शहरी जीवन में रचे-बसे व्यक्ति को ग्राम्य-जीवन पर आधारित कोई उपन्यास पढ़ने को मिल जाए तो वह ग्राम्य-जीवन जिए बिना ही ग्राम्य-जीवन की अनुभूतियों का साक्षात्कार कर सकता है। किताबें बिजली के तार समान होती हैं जिनमें अनुभूतियों का करंट बहता है। एक बार बचपन में, बेसान्तर की जातक कथाएँ पढ़ते-पढ़ते मैं रोने लगा था। कहने का आशय यह कि किताबें, जो हम नहीं होते, हमें वह होने का एहसास दिलाती हैं, यही रस-निष्पत्ति भी है। ज्ञान भी और कुछ नहीं, अपनी अनुभूतियों का रसास्वादन है। तमाम तरह के साहित्य के अध्ययन से हमारी अनुभूतियों का भंडार समृद्ध होता है, कोई इस बात से सहमत हो या न हो, लेकिन मेरी अपनी मान्यता है कि ज्ञान हमें पारदर्शी भी बनाता है। हम पारदर्शी होकर ही स्वयं को जान सकते हैं, और इसके लिए हमें अनुभूतियों के व्यापक धरातल पर अवस्थित होना चाहिए। 
         
               हाँ, एक बात है, किसी कार्य के पीछे उद्देश्य भी निहित होता है। जैसे, कोई मनोरंजन के लिए, कोई समय बिताने के लिए, तो, कोई जो नहीं होता उसे जानने के लिए या फिर कोई इसलिए भी किताब पढ़ना चाहता है कि कैसे लिखा जाए, इसी प्रकार, कुछ लोग किताबें इसलिए भी पढ़ना चाहते हैं कि, किसी विषय पर कितने तरीके से सोचा जा सकता है! मतलब किताबें पढ़ते समय हम अपने पढ़ने के उद्देश्यानुसार ही अनुभूतियों से साक्षात्कार प्राप्त करते हैं। जैसे, हाल के दिनों में व्यंग्य-लेखन के सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासा उठ खड़ी हुई है तो, जाहिर है हमें कुछ व्यंग्य की किताबें तो पढ़नी ही पड़ेंगी!  हाँ, अब "राग दरबारी" पढ़ने की इच्छा नहीं होगी क्योंकि इस उपन्यास के कथानक जैसे विषय-वस्तु की स्थितियों से पाठक बने बिना भी हमें साक्षात्कार होता रहता है तो, इसे पढ़ने का मन नहीं होता। एक जिज्ञासु-मन नई अनुभूतियों को ही पाना चाहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुस्तकें शायद इसीलिए भी पढ़ी जाती हैं और शायद इसीलिए नहीं भी पढ़ी जाती। मतलब हम जो हैं की अपेक्षा जो नहीं हैं उसे ही जानना चाहते हैं। यहाँ, इस सन्दर्भ में, हम कह सकते हैं कि पुस्तकें खूबसूरत पलों से भी साक्षात्कार कराने और स्वयं को पाने में सहायक होती हैं। 
             
                    लेकिन यह काम केवल किताब ही कर सकती है ऐसा भी मैं नहीं मानता। आत्म-साक्षात्कार के पल और अनुभूतियों को पुस्तकों को पढ़े बिना, हम अपने आसपास की चीजों का बोध करते हुए पा सकते हैं। कल की #दिनचर्या में, एक साधू का जीवन जीता व्यक्ति जब यह कहता है कि, "सधुअई बहुत कठिन चीज है" तो मतलब यही निकलता है कि अभी भी वह "सधुअई" के "फन" को नहीं समझ पाया है। उसे बोध नहीं है। वैसे ही, जीवन के "फन" को समझना पड़ता है। जो जीवन के "फन" को नहीं समझ पाता उसी के लिए जीवन रहस्यात्मक होता है। 
           
             आज सुबह! पहाड़ों के बीच के सुन्दर सरोवर को देखने पहुँच गया था, यहाँ सूर्योदय और वातावरण के खूबसूरत अहसास से भर गया। लगा जीवन में कोई रहस्य नहीं है, जीवन तो बहुत ही पारदर्शी है, इसे पढ़ने के लिए किसी किताब की जरूरत नहीं होती...किताबें तो अनुभूतियों के व्यापारी पढ़ते हैं या फिर सूचना के आग्रही। 
              हम कहाँ से आए हैं, हमें कहाँ जाना है या हम कौन है, जैसे प्रश्नों का इन अनुभूतियों के समक्ष कोई अर्थ नहीं....ये हरियाले पेड़..इन पेड़ों, झाड़ियों..झुरमुटों...से बहती हुई आती भींनी-भींनी खुशबू...ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर खड़े पेड़..पत्तों-झाड़ियों पर उड़ती-मँडराती तितलियाँ..!
           
          हाँ...साथ में, पहाड़ों के बीच..सरोवर की जलराशि..! तैरती मछलियां..आहट पा इसमें कूद पड़ते मेढक..सरोवर में सूर्योदय के स्वागत में खिली कुमुदिनी..आसमान में उड़ते परिंदे...! सब कुछ तो पारदर्शी है..सहज और सुन्दर..! कुछ भी रहस्यात्मक नहीं..!! जो जैसा है वह वैसा ही बस अपने में बरत रहा है। शायद जीवन का भी यही उद्देश्य है। ये पेड़- पौधे, पत्तियाँ, तितलियाँ, उड़ते परिंदे..सरोवर की जलराशि...सूर्योदय...!!  ये हमसे, क्यों..कौन..कैसे, जैसे प्रश्न नहीं करते.! बस, अपने होने का एहसास जगाते रहते हैं....हम भी अपने होने का एहसास जगा पाएँ...यही हमारा परिचय है...हाँ, हमें कहीं नहीं जाना होता है! 
                       
                         आज मैंने यही सब विचार किया। 
           
                          चलते-चलते -
                          जीवन का रहस्य उसे बरतने और इसके एहसास में ही छिपा होता है! 
                   
                                                                                                                             --Vinay
                                                                                                                              #दिनचर्या 12/11.9.16

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