गुरुवार, 8 सितंबर 2016

उपदेश

                 टहलते हुए सुबह की ताजा मद्धिम हवाएँ मन में ताजगी का एहसास कराती हैं, कुछ ऐसी ही थी आज बहने वाली हवाएँ! स्टेडियम से लौटते समय मेरा ध्यान सड़क के किनारों के घरों पर पड़ा। एक घर के सामने देखा एक महाशय अभी भी घर के बाहर चारपाई पर चद्दर तान कर सोए हुए थे और एक महिला जो शायद घर की मालकिन ही रही होंगी मकान के बाहर झाड़ू लगाने में व्यस्त थी। ऐसे ही अगले दो-तीन घरों के सामने उन घरों की औरतों को झाड़ू लगाते देखा। यह दृश्य प्रतिदिन का होता है, घर के बाहर की सफाई भी जैसे औरतों के ही जिम्मे होती है। यह हमारे घर की भी कहानी है। पुरूषों के बारे में मेरा खयाल यह है कि वे किसी स्वच्छता अभियान में ही झाड़ू पकड़ते होंगे।  बेमतलब से खड़ी स्कार्पियो के एक पहिए पर ध्यान चला गया.. पहिया भींगा हुआ था..! ये कुत्ते चाहे लाख समझदार हो जाएँ मगर अपने स्थान और स्वभाव को नहीं छोड़ सकते..। हाँ, चलते हुए मैंने यही सोचा।
              आगे एक-दो जगह औरतें, दूसरे के घरों के बाउंड्री से लटके लताओं से पूजा के फूल  चुनते हुए दिखाई पड़ी। आखिर, सफाई के साथ ही पूजा की भी जिम्मेदारी तो घर की महिलाएं ही उठाती हैं। शायद, फूलों से लदे भगवान अच्छे लगते हों, या फिर पुष्प चढ़ाने से प्रसन्न हो जाते हैं। अकसर, गोष्ठियों में पुष्पाहार पहनते या पुष्पगुच्छ थामते मुस्कुराते महानुभावों के चेहरों को देख, भगवान के बारे में भी यही निष्कर्ष निकलता है..! 
        
               आवास पर पहुँचने पर , कुछ देर सुस्ताने के बाद प्राणायाम टाइप का कुछ करने लगे। असल में, कल शाम को न जाने क्यों सिर थोड़ा भारी सा हो गया था, फिर करीब आधे घंटे तक गहरी सांसें लेता रहा, तब कहीं जाकर सिर के भारीपने से मुक्ति मिला।हालाँकि, पहले इसके लिए मुझे दवा लेना होता था, लेकिन बाद में प्राणायाम, या कहिए गहरी श्वासों को करीब बीस-पच्चीस मिनट तक लेने और छोड़ने से राहत मिलने लगा। अब इसके लिए दवा नहीं लेता। मेरे लिए प्राणायाम बाबा रामदेव की देन नहीं, तब तो बाबा रामदेव चर्चा में भी नहीं आए थे, जब दादाजी को प्राणायाम करते हुए मैंने देखा था। इस प्राणायाम से निवृत्त हुए तो फेसबुक खोल कर बैठ गए और टीचर्स डे पर पिछले साल अपना ही लिखा "तुम कुछ नहीं कर पाओगे" शेयर किया। खैर...

                इसके बाद चाय बनाने के दौरान दूध ही फट गया, क्योंकि कल रात में इसे फ्रिज में नहीं रखा था, इसके लिए मेरा खाना बनाने वाला देवपाल दोषी नहीं था। बाटी-चोखे के निमन्त्रण के चक्कर में मैंने उसे कल रात का खाना बनाने से मना कर दिया था और देर रात लौटने पर दूध को फ्रिज में रखना भूल सो गया। दूध महाशय इसी बात से नाराज हो फट पड़े होंगे कि फ्रिज में क्यों नहीं रखा गया मुझे! खैर, मैं इस फटने-वटने को ज्यादे तूल नहीं दिया और दूधिए का इन्तजार करने लगा..। इसी बीच मेरे इस सरकारी आवास के छत से पुताई का एक बड़ा सा चप्पा जो चूने की पुताई में परत-दर-परत जमते चले जाने से भारी हो जाने और सीलन से, धरती के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में, फर्श पर गिर पड़ा था, उसे मैंने झाड़ू उठाकर कमरे से बाहर कर दिया। 
                    इसके कुछ देर बाद ही दूधिया आया..चाय बनाई और मैंने चाय पी...फिर अखबार पढ़ना शुरू किए। 
       
                  लेकिन पहले कुछ कल की बातें आपसे शेयर कर लें। असल में कल #दिनचर्या को मैंने सुबह ही पोस्ट कर दी थी। इसके बाद श्रीमती जी का फोन आया था, कह रहीं थी कि "आज तीज है.. आपको पता है कि नहीं.." वाकई मुझे पता नहीं था। अकसर, तीज होने की याद वही दिलाती हैं.. खैर, यह घर का मामला है। 
  
                   तो कल हिन्दुस्तान की चर्चा नहीं किए थे, पहले इसी पर.. कल "कूटनीति के करतब और हम" में लेखक का यही मतलब था कि कूटनीति से "आनन-फानन में यह मान लेना कि इससे क्रांतिकारी परिवर्तन होने जा रहे हैं, अपने साथ ज्यादती होगी" और आज सम्पादकीय "किताबें लौट आई" में छपने वाले लेखकों के लिए खुशखबरी थी जो हम जैसों "ई-छपाई" वालों को लिए उत्साहजनक नहीं माना जा सकता।

                 आज दैनिक जागरण में, समाचारों से पहले संध्या त्रिपाठी की छपी कहानी "एनाकोंडा" पढ़ डाली। कहानी यथार्थपरक और वास्तविक प्रतीत हुई। काश! यह कहानी मात्र पाठकों तक ही न सीमित होती...! इस कहानी की अन्तिम लाईन "एक दृढ़ निश्चय के साथ वह अालू को कहानी सुनाने लगी..." एक राक्षस था.." ऐसे पीड़ित को राह दिखाती है। आलोक यादव की रचना "इक जरा सी चाह में" की पंक्तियाँ -
                          "इक जरा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूं मैं 
                           आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूं मैं"

  मन को छू गई !
      
                दैनिक जागरण का सम्पादकीय "लोकतंत्र में बंदूक" माननीयों के रुतबे को लेकर था। शायद इस रुतबे का ही परिणाम "भारत में करोड़पतियों के कब्जे में है आधी से ज्यादा संपत्ति" में दिखाई पड़ा।
                   अंत में, आज की नौकरी के दौरान इस सूत्र-वाक्य से साक्षात्कार हुआ -
                   "यह बड़ा आदमी अपने से छोटे को ही पाप-पुन्य और धर्म-अधर्म का उपदेश देता है।"
        
                     --Vinay 
                     #दिनचर्या 6/5.9.16

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें