रविवार, 20 अगस्त 2017

यह कील ठोकना

          उस महीने जब सुबह-सुबह मैंने श्रीमती जी को बताया था कि "इस महीने का इतनई वेतन मिला है" सुनते ही वे भड़क उठी थी..! बोली, "फिर क्या जरूरत है वेतन बढ़ाने का..? एक हाथ से दो और दूसरे हाथ से ले लो...ये सरकारें टैक्स के नाम पर नौकरी-पेशा वालों को ही बेवकूफ बनाती हैं.."फिर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, "नहीं यार...हम वेतन भोगियों का ऊपरी इनकम से खर्चा बखूबी चल जाता है.. सरकारें यह बात जानती हैं...इसीलिए इनकमटैक्स लगाकर अपना दिया वापस ले लेती है।" इसपर श्रीमती जी ने मुझे गुस्साई नजरों से देखा जैसे कहना चाहती हों "फिर क्यों डरते हो? चलाओ न ऊपरी इनकम से खर्चा..!" लेकिन कहा नहीं और पैर पटकते हुए किचन में चली गई और इधर मैं, मन ही मन सोचने लगा था कि उन्हें कैसे समझाऊँ कि, सरकारों का काम ही टैक्स लगाना होता है, सरकार का अस्तित्व ही टैक्स पर निर्भर करता है, टैक्स सरकार का होना सिद्ध करती है और हम वैसे भी सरकारी वेतनभोगी हैं, वह हमें, अपना दिया जानती है, तो, उसकी वसूली तो हमसे करेगी ही..! क्योंकि यह सरकार जिसको नहीं दे रही है, उसके लिए भी तो उसे कुछ करना होता है..! लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि तब वो कहती, "सरकार अपने जिस दिए को न जानती हो, फिर वही करो.! आखिर, वह अपना दिया तो वसूले ही ले रही है..!"
              
           बचपन में साइकिल पर लाल बस्ता लिए जब एक सज्जन हमारे घर आते, तो मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए मेरे दादाजी बताते "सरकार इनसे लगान वसूल कराती है।" मतलब, बचपन में इन्हें देखते ही हमें सरकार की याद आ जाती थी कि, हमारे अलावा कोई सरकार भी होती है, और तब मुझे सरकार पर बड़ा विश्वास होता था। हाँ, दो लोगों को ही देखकर पता चलता था कि सरकार होती है; एक पुलिस और दूसरा ये लगान वसूलने वाले! बाकी और कहीं यह सरकार दिखाई नहीं देती थी। खैर, आज तो चारों ओर सरकार ही सरकार दृष्टिगोचर है...सड़क पर, दुकान पर और यहाँ तक कि घर के चप्पे-चप्पे पर सरकार ने कब्जा जमाता हुआ है..! यही नहीं दवा से लेकर दारू तक यानी जीवन से लेकर मरण तक, अब सब कुछ सरकार की नजर से नहीं बच सकता, मतलब चहुँ ओर टैक्स ही टैक्स..!! बिना टैक्स दिए कल्याण नहीं...
           हाँ, यही सब बताकर मैं श्रीमती जी के गुस्से को शांत करना चाहता था! और उन्हें यह भी बताना चाहता था कि "देखो आज कुछ भी बिना सरकार के संभव नहीं है और अगर तुम्हें सरकार के टैक्स से इतनई गुस्सा है तो चलो फिर किसी जंगल में निवास करते हुए कंद-मूल-फल खा कर जीवन गुजारा जाए...वहाँ सरकार से कोई लेना-देना भी नहीं होगा और न टैक्स का झंझट ही, लेकिन यह भी नहीं कह पाया..!" क्योंकि तब श्रीमती जी कहती,  "अब तो, जंगल भी तो सरकार के कब्जे में है..या फिर, सरकार को टैक्स देने वाले उस जंगल को काट-काट कर अपने टैक्स की भरपाई कर रहे होंगे..ये हमें वहाँ भी नहीं रहने देंगे..!" और फिर वे पैर पटकते हुए मुझसे कहती कि, "अरे जंगल में जाने की बात छोड़ो, सरकार को न जनाने वाले काम करो..जिस पर टैक्स न देना पड़ता हो..जंगल काटने-कटवाने वाले भी यही करते हैं !!" 
        
         मेरे मन में अभी यह उथल-पुथल चल रहा था कि, श्रीमती जी दो कप चाय लेकर मेरे पास आ गई.. हम दोनों साथ-साथ चाय पीने लगे थे... उन्होंने मेरे मायूस चेहरे को निहारा...और मुझसे बोली... "देखो, तुम हमेशा मुझे ही दोष देते हो...तुम्हें याद है न...जब तुम्हारी इस सरकार ने नोटबंदी किया तो, तुम्हारे साथ ही मैं भी कितनी खुश थी..! उस खुशी में, मैं तुम्हारे हर बात में, हाँ में हाँ मिलाती रही... कि...अब जाकर असली समाजवाद आया है..! लेकिन हुआ क्या..? अब फिर सब उसी ढर्रे पर आ चुका है, यहीं तुम्हारे मुहल्ले में ये बड़ी-बड़ी कारें आ गई है..!  कहाँ गया तुम्हारा वह समाजवाद..! और कहाँ गई तुम्हारी सरकार...क्या ये सब बिना सरकार के जाने हो रहा है...आखिर.. तुम्हारे इसी दिए हुए टैक्स से ही यह सब हो रहा है...हाँ, अटके रहो तुम वेतन में..! ... झूँठा गर्व पालते रहो कि मैं तो इतना टैक्सपेयी हूँ..!...हम यहाँ झुँझुवाते रहें..और..लोग हमारे ही दिए टैक्स पर गुलछर्रे उड़ाते रहें...सरकार के चोंचलों को तुम नहीं समझोगे..!!"
        
           वाकई!  मैं श्रीमती जी की बात को बड़े ध्यान से सुनता रहा था...मैं समझ गया था.. पत्नी जी के मन में सरकार को लेकर विश्वास का संकट था..! हम दोनों चाय पी चुके थे। 
         हाँ, इधर जी एस टी भी लागू कर दिया गया है...श्रीमती जी की बात याद कर मन में थोड़ा डर बैठा कि "कहीं यह जी एस टी-फी एस टी सरकार के चोंचले तो नहीं है..!!" लेकिन अपने को थोड़ा सान्त्वना दिया "सरकार को गरीबों के लिए भी तो काम करना होता है..!"
           "बेचारी सरकारों को गरीबों के लिए क्या-क्या पापड़ बेलना पड़ता है..! सैकड़ों साल पहले से यह पापड़ बेलना शुरू हुआ है..!!" सोचते हुए, कहीं पढ़ी हुई यह बात याद हो आई, जब अंग्रेज "लाइसेंस टैक्स" को बदल कर "इनकम टैक्स" बिल लाए थे, तो बाल गंगाधर तिलक ने इसे "लकड़ी में कील ठोकना" बताया था!  मतलब लकड़ी में कील धसानें की भाँति यह टैक्स भी जिसपर लगेगा उसी पर लगता चला जाएगा..!! 
           खैर...इसपर सरकार को मेरी यही सलाह रहेगी कि "भाई सरकार साहब..!! हम लकड़ी तो हईयै हैं, हम पर खूब कील ठोकों और यह जी एस टी-फी एस टी भी ठीक है, लेकिन यही कील हमारे दिए टैक्स पर तथा साथ में अन्य जगहों पर भी ठोकने की जरूरत है... नहीं तो, यही हमारा दिया टैक्स गुलछर्रे में उड़ जाएगा और श्रीमती हम जैसे टैक्सपेयी को झुँझलाते हुए, गाहे-बगाहे चार बात सुनाती रहेंगी..और तुम भी ऐसई टैक्स-फैक्स का पापड़ बेलते रहोगे..!! 

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