वह शक्ति हमें दो दयानिधे,
कर्तव्य
मार्ग पर डट जावें |
पर सेवा पर उपकार में हम,
निज जीवन सफल बना जावें ||
हम दीन दुखी निबलों विकलों
के सेवक बन सन्ताप हरें |
जो हों भूले भटके बिछुड़े
उनको तारें ख़ुद तर जावें ||
छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ,
अन्याय से निशदिन दूर रहें |
जीवन हो शुद्ध सरल अपना
शुचि प्रेम सुधारस बरसावें ||
निज आन मान मर्यादा का
प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे |
जिस देश जाति में जन्म लिया
बलिदान उसी पर हो जावें ||
पर सेवा पर उपकार में हम,
निज जीवन सफल बना जावें ||
हम दीन दुखी निबलों विकलों
के सेवक बन सन्ताप हरें |
जो हों भूले भटके बिछुड़े
उनको तारें ख़ुद तर जावें ||
छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ,
अन्याय से निशदिन दूर रहें |
जीवन हो शुद्ध सरल अपना
शुचि प्रेम सुधारस बरसावें ||
निज आन मान मर्यादा का
प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे |
जिस देश जाति में जन्म लिया
बलिदान उसी पर हो जावें ||
ब्लॉगर मिहिरभोज ने अपने ब्लॉग “तत्वचर्चा”
में इस प्रार्थना का उल्लेख यह कहते हुए किया है कि आज भी इस स्कूली प्रार्थना के
याद आने पर वह स्वयं को लाइन में खड़ा हुआ पाते हैं...इस प्रार्थना की कुछ
पंक्तियाँ मुझे भूल रही थीं जिसे याद करने के चक्कर में उनका यह ब्लॉग मैंने
खोजा....
खैर...! यह प्रार्थना इतने सीधे साधे
शब्दों में थी कि इसका भाव मुझमें भी गहरे तक धँस गया था...मेरे भी भाव मिहिर जी
के भावों से एकाकार हो जाते हैं... हाँ..!यह प्रार्थना अकसर मुझे तब याद आ जाती है
जब कोई कहता है कि उसे अपनी जाति या धर्म पर अभिमान या गर्व है...
इस प्रार्थना की अंतिम चार लाइनें मेरे सामने
प्रश्नचिह्न बनाती है...आखिर...! हम किस पर अभिमान करें और किस पर बलिदान
हों....हाँ..क्या हम अपने-अपने खांचों में रहकर सभी के खांचों की कद्र करें या इन
सभी खांचों को ही मिटा दें...? आखिर ये खांचे ही क्यों हैं....? भारतीय समाज के ये
खाँचे किस बात को प्रतिबिंबित करते हैं...? ये खाँचे हमारे समाज की सफलता है या
असफलता..! कि इस पर गर्व हो या बलिदान हो जाएँ...कभी-कभी लगता है ये खाँचे मिटने
चाहिए पर चाह कर भी ऐसा नहीं हो पाता...इन खांचों की लकीरे बहुत गहरी हैं...!
इन खांचों पर गर्व करने और इन पर बलिदान हो
जाने का संस्कार बहुत पुराना है...वैदिक भारत से लेकर यह आजतक चला आ रहा है...तभी
तो आज भी पांच हजार वर्ष पुरानी सस्कृति का हम गर्व के साथ उल्लेख करते रहते
हैं... हम अपने पौराणिक या महाकाव्य कालीन मिथकों पर दृष्टि डाले तो हम सदैव अपने
लिए ही या अपने अहंकार के लिए ही लड़ते हुए दिखाई देते हैं..और वह भी जब तक कि किसी
ने हमें लड़ने के लिए बाध्य नहीं कर दिया..! देव और दानवों ने अमृत के लिए लड़ा..! ...तो...राम
ने सीता के लिए रावण को मारा..! तो...कृष्ण ने कंस को इस लिए मारा कि वह सीधे ही
उनसे टकराने लगा था...यहाँ तक कि महाभारत में उनकी भूमिका भी मात्र दो परिवारों को
न्याय दिलाने तक ही सीमित रही...! बात यहाँ इन आख्यानों पर चोट करना नहीं
है....इसके पीछे केवल खोजना यह है कि इतने महान (अवतारी) पुरुषों या महान लडाइयों
वाले इस देश में जातिप्रथा की वह काली छाया आज भी क्यों बनी हुई है...? जहाँ
छुआ-छूत, घृणा, असमानता का भाव आज भी बना हुआ है...वास्तव में देश की बहुसंख्यक
आबादी आज भी दलित बन कर क्यों रह रही है..हम चाह कर भी इसे नहीं मिटा पाए हैं...! आखिर
क्यों..? शायद इसका कारण यही है कि...हमें अपने इतिहास के आख्यानों से कमजोरों,
असहायों, और पीड़ितों के लिए लड़ने का संस्कार ही नहीं मिला है..! हम लड़े तब जब हम
पर चोट पड़ी...! हाँ आजादी की लड़ाई जरूर हमने कुछ बदलाव लाने के लिए लड़ी थी लेकिन
संविधान बनाकर और आगे की लडाइयों को उसके हवाले कर हम सब कुछ फिर भूल गए...! जबकि
विश्व के दूसरे देशों का इतिहास बताता है
कि वहाँ के लोगों का संघर्ष जनहित और सामाजिक सुधारों को लेकर होता था न कि किसी
गर्व करने वाले व्यक्तिगत विषयों को लेकर...! आज तमाम पश्चिमी देश हर मायने में
इसीलिए हमसे आगे हैं....
इन विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते
हैं..लेकिन जरा सोचें.....किस पर गर्व करें...? और.. किस पर बलिदान हो जायें...? और
ऐसा कौन करेगा...? क्या हमने सभी खाँचों को इस लायक बनाया है...कि...इन खाँचों के
लोग अपने-अपने खांचों पर गर्व और उस पर बलिदान हो जाने का भाव रख सकें.....?
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