शनिवार, 18 जुलाई 2015

एक अदद 'न्यूज़' की तलाश में यह 'शो-मंडी'

      दिल्ली में मीनाक्षी की चाकुओं से गोदकर की गयी हत्या पर टी.वी. चैनलों पर बहस चल रही है|
       बहस के विषय शायद ये हैं..
१.      दिल्ली में कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद ख़राब खासकर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर|
२.      दिल्ली में नागरिकों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व किसका है केंद्र या राज्य..?
३.      हमारी पुलिसिंग प्रणाली कैसी है..?
४.      ऐसी आपराधिक घटनाओं को आँखों के सामने होते देखते हुए भी नागरिकों का मुंह मोड़ अनदेखी करना और पीड़ित व्यक्ति की सहायता के लिए आगे न आना|
    
         यहाँ लिखने का उद्देश्य उपरोक्त बिन्दुओं पर बहस करना नहीं है और न ही इसपर अपनी कोई राय रखना है|
         वैसे मैंने टी.वी. पर चल रही इन बहसों को पूरा नहीं देखा और देखने की इच्छा भी नहीं हुई| मीनाक्षी की सरेआम हत्या और इस पर अब चल रही बहस मात्र एक ‘न्यूज़’ बन रही थी अर्थात मीनाक्षी की हत्या की खबर के साथ ही इन बहसों में भी एक ‘न्यूज़’ की तलाश प्रतीत हो रही थी| ये बहस उद्वेलित करते हुए प्रतीत नहीं हो रहे थे बल्कि किसी बात या घटना पर एक राजनीतिक वाक्य ‘रोटी सेंकना’ जैसे ही प्रतीत हुए| शायद यही कारण है कि निर्भया काण्ड से लेकर आज तक हो रही इन तमाम घटनाओं पर इन ‘बहसों’ और ‘न्यूजों’ का कोई प्रभाव नहीं पड़ा चीजें वैसी ही अपनी भयावहता में चल रही हैं|

        हमारी मीडिया अपने को बहुत ‘बाँक-बहादुर’ मानती है और चीजों को ‘न्यूज़’ बनाकर उसी अंदाज में प्रस्तुत भी करती है| यह मीडिया वहीँ दिखाई देती है जहाँ उसे ‘किसी’ ‘न्यूज़’ का आभास होता है| यहाँ यह मीडिया कह सकती है भाई हम तो ‘न्यूज़’ तलाशने के लिए ही बने हैं वही तो कर रहे हैं| लेकिन मेरे भाई, फिर तो मेरा कहना है आप ‘चौथा खम्भा’ बनने का दंभ छोड़ दीजिये| दो साल पहले उस लड़की की माँ की ओर से पुलिस स्टेशन पर गुंडों की शिकायत की गयी थी लेकिन इस घटना में तब मीडिया को कोई ‘न्यूज़’ नजर नहीं आया होगा या मीडिया वहाँ तक पहुँची ही नहीं होगी| इसका कारण हो सकता है उसके अपने डर या पूर्वाग्रह हों और शायद इसी कारण पहले वह चीजों को होने देता है जब तक कि इसमें से कोई ‘न्यूज़’ निकलकर न आये और जब ‘न्यूज़’ निकल आता है तब सब “निर्भया” के स्तर पर पहुँच जाते हैं|  

       अगर आप मीडिया पर निगाह डालेंगे तो 90% से अधिक ‘न्यूज़’ केवल ‘राजनीतिक’ खबर भर होती है| यहाँ मार्मिक और दर्दनाक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण भी ‘राजनीतिक’ हो जाता है| इस मीडिया की दृष्टि में इसका सामाजिक सरोकार जैसे इसके ‘राजनीतिक सरोकार’ से ही होकर गुजरता है|

       एक बात और है इस मीडिया ने दृश्य-मीडिया को एक “शो-मंडी” में तब्दील कर दिया है| यहाँ हर कोई ‘न्यूज़’ बन कर इस ‘शो-मंडी’ में आना चाह रहा है| इस ‘शो-मंडी’ का क्रेज पिछले दिनों एक टी.वी. शो देखकर मुझे पता चला| इस शो में दिखाया गया कि एक व्यक्ति खरीददारी कर अपने सामान के थैलों के साथ जैसे ही मॉल से बाहर आता है उसी समय एक अन्य व्यक्ति उसके सामानों से भरे थैलों को छीनकर वहीँ अपने पैरों से रौंद देता है, पहले तो व्यक्ति की प्रतिक्रिया गुस्सेवाली होती है लेकिन जब उसे बताया जाता है कि वह टी.वी. पर है तो वह बेहद खुश होकर रौंदने वाले के गले लग जाता है, इसी प्रकार अपनी गाड़ी के शीशों को तुड़वाकर भी व्यक्ति खुश हो जाता है| बात यहाँ मानसिकता की है; हम धीरे-धीरे ऐसा परिवेश बनाते जा रहे हैं जहाँ घटनाओं में ‘नैतिक मूल्य’ नदारत हैं| ऐसे में यह पुलिस चाहे जिसके नियंत्रण में रहे या इसकी चाहे जो प्रणाली हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और भीड़ भी तो केवल ‘शो’ ही तलाशती है|

          बातें तो बहुत हैं लेकिन शो चालू आहे!      

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