बुधवार, 24 मई 2017

बिना शीर्षक का व्यंग्य बे-कालर जैसा!

        “फलाने! तुम सुन लो, मैं तुम्हारा कालर पकड़ कर घसीटते फला जगह हुए ले जाऊँगा..” इस वाक्य को सुनकर मुझे पक्का यकीन हो चला कि किसी के हाथ किसी के गिरेबान तक या तो पहुँच चुके हैं या फिर पहुँचने वाले हैं...मतलब गिरेबान पर निगहबान हैं आँखें..! टाइप का कोई देश-भक्ति से लबरेज हाथ ही कालर की ओर रुख कर सकता है।
       
          इस कथन के वाकिये से जूनियर क्लास में पढ़ते समय का एक वाकया मुझे याद हो आया। तब हम दो सहपाठी बच्चे एक दूसरे का कालर पकड़े हुए काफी देर तक हिलाते-डुलाते रहे थे। वो तो मास्साब के डर से हम एक दूसरे का कालर छोड़ कालर-वालर ठीक करते हुए क्लास रूम में फिर घुस गए थे, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो…! खैर..
     
           एक बात तो तय है, कालर पकड़म-पकड़ाई के खेल में कालर में थोड़ा सिकुड़न जरूर आ जाता है लेकिन इसे तानतूनकर फिर से खड़ा किया जा सकता है।  मतलब इससे एक तरह का हड़काने जैसा विरोध प्रदर्शन वाला काम तो हो सकता है, लेकिन कालर का कोई खास हर्जा-खर्चा नहीं होता, सिवा फिर से बटन टाँकने (यदि कालर पकड़ने से बटन-वटन टूटा हो तो) के! कुल मिलाकर इस्त्री फिराई के साथ दो-चार रूपए के खर्च में ही कालर फिर से खड़ा हो जाता है।
       
           वैसे एक बात तो है, असली नेता सचमुच के समझदार होते हैं..! ये व्यर्थ की कालर वाली चुनौती में पड़कर दो-चार रूपए भी नहीं खरचना चाहते इसीलिए अपनी वेशभूषा में बिना कालर का कुर्ता शुमार किये हुए हैं, अब कोई क्या पकड़ कर घसीटेगा! अपने इस ड्रेसकोड के साथ ये नेता पूर्णरूपेण सुरक्षित होकर बिन्दास घूमते हैं।
          
           लेकिन कुछ नौसिखिया टाइप के नए-नए भए नेता भी होते हैं। जो बे-कालर वाले कुर्ते की बारीकी नहीं समझते और एकदम से आम आदमी वाले फैशन में कालर वाली शर्ट पहनकर बोल-बोलकर अपने ऊँचे कालर की ओर इशारा करते रहते हैं। लेकिन जमाना बड़ा खराब है, अगर ऐसी ही शर्ट पहनना ही है तो मौनी बाबाओं से सीख लेते हुए मौन रहना ही श्रेयस्कर होता है, अन्यथा चिढ़न में किसी का भी हाथ गिरेबान तक पहुँच सकता है और फिर घसीटे जाने का खतरा मँडराता ही रहेगा!
         
          तो, बिना शीर्षक के व्यंग्य टाइप का बे-कालर बने रहना ही ठीक रहेगा, लोग खिंचाई नहीं कर पाएँगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें