शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

सरकारी घोड़े और नेतागीरी

          उस दिन जब मैं बस में चढ़ा तो वह खचाखच भरी थी। उसमें मेरी सीट आरक्षित थी, इसलिए इसके चलने के समय ही मैं इसमें सवार होने को पहुँचा था। सीट आरक्षित इस मायने में कि मेरा फॉलोअर (वैसे इस शब्द से मुझे एतराज है) बस में मेरे लिए सीट कब्जाए हुए था।  हाँ, एक बात तो है, कोई कितना भी बड़ा तोप हो जाएं, लेकिन इस देश का लोकतंत्र अब इतना भी गया गुजरा नहीं रह गया है कि बस की सीट से किसी आम-यात्री को जबरिया उठाकर कोई बैठ जाए। और, ऐसे अलोकतांत्रिक कृत्य से आज का बड़ा से बड़ा तानाशाह भी बचना चाहता है। इन्हीं वजहों से किसी देश में तानाशाही वाले शासन को भी मैं अलोकतांत्रिक नहीं मानता! 

          मुझे बस में चढ़ते देख फॉलोअर उठ खड़ा हुआ। सीट पर बैठते ही मैंने उससे कहा, "यही सीट मिली थी तुम्हें..! अरे, बस में बीच वाली सीट लेते..।" उसके अनुसार, मेरे लिए सीट कब्जियाते समय बस लगभग भर चुकी थी..यही एकदम आगे वाली सीट खाली मिली थी। खैर, मैं बस में बैठ गया, ठीक मेरे बगल में एक पढ़ी-लिखी स्मार्ट सी युवती बैठी थी, जो अपने मोबाइल में खोए हुए ही बीच-बीच में सामने बस की बोनट के बगल की सीट पर बैठी महिला से इशारों में कुछ बात भी करती जा रही थी। हलांकि उसका इशारों में बात करना मुझे कुछ अजीब सा लगा था। 

          इधर बस की गति धीमी ही थी और कंडक्टर टिकट बनाने में मशगूल था। मेरे बगल में बैठी लड़की अपने मोबाइल में अभी भी व्यस्त थी। इस दौरान मैंने अपना टिकट बनवा लिया, फिर मैंने ध्यान दिया, बस की गति अब तेज हो चुकी थी, शायद ड्राइवर को भी यात्रियों के टिकट बन जाने का इंतजार था। वह भी भाई-चारे में ट्रैफिक इंसपेक्टर-फिंस्पेक्टर से कंडक्टर को सुरक्षित रखना चाहता होगा। बस के अंदर सारी स्थितियाँ सामान्य थी और बतियाने वाले एक-दूसरे से बतिया रहे थे। मेरे पीछे सीट पर बैठे किसी व्यक्ति की तेज, तल्ख और भारी आवाज मुझे सुनाई पड़ी-  

     

      "बुंदेलखंड तो, सरकारी घोड़ों के लिए हरी घास का मैदान है।"

        यह उसका किसी से बतियाने का स्वर था। आवाज मुझे रूचिकर प्रतीत हुई। इस पर कान देने की कोशिश के साथ ही मैंने बस की खिड़की से बाहर झाँका, कोई घास का मैदान-वैदान मुझे नजर नहीं आया। बल्कि बड़े-बड़े मैदाननुमा धूल-धूसरित खेत और जमीन से लेकर आसमान तक गर्दोगुबार छाया हुआ दिखाई पड़ा। इसे देखते हुए मैंने सोचा-

       "इस गर्दोगुबार के सिवा यहाँ तो कोई हरा मैदान नहीं दिख रहा..! ये घोड़े घास कहाँ चरते होंगे? "

        कुछ क्षणों बाद पीछे बैठे उसी व्यक्ति की आवाज मेरे कानों में फिर पड़ी-

      

        "यहाँ कोई नेतागीरी नहीं है। अधिकारियों, कर्मचारियों की बल्ले -बल्ले है।"

     

       चलती बस में, खिड़की से बाहर झाँकते हुए मैंने सोचा-

        "वाकई! यहाँ बड़े-बड़े खेतों में लगे इन पत्थर के क्रेशरों से उठते गर्दोगुबार ने वातावरण को जबर्दस्त धुंधमय बना दिया है।"

         अचानक मन-मस्तिष्क में यही गर्दोगुबार, धुंध, घास, हरा-मैदान, सरकारी घोड़े, नेतागीरी सब मिल गड्डमड्ड होकर उछल-कूद करने लगे! एक अजीब सी बेचैनी में, मैंने बस की खिड़की से बाहर झाँकना बंद कर दिया। 

       बगल में बैठी युवती पर ध्यान गया। वह अपने एक हाथ में मोबाइल पकड़े उसकी स्क्रीन पर आँख गड़ाए दूसरे हाथ से इशारे करती हुई बातचीत की भाव-भंगिमा में दिखाई पड़ी। उसके मुँह से कभी-कभी अस्फुट सी ध्वनि निकल जाती। जिज्ञासा वश मैंने एक उड़ती सी निगाह उसके मोबाइल-स्क्रीन पर डाली। स्क्रीन पर भी एक महिला उसी तरह इशारों में बात कर रही थी। अचानक मुझे आभास हुआ -

        "तो..यह स्मार्ट सी लड़की गूँगी-बहरी है..!"

         उसे देख उसके जीवन की सुगमता और सुरक्षा के प्रति हमारी और समाज की संवेदनशीलता को लेकर मन में तरह-तरह के खयाल आए। लेकिन, उस लड़की के चेहरे पर झलक रहे आत्मविश्वास से मुझे राहत की अनुभूति हुई। आगे एक छोटे से कस्बे के अपने गंतव्य पर वह लड़की बस से उतर गई थी। 

        अब उस लड़की के साथ कस्बा भी पीछे छूटता जा रहा था। मैंने सोचा, चीजे ऐसे ही अकसर पीछे छूट जाती हैं। उसी समय मेरे पीछे बैठे उसी व्यक्ति की आवाज मुझे फिर सुनाई पड़ी-

         "ये सब सचिव-फचिव (मैंने ग्राम स्तरीय सचिव माना) सब लाखों में खेलते हैं.. पहले जहाँ पैदल चलते थे, वहीं अब इनके पास एक से एक गाड़ियाँ हो गई हैं..ऐसा कोई नहीं जिसके पास चार-छह प्लाट-जमीन न हो.."  

          इसके बाद फोन पर किसी से बात करती उसकी आवाज सुनाई दी-

         "हलो..कोटेदार..! हाँ.. अच्छा..अच्छा.. दिल्ली में हो.. कल आ जाओगे! यहाँ एस डी एम बदल गया है.. नए वाले से बात की जाएगी.. प्रधानमंत्री पोर्टल वाली शिकायत आ गई है...वो साला इंसपेक्टर बदमाशी कर रहा है...वो उससे (किसी नेता का नाम) डर के ऐसी रिपोर्ट लगा रहा है... अच्छा आ जाओ, तो चलते हैं उस इंसपेक्टर के कमरे पर... साले को कमरे में बंद कर..ठीक कर दिया जाएगा.."

        उसकी इन बातों को सुन मैं पशोपेश में पड़ गया, सोचने लगा -

         "यहाँ आम-आदमी...नेता..गुंडागीरी...अधिकारी...घोड़ा...घास आदि सब तो एक दूसरे में उलझे हुए हैं..! कौन सी कीमोथेरेपी सफल होगी कि इन्हें एक-दूसरे से अलग कर असली कर्ताधर्ता को पहचाना जाए ?" 

    

         और, मैंने सोच-विचार में अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि खर्च किया तथा अपने विचार इस बात पर स्थिर किए-

         "बुंदेलखण्ड में राजनीति और सरकारी घोड़ों के बीच इस बात पर जबर्दस्त आपसी समझ विकसित हो चुकी है कि, सरकारी घोड़े हरी घास चरते रहें और राजनीति गर्दोगुबार उड़ाती रहे..! मने दोनों का काम चलता रहे..!! सच में, इसी वजह से यह क्षेत्र सरकारी घोड़ों के लिए हरी घास का मैदान है..!! कुल मिलाकर मरन तो यहाँ हरी घास की ही है।"

            खैर, उस व्यक्ति के अपने गंतव्य पर उतर जाने के बाद मैंने भी उसकी बातों को पीछे छोड़ते हुए सोचा-

           "अगर कोई जाम-साम न मिला तो समय से यह बस हमें भी पहुँचा देगी..बस-ड्राइवर, ड्राइवरी में होशियार है।"

         लेकिन यह खुशफहमी ज्यादा देर टिकी नहीं। अचानक सड़क पर दिखाई पड़े एक व्यक्ति के इशारे से बस रुक गई। उसके और हमारे बस-ड्राइवर के बीच न जाने कौन सी गुफ्तगूँ हुई और ड्राइवर बस से उतर गया। लगभग सात-आठ मिनट बीतने के बाद "कोई समस्या फंसी है" सुनकर मैं भी अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए बस से उतर लिया। 

          पता चला कि बस-डिपो से, हमारे बस-ड्राइवर को एक अन्य समस्याग्रस्त रोडवेज बस को तीन किमी पीछे पुलिस चौकी पर खड़ा कर आने के निर्देश मिल रहे हैं और ऐसा करके ही वह अपनी बस आगे ले जाए। मैंने अनुमान लगाया कि उस बस को पुलिस चौकी पर खड़ा कर वापस आने में ड्राइवर को लगभग एक घंटे का विलम्ब हो सकता है। मेरे पूँछने पर ड्राइवर ने फोन मेरे हाथ में देकर बस-डिपो वाले से बात करने के लिए कहा, लेकिन डिपो वाले ने मेरी बात नहीं सुनी। डिपो वाले मुझे जानते थे, लेकिन मैंने अपना परिचय देना उचित नहीं समझा। ड्राइवर ने हमसे अपनी मजबूरी बताई और उस बस को पुलिस चौकी पर छोड़ने जाने के लिए तैयार हो गया। 

       

           लेकिन, मैंने बस-ड्राइवर और कंडक्टर दोनों से सैकड़ों यात्रियों के विलम्ब का हवाला दिया, इस बीच एक-दो और यात्रियों ने मेरा साथ दिया। खैर, मेरे समझाने पर ड्राइवर भयभीत-मन से (बस-डिपो के अधिकारियों से) अपनी सीट पर आया और बस चली। ड्राइवर ने मेरा फोन नम्बर भी इस उद्देश्य से लिया कि डिपो से कोई समस्या होने पर हमसे बात करा देगा। 

           इधर चलती बस में, मैं इन प्रश्नों में खो गया - " अगर ऐसी ही समस्या किसी अन्य देश में होती, तो क्या वहाँ भी बस-ड्राइवर से अपनी यात्रियों भरी बस छोड़ दूसरी बस को टोचन करने के ऐसे ही निर्देश दिए जाते? या वहाँ ऐसी समस्याओं के लिए पृथक से कोई व्यवस्था होती होगी..?"

         मैं इसका उत्तर खोजने में मशगूल था कि हमारी बस एक बार फिर झटके के साथ रुक गई। पता चला कि टी. आई. साहब हैं, बस की जाँच करेंगे। अबकी बार कंडक्टर बस से उतरा, और इस प्रकार जाँच-फांच होते-हवाते करीब दस मिनट बाद बस चली। 

            जब हम बस से उतरे, तो हमारी बस-यात्रा के लिए निर्धारित समय में, एक घंटा और जुड़ चुका था। 

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