बुधवार, 24 अगस्त 2016

बस है कि देश है!

           इक्कीसवीं सदी के सत्तरहवें पन्द्रह अगस्त को ढेर सारी देश-भक्ति की बातें हुईं थी। इस देश-भक्ति की खुमारी में ही मैंने बस-यात्रा की। बस-अड्डा परिसर में बाबा-आदम के जमाने के बस अड्डे के जर्जर भवन पर उड़ती सी निगाह डालते हुए एक खड़खड़िया टाइप की बस को छोड़ते हुए वहाँ के कींचड़-पानी से कदम-ताल करते हुए दूसरी कुछ ठीक-ठाक सी दिखनेवाली बस पर जा बैठा था। शाम होने वाली थी। बस चली जा रही थी। अभी तक पन्द्रह अगस्त की खुमारी मेरे ऊपर से नहीं उतरी थी और मैं देश-भक्ति की ताक-झाँक में ही लगा था।
                   इधर कंडक्टर टिकट बनाते हुए आता दिखा। ठीक उसी समय चलती बस के अन्दर की लाईट बुझ गई। बस में बिजली कटौती की कोई सम्भावना नहीं थी। हालाँकि कन्डक्टर तब टिकट बना रहा था। कंडक्टर ने ड्राइवर से अन्दर की लाईट जलाने के लिए दो-तीन बार कहा, "तिवारी लाईट जला दो" इसके बाद बत्ती जली और जैसे ही बस का पहिया देश-भक्ति के किसी गड्ढे से होकर गुजरा बत्ती बुझ गई। कंडक्टर ने पुनः बत्ती जलाने के लिए ड्राइवर से कहा। लेकिन लाईट नहीं जली। कंडक्टर थक-हार कर किसी तरह एक हाथ में मोबाइल वाले टार्च को जलाकर दूसरे हाथ में टिकटवेंन्डिंग मशीन ले टिकट बनाने लगा। मन ही मन मैंने उसके देश-भक्ति की दाद दी। इस बीच यदि कोई फोन आता तो एकदम आम आदमी टाइप व्यक्ति की तरह देश-भक्ति भूल फोन पर बतिया भी लेता। 
            
            इसी दौरान मेरे पीछे से एक बोलती आवाज पर मेरा ध्यान अटक गया। "ये ड्राइवर ससुरा बदमाश है, कन्डक्टर से इसकी नहीं पट रही होगी, इसलिए बत्ती बुझा दिया होगा" इसका समर्थन किसी एक और ने किया। इसपर किसी ने कहा "नहीं बस के अन्दर की लाईट ही खराब है।" इसे सुन ड्राइवर को कोसने वाले ने जैसे आत्मग्लानि के स्वर में कहा हो, "अच्छा बस की लाईट खराब है!" मैंने मन ही मन विचारा, बिना सोचे-समझे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उचित नहीं होता, नहीं तो देश-भक्ति पर व्यर्थ का प्रश्नचिह्न खड़ा होता है।

            अब न जाने कैसे देश-भक्ति से मेरा ध्यान हट कर बस की चाल पर आ गया। बस-ड्राइवर ड्राइविंग में ज्यादा पेन लेता नहीं दिखा। बस-ड्राइवर की इस मनःस्थिति से अनजान किसी ने जोर से कहा "अबे ड्राइवर! बैलगाड़ी चला रहा है क्या?" साथ ही वह बस की ऐसी चाल से अपना प्लेन छूट जाने की बात भी कह रहा था। तभी दूसरे ने भी ट्रेन मिस हो जाने की बात कह उसके सुर में सुर मिलाया। देखा-देखी ऐसे ही बस तेज चलाने की माँग में कई स्वर उभर आए। मिले सुर में मेरा तुम्हारा जैसा देश-भक्ति का जलवा दिखाई देने लगा लेकिन इसी में कोई देश-द्रोही जैसा स्वर भी उभरा, जो ड्राइवर को डिस्टर्ब न करने की बात भी कह रहा था।
             इधर मैं, देश-भक्ति के आड़े आ रही तमाम समस्याओं पर मन ही मन विचार करते हुए इस बोरिंग सी समय-यात्रा को खर्च करने में तल्लीन था कि बस में मचे इस हलचल से मेरा ध्यान बस की चाल जैसी समस्या पर आ गया। इसके बाद तो यह बस है कि देश या देश है कि बस में उलझ गया। किसी अफीमचिए की तरह मैंने सोचा अरे गंजेड़ियो! काहे झगड़ रहे हो, देश की चाल सुधरेगी तो बस की चाल अपने-आप सुधर जाएगी! आखिर यह बस देश में ही तो चल रही है। इस चाल को लेकर यात्रियों में बहस का स्वर थोड़ा ऊँचा था और हमें लगा जैसे सब गंजेड़ी मिल कर कह रहे हों कि यह बस देश में नहीं सड़क पर चल रही है। देश की चाल से बस की चाल का क्या सम्बन्ध! देश की चाल से बस की चाल को जुदा करने पर उतारू ये गंजेड़ी निश्चित रूप से देशभक्त नहीं कहे जा सकते। 
                
             एक अफीमचिए जैसी खुमारी में ही देश और बस मेरे जेहन में गड्डमड्ड हो चुके थे सो मैंने लड़खड़ाती सी आवाज में कहा, "अरे भाई देश को चलाने वाले कौन सा पेन लेते हैं, पेन लिया नहीं कि इनकी देश-सेवा की नौकरी ही छूटी,आप सब नाहक ही ड्राइवर को कोस रहे हो? आखिर सबके बीवी-बच्चे होते हैं, कहीं बस ठुक-ठुका गई तो इनकी नौकरी गई काम से। आप का क्या, आप तो दूसरी में बैठ जाएँगे, बस है कोई देश नहीं कि बैठे-बैठे दूसरे ड्राइवर का इन्तजार करेंगे।" वैसे मैं देशहित-चिन्तन में इतना तल्लीन हो चुका था कि समझ नहीं पाया कि इसे बोला हूँ कि सोचा हूँ और इस चक्कर में गंतव्य पर पहुँचने की मुझे भी जल्दी है इसे भूल गया। वाकई! अफीमचिए ऐसे ही होते हैं।

               देश-सेवा में आए व्यवधान से कहीं ड्राइवर खिसिया न गया हो क्योंकि बस की चाल और धीमी होते हुए मुझे प्रतीत हुई। वैसे भी कोई भी ड्राइवर ड्राइविंग को लेकर टोंका-टाकी पसंद नहीं करता। ठीक इसी समय मेरे कानों में ड्राइवर के लिए एक आवाज आई, "अरे, इसकी क्या मेरी प्लेन छूट गई तो जितना इसके महीने भर की तनख्वाह होगी उतने का तो मुझे एक दिन में नुकसान हो जाएगा। मैं तो इसका नम्बर नोट करके अपने नुकसान की भरपाई के लिए कम्पलेन करुँगा.." अब लो! इस बात को सुनकर मैं एकदम से चकरा गया और बस की सीट पर उछलते-उछलते बस की छत से टकराते-टकराते बचा। गजब! नाहक ही हम देश की गरीबी का रोना रोते हैं, और देश के नागरिकों को कोसते हैं यहाँ तो किसी के एक दिन की कमाई ही किसी के महीने भर के वेतन के बराबर है और फिर कम्पलेन की सुनवाई की अद्भुत और त्वरित व्यवस्था!! इस झटका-झुटकी में मेरी खुमारी में जैसे थोड़ी कमी आई। ये ल्लो! मैं तो गंजेड़ी निकला असली अफीमची तो ये महाशय निकले। देश-भक्ति से लबरेज और अपने नगरिक अधिकारों से सराबोर!! देश के प्रति इस जिम्मेदार नागरिक के देश-भक्ति के इस जज्बे के प्रति मेरा लार टपक पड़ा। मुझे अब अपनी देश चिन्ता नाहक लगने लगी। गांजे का धुँआ जैसे उड़ गया हो और एहसास हुआ कि खुशी से नहीं हाईवे के किसी रोडब्रेकर और बस की पिछली सीट पर बैठे होने के कारण उछला था। हाँ, एक बात है वह यह कि पीछे बैठने वाले थोड़ा धचका खाए नहीं कि बात-बेबात पर उछल पड़ते हैं। अरे भाई! देश चलने दो धचके वगैरह तो लगते ही रहते हैं इसमें उछलना-कूदना क्या। ऐसे ब्रेकर भी आते रहेंगे। 
     
           अन्दर बस में इसकी चाल को लेकर अभी भी गहमा-गहमी वैसी ही थी। किसी ने कहा, "अरे यार! इसमें ड्राइवर की गलती नहीं है, इस बूँदाबाँदी में बस का वाइपर ही नहीं चल रहा है।" हालाँकि शुरू में ही मैंने वाइपर को काम करते देख लिया था लेकिन उस व्यक्ति बात पर मैंने सोचा हो सकता है वाइपर बस के शीशे पर न चल हवा में चल रहा हो। आखिर देश में भी तो बहुत सी चीजें हवा में चलती हैं। हमारे देश में किसी नेता की तरह ड्राइवर को भी क्लीनचिट मिल सकती है, सोचते हुए मेरा सीना छप्पन इंच का हो गया। हाँ, अब यह ड्राइवर भी अपना काम निर्द्वन्द्वता से तो पूरा कर सकेगा और खामखा हो-हल्ले का शिकार नहीं होगा! लेकिन कुछ बस-यात्री विपक्षी नेता की भाँति इस क्लीनचिट से असंतुष्ट हो बोल पड़े, "जब वाइपर खराब था तो अफसर को बताना चाहिए था।" अफसर! इस शब्द से मेरी देश-भक्ति जैसे अंगड़ाई लेने लगी हो। एक अफसर की देशभक्ति को मैं पहचानता हूँ इसी का तो उसे वेतन मिलता है। उसे समस्या की जानकारी हुई नहीं कि समस्या की ऐसी की तैसी! समस्याओं को तो वह चुटकी बजाते जमीन से हवा में उड़ा देता है और हवा से जमीन पर ला देता है। अगर अफसर को इस समस्या के बारे में कुछ भी पता होता तो वाइपर जैसी कोई समस्या न होती। बस की चाल धीमी न होती और देश की भी चाल तेज होती। मतलब ड्राइवर पर आरोप सिद्ध होता है! देश की धीमी चाल के लिए यही जिम्मेदार है, देशद्रोही कहीं का!

            ड्राइवर पर आरोप सिद्ध होने के अंदेशे में बस-कंडक्टर उसके बचाव में बोला, "अफसर से कौन कहे..किसकी हिम्मत है अफसर से कहने की..? अफसर सुनता है किसी की! अफसर से कह कर क्या आफत मोल लेना है? फिर तो लेने के देने पड़ जाएँगे।" सुनकर मैंने सोचा, अरे बाप रे! क्या अफसर में किमजुनउंन भी छिपा होता है? लेकिन यही तो अफसरी है, जो अफसर मातहतों की सुनने लगें तो फिर उनकी अफसरी क्या! मातहतों से ही तो अफसरी है! अंग्रेजों का जमाना गया और यदि आजाद जनता पर अफसरी दिखाएँगे तो, नेता क्या तेल लेने गए हैं!! वैसे भी जनता अफसर का रौब-दाब देख जुगाड़ संस्कृति से अपना काम निकाल लेती है और नेता अगर तेल लेने गए भी हों तो यह तेल इनके चुनावी-चक्र के पहिए में बखूबी लुब्रीकेंट का काम करती है।
             बस की इस धीमी चाल से यात्री क्रांति न कर बैठें ड्राइवर ने बस रोका और शीशा साफ किया तथा बस लेकर चल पड़ा जैसे कोई प्रधानमंत्री देश-भक्ति के जज्बे में देश लेकर चल पड़ता है। लेकिन बात फिर भी नहीं बनी।बस की चाल देश के विकास की चाल की तरह वैसी की वैसी ही रही। इस चाल से आजिज आकर हमारे ठीक पीछे बैठे क्रांति के लिए सन्नद्ध दो बंधुओं ने क्रांति की असफलता भाँप जुगाड़-संस्कृति का सहारा लेने हेतु दृढ़-प्रतिज्ञ हो उठे। इनमें से एक ने शैम्पू लेकर शीशे पर मलने की बात कही तो दूसरे ने शीशे पर तम्बाकू मलने की बात कही, क्योंकि इससे बस के शीशे पर बूँदे नहीं ठहरेंगी और ड्राइवर को रास्ता साफ दिखेगा। ये बंधु अन्य यात्रियों के हित में नहीं बल्कि एक अपनी ट्रेन छूटने के भय से तो दूसरा हवाई-जहाज छूट जाने के भय से ऐसा कर रहा था। देश-सेवा के इस रूप में मैंने इनकी भलाई में सब की भलाई खोज लिया। दोनों ने बस रुकवा दी और अपने जुगाड़ के अमल में लग गए।
                      इधर इस हड़बोंग में बस खड़ी थी और इसके शीशों पर जुगाड़ मला जा रहा था। हालांकि जुगाड़ मलने में जाया होते समय को देख मैं अपने में ही बड़बड़ाया, "अरे, अब तक बस अपनी उसी चाल से चार-छह किलोमीटर तो निकल ही आई होती.." खैर, बस चली। थोड़ी राहत हुई कि चाल अब तेज थी। क्या पता ड्राइवर का मन पसीजा हो और सोचा हो चलो थोड़ा इस बस के मुसाफिरों के मन की भी कर दें। लेकिन फिर वही पुरानी वाली स्थिति में चाल वापस! अब तो शीशा भी एकदम साफ था। खैर, मैंने सोचा चाहे देश हो चाहे बस हो जिसको जैसे चलना है वैसे ही चलेगा। स्वभाव थोड़ी न बदल जाता है। फिर जैसे-तैसे कर मंथर-मंथर चाल से शहर में प्रवेश किए! अब पों-पाँ-पीं के बीच फँस चुके थे। हवाई जहाज वाले बंधु तो उतर चुके थे..हाँ! ट्रेन पकड़ने वाले बंधु जरूर फँसे पड़े थे। उनकी ओर ध्यान गया तो किसी से मोबाईल पर बतियाते हुए कह रहे थे, "अभी तो जाम में फंसे हैं" सुनते ही मैं मुस्कुरा उठा जैसे किसी व्यंग्य में पढ़ी लाईन सुना हो। सोचा हमारी देश-भक्ति भी पों-पाँ-पीं जैसे ऐसे ही किसी जाम में फंस चुकी है और हम भी इसमें फँसे पड़े हैं। सोचा देश-भक्ति की जाम खुले तो घर पहुँच जाएँ। अन्त में अपनी मुस्कुराहटों के बीच मैंने सोचा "लो भाई यहाँ भी अगर जुगाड़ मलने की गुंजाइश हो तो मल लो..आप के साथ हम भी लाभान्वित हो लेंगे" और पों-पाँ-पीं के शान्त होने का इन्तजार करने लगा।

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