मंगलवार, 15 नवंबर 2016

बाजार के हिमायती मत बनिए

(नोटबंदी के पक्ष में)
         अर्थव्यवस्था..! आज इस व्यवस्था से जुड़े बिना हम अपने जीने की कल्पना नहीं कर सकते। और यह व्यवस्था चलती है नोट से..जेब में नोट है तो समझो पूरी व्यवस्था है..नहीं तो चहुँ ओर अव्यवस्था ही अव्यवस्था! लेकिन इन्हीं नोटों का मूल्य यदि कागज के एक टुकड़े भर रह जाए तब क्या होगा? तब तो सारी व्यवस्था अनर्थव्यवस्था सी हो जाएगी। बाजार में सियारिन फेकरेंगी..मतलब सब सून..! हाँ.. 
             रहिमन नोटन राखिए, बिन नोटन सब सून। 
             नोटन गए न ऊबरै, बाजारन के कारकून।। 
           
             हमने तो सरकारों से यही अपेक्षा की थी कि भइया हमें इस अर्थव्यवस्था में बेमतलब का मत घुसेड़ो...क्योंकि अर्थ का ही अनर्थ होता है। हमारी तो, बस हमारे गाँव के आसपास स्कूल चाहिए...एक अदद अस्पताल चाहिए...आने-जाने के लिए एकदम से गड्ढामुक्त बढ़िया पक्की सड़क चाहिए..और..हम अपने खेतों में अपने खाने की जरूरत का अनाज पैदा कर सकें...तथा बाग- बगीचों जैसी हरियाली के बीच कच्चा ही सही एक साफ-सुथरा घर हो..और घरों में टिमटिमाती रोशनी हो..इन सब चीजों के लिए किसी शहर के मोहताज न रहें..यही अपेक्षा थी। लेकिन हमारी अपेक्षाओं पर ध्यान न देकर हमें केवल अर्थव्यवस्था पकड़ाया गया। पता नहीं कितने नोट छपे और कहाँ चले गए? मगर हम अपनी अपेक्षाओं का बोझ लिए झुनझुना बजाते शहर दर शहर खाक छानते रहे...
             लेकिन सरकार आप..! आप तो आजादी के बाद से ही अर्थव्यवस्था बनाने में लग गए...बाजार बनाने में लग गए! आपने साहब! एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई कि आपने बाजार के बाजार खड़े कर दिए..इस बाजार ने हमारी हमारे ही ऊपर की निर्भरता हमसे छीन लिया। हमारी स्वनिर्भरता को बाजार में सौंप दिया गया। अर्थ का अनर्थ होता गया और हम, बाजार के गिरवी होते गए, शहर दर शहर बाजार की चकाचौंध में डूबते चले गए..गाँव के गाँव उजड़ते चले गए..गाँवों की चौपालों में सन्नाटा पसर गया। हम कर भी क्या सकते थे क्योंकि हम शहर और बाजार के मोहताज हो गए..! और आप, आप तो सरकार दर सरकार अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होने के गर्व से भर चुके थे.. हमारा ख्याल ही कहाँ था आपको..! आप की अर्थव्यवस्थाजनित चक्रव्यूह में घिरे हुए हम भी लालची दर लालची बनते रहे...हमारी नियति भी लालची बनने की हो गई...इसमें हमारा दोष नहीं..हम तो आपके बनाए बाजार की कठपुतली बन चुके थे...नए-नए करारे नोट दे-देकर और नोट उगलने की मशीन बनाकर बीच बाजार में ढकेल हमें आपने अकेला छोड़ दिया..अब हमारी नियति बाजार के हाथ में थी।
        हाँ, गलती हमारी ही थी.. जेब के नोट को खुदा समझ हम भी बाजारू बन स्वयं को सर्वशक्तिमान मान गर्वोन्मत्त हो चुके थे...जैसे बाजार पर विजय प्राप्त कर लिए हों...लेकिन यह बाजार..! यह बाजार तो बड़ा छलिया निकला...बहुत मायावी निकला..! हमने नोट को खुदा माना तो शायद बाजार अपमानित हुआ फिर इस बाजार ने ही अर्थव्यवस्था से सांठ-गांठ कर हमारे जेब के नोट को काले रंग से रंग दिया..! जेब में धरे-धरे इनकी पहचान खतम हो गई..अब इनके बिना हमें अपनी लाचारी समझ आ रही है..
              काश! हम बाजार और अर्थव्यवस्था के गुलाम न बने होते तो हमारी यह दुर्दशा न हुई होती...हमें सरे बाजार नंगा कर दिया गया है..चोर घोषित कर दिया गया है..यह तो सरासर बाजार की ही नंगई है..और सरकार! यह आप की भी सरासर बदतमीजी है हमारे साथ। हम तो भोलेभाले थे..आपने हमें बाजार के भरोसे क्यों छोड़ा? जनाब अब यह नहीं चलेगा..अब बिना अपने खुदा के हम नहीं जी पाएंगे...आप हमारी हत्या करने पर उतारू हो आए हो...आप हमारे आक्सीजन हमसे छीन रहे हो..अब ऐसा नहीं हो सकता..अगर यही करना था तो बाजार न बनाते..हमें ललचाते न..हम तो सदियों से अपने में जीते रहने वाले लोग रहे हैं..हमें तो आपकी ऐसी अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से कोई सरोकार नहीं था..शादी विवाह भी हम लाई गुड़-चना और शर्बत खा-पीकर निपटा लेते थे.. वह भी अटूट बंधन वाली! इसमें हमें किसी टेंटहाऊस-फाऊस की भी जरूरत नहीं होती थी, गेस्टहाउस-फाउस की तो कल्पना ही नहीं थी..लेकिन आज खाट मिलना तो दूर अब तो खाट भी लूट ली जाती है..आपने लूटना ही लूटना सिखाया...सरकार यह लूटना और लुटना सिखाना सब आप का ही दिया है।
        सदियों पहले हमने पुल बनाना सीखा था क्योंकि समुद्र को लांघना हमने अनुचित माना था तब बाजार बनाने वाले हम लोग जो नहीं थे..! हम आत्मनिर्भर अपने में जीने वाले लोग थे..। लेकिन हमारी आदतें बदल डाली गई..हमें बाजार दिया गया..नोट दिया गया और..इधर अब आप हमसे नोट छीने ले रहे हैं...यह कैसे चलेगा..जो बाजार आपने फैला रखा है उसका क्या होगा? गवाह, अपराधी, जज सभी आप ही बनोगे? यह नहीं हो सकता। आप भी सजा के हकदार हैं। आप भी अपने लिए सजा तय करें..आजादी के बाद आखिर आपने क्या किया..?
           आखिर सरकार दर सरकार सब सरकारों ने मिलकर हमें क्या दिया? इनने जो चमचमाती सड़कें बनाई वह भी केवल बाजार जाने के लिए; एक भी सड़क हमारे गाँव की ओर जाती नहीं दिखाई देती। शायद, गाँव की ओर जानेवाली सड़कों को बाजार बनाने वालों ने ही मिलकर लूट लिया है...अगर कोई सड़क हमारे गाँव की ओर जाती हुई हमें मिलती तो शायद हम आपकी दी हुई अर्थव्यवस्था और इसके दिए बाजारूपने की लालच से हमारे जेब में पड़े काले रंग में रंगे नोट न गिन रहे होते..और आज अपने नोट के मालिक हम स्वयं होते..हम ही तय करते कि इन नोटों के साथ क्या सलूक किया जाए। लेकिन आपकी अर्थव्यवस्था और बाजार में फँसे हुए हम लोग अब कर ही क्या सकते हैं? 
          आज अगर कोई बाजार और इससे उपजे लालच को तोड़ने का काम करता है तो हमें भी अच्छा ही लगता है, लेकिन यह ऐसे नहीं होगा, हमें आत्मनिर्भर भी बनाइए। किसी बाजार और उसके चक्रव्यूह में मत ढकेलिए! अगर बाजार बनाएँगे तो यही होगा..! कृपया बाजार के हिमायती मत बनिए...

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