रविवार, 20 नवंबर 2016

अपने-अपने अर्धसत्य

           (चलो हम मान लेते हैं, भैंचो..चाहे आम हिन्दू हो या आम मुसलमान दोनों साम्प्रदायिक ही होते हैं। लेकिन इनके बीच ये बंटवारे का बीज कौन बोता है..? भैंचो..चलो यह भी मान लेते हैं कि...नेता ही इनके बीच बंटवारे का बीज बोते हैं..
      ... लेकिन भैंचो..ये बुद्धिजीवी किस खेत का मूली हैं कि बंटवारे को नहीं रोक पाते? ..और दिनोंदिन बंटवारे की खाई चौड़ी होती जाती है.... 
         फिर यह बुद्धिजीवी भैंचो...क्या घास छीलता है..या केवल वकीली के रूप में ही बुद्धि का प्रयोग करता है...जैसे वकील अपने-अपने पक्ष को जिताने में सारी बुद्धि खरचते रहते हैं, वैसे ही हार या जीत का बीज बोते हुए ये बुद्धिजीवी भैंचो..भी अपनी-अपनी घांई के पक्ष में ही बात कर-कर विग्रह का बीज बोते रहते हैं...)

        माफ करिएगा, कोष्ठक की पंक्तियाँ ज्ञान चतुर्वेदी के "हम न मरब" उपन्यास की उद्धृत निम्न पंक्तियों से प्रभावित है.....
        "वकील लोग भैंचो कभी कुछ करते भी हैं? ये लोग बंटवारा करवाने के सिवाय और कर भी क्या सकते हैं?  इनका बस चले तो ये घर बंटवा दें, देश बांट दें। जिनने कभी हिंदुस्तान को बंटवाया था उनमें भी तो वकील-ही-वकील भरे पड़े थे, भैंचो।.."    
          मेरा अपना मानना है, यह वकील और कोई नहीं, यही ये तथाकथित पत्रकार, बुद्धिजीवी जैसे लोग ही हैं..जो केवल अपने-अपने अर्धसत्य को ही सत्य समझ कर समाज के लिए अपने इन अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं...लेकिन यह आम जन चाहे जितना साम्प्रदायिक हो..अपने सत्य की सीमा को जानता है अन्यथा ये तथाकथित अपने-अपने अर्धसत्यों के पैरोकार इस आमजन को कब का अपना मुरीद बना लिए होते..लेकिन आज भी ये तथाकथित बुद्धिजीवी अप्रभावी ही हैं...अगर प्रभावी होते तो इनसे कहीं आगे नेता इन आमजन पर प्रभावी होते दिखाई न दे रहे होते...
          सच तो यह है अपने-अपने अर्धसत्य लिए हुए वकीलनुमा इन बुद्धिजीवियों के कारण ही ये नेता बंटवारे का बीज बोने में सफल हो पा रहे हैं... कारण?
        कारण यही...ये नेता, बुद्धिजीवियों के अर्धसत्य के बाद के बचे सत्य को आईने के रूप में उसी आमजन को दिखाते हैं और उन पर प्रभावी हो जाते हैं...क्यों? क्योंकि जनाब, नेता का यह अर्धसत्य उस आमजन को अपना सत्य प्रतीत होता है और फिर नेता इस सत्य को दिखा दिखा उनका रहनुमा बनता है.. यही बंटवारे की फिलासफी है...इसी अर्धसत्य में अन्याय छिपा होता है... अर्धसत्य की वकालत ही वकील का पेशा होता है, वह इसकी फीस वसूलता है... आज का यह बुद्धिजीवी यही काम कर रहा है.. पत्रकारों का भी सरोकार इसी अर्धसत्य से है....
        एक बात और..समाचार चैनलों का चिल्ल-पों या किसी पत्रकार की "महानता" का इस आम जनता पर कोई प्रभाव वैसा नहीं पड़ता जैसा ये सोचते हैं.. चाहे कोई स्क्रीन काली करे या सफेद... यह भी टीवी शो का फैशन जैसा ही माना जाने लगा है... हो सकता है इस फैशनबाजी के चक्कर में कोई बुद्धिजीवी या पत्रकार महापुरुष जैसा बनता दिखाई दे।
        यहाँ ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने उपन्यास "हम न मरब" में की यह पंक्ति उल्लेखनीय है- 
        
        "चेलों तथा अनुयायियों की भीड़ ही, अंततः हर महापुरुष को खा जाती है।" 
            खैर, मैं यहाँ मानता हूँ कि अगर कोई पत्रकार महापुरुष बनने की राह पर है, तो मान लीजिए उसके चेले और अनुयायी उसे नेता बना रहे हैं, जो आमजनता के किसी अर्धसत्य को उस जनता का सम्पूर्ण सत्य बताते हुए बरगला रहा होगा...हाँ, सत्य को समग्रता के साथ जानने और कहने की कोशिश करने वाला कभी लोकप्रिय नहीं हो सकता है, नेता बनना तो दूर की बात। 
             कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि, किसी भी बात या व्यक्ति को बहुत सिर चढ़ाने की जरूरत नहीं है..चीजें चलती रही हैं चलती रहेंगी..आप केवल वाचर बने रहिए, सबको देखते रहिए, समझते रहिए...अपने अन्दर समझने की "सिर्रीपना" जैसी आदत डालिए...फिर देखेंगे, हर गाँठ सुलझती दिखाई देगी...
नोट - हो सकता है यहाँ उद्धृत विचार मेरा अर्धसत्य हो, इसमें आप अपना सत्य मिलाकर घोल बनाकर इसे समझने का प्रयास करिएगा। 

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