रविवार, 16 अप्रैल 2017

सेल्फी

        इस समय किसी को कुछ समझाना बड़ा मुश्किल काम है, क्योंकि सब सेल्फियाए हुए से हैंं। क्या समझने वाला और क्या समझाने वाला दोनों एकदम सेल्फिश टाइप के हो चुके हैं। ये हाथ में मोबाइल कैमरा लिए हुए जैसे अपने देखने का नजरिया ही बदल डाले हैं, इन्हें केवल अब अपने को ही देखने से फुर्सत नहीं है। ये मोबाइल उठाए जहाँ मन में आए सेल्फी विथ डिफरेंस टाइप का मनमाफिक पोज धारण कर चेहरे को विभिन्न कोणों से विचुकाते हुए आड़े-तिरछे हो सेल्फी वाले कैमरे में निहारते हुए देखे जा सकते हैं।
         सेल्फियाने के बाद इन्हें अपना संसार बड़ा मनमोहक लगता है, बल्कि जीवन और जगत की प्रत्येक वस्तु को सेल्फी के मोड में ही रख कर देखना शुरू कर देते हैं, या उससे अपने को अटैच कर लेते हैं और कैसा भी दृश्य हो उसे बैकग्राउंड में रख झट से कैमरा आन कर एक सेल्फी हो जाए के अन्दाज में प्रकट हो जाते हैं। आशय यह कि पूरी दुनियाँ जैसे इनकी सेल्फी के लिए ही बनी है।
         सच में इस सेल्फी ने देखने का नजरिया ही बदल दिया है, अब लोग अपनी सेल्फी के साथ दूसरों की सेल्फी को केवल इसीलिए निहारते हैं कि अपनी सेल्फी को और चमकदार तथा भव्य बना सकें। मतलब तेरी सेल्फी से मेरी सेल्फी बढ़िया है टाइप का। कई बार ऐसा भी होता है कि एक खासा अच्छा-भला, हँसने-बोलने, मुस्कुराने वाला और दिलदार  इंसान कैमरा देखते ही अपना पोज बदल अचानक सेल्फिया उठता है, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चलने लगी हो और वह किसी किरदार में खो गया हो।
          दिक्कत यही है, सेल्फी रोग से ग्रस्त इंसान हाथ में मोबाइल लिए बस केवल और केवल सेल्फी वाले फोटो के साथ अपने को ही लोगों पर जबरिया प्रक्षेपित करने में मशगूल हो जाता है। एक अजीब से व्यामोह में जैसे फंसा हुआ सा उसे दूसरों की सेल्फी से जैसे अन्दर ही अन्दर चिढ़ सी हो जाती है। अरे भाई! जरा सोचिए, हमें सेल्फियाने का अधिकार है तो क्या दूसरे अपनी सेल्फी नहीं ले सकते..? अपनी ही सेल्फी हम दूसरों पर क्यों थोपें..!
          वैसे यह इस सेल्फी रोग के खतम होने का कोई चांस दिखाई नहीं देता...चलिए तब तक हम अपने-अपने सेल्फी मोड में ही बने रहें। जो सेल्फी नहीं ले सकते उन्हें अपने बैकग्राउंड में रख सेल्फियाते रहें।

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