शनिवार, 23 जुलाई 2016

कुछ इधर की भी

           कभी-कभी मैं व्यंग्य के बारे में सोचने लगता हूँ कि आखिर एक सीधा-सादा और अच्छा-भला लेखक व्यंग्य कैसे लिख मारता हैं ? मुझे लगता है जब साहित्य की अन्य विधाएँ प्रभावहीन (अ-असरकारी) होने लगती है तो साहित्यकार या कहिए लिखने वाले का टोन बदल जाता है। अब वह थोड़े टेढ़े ढंग से अपनी बात कहने लगता है तथा तटस्थ भी नहीं रह पाता और व्यंग्य में चीजों के प्रति प्रतिक्रियावादी भी हो जाता है। जबकि साहित्य की अन्य विधाओं में तटस्थता की माँग रहती है लेकिन व्यंग्य की विधा में ऐसा नहीं हो पाता।
          अब प्रश्न उठता है कि आखिर एक लेखक का लिखते-लिखते टोन कब और क्यों बदल जाता है कि उसकी बातें व्यंग्य में बदल जाती है? अरे भाई! साहित्यकार या लेखक आखिर रोज-रोज की चिक-चिक को ही तो लिखता है और इसी चक्कर में जब वह भावुक होता है तो कविता लिख देता है, जब शान्त-चित्त के साथ तटस्थ-भाव में होता है तो कहानी, नाटक, उपन्यास और आदि-आदि लिख मारता है, और इतना सब करने या सोचने के बाद भी जब यह सारी चिक-चिक जारी रहती है तो वह थोड़ा गुस्से में आ जाता है, हाँ लेखक नामक जीव जी इतने सभ्य होते हैं कि इस रोज-रोज की चिक-चिक से उपजे गुस्से को सीधे नहीं व्यक्त कर सकते जैसा कि कुछ फेसबुकिए मन की न होने पर गुस्से में सीधे गाली-गलौज पर उतर आते हैं, लेकिन ये लेखक बेचारे बेहद सभ्य जीव होते हैं तो अपने गुस्से को टेढ़े ढंग से व्यक्त करना आरंभ कर देते हैं और बदले में हम पाठकों को व्यंग्य पढ़ने को मिल जाता है। हाँ एक बात है, अब लेखक व्यंग्य लिखते हुए इतने गुस्से में होता है कि वह तटस्थ रह ही नहीं सकता! खैर.. उसके गुस्से को पढ़ते हुए हमें तो मजा ही आता है।
          इस पर हम अलग से विचार कर सकते हैं कि व्यंग्य एक क्षोभजनित-कारूणिक गुस्सा भर होता है, मतलब व्यंग्य में प्रकारांतर से करुण-रस की ही प्रधानता होती है, लेकिन जगत के लिए इस कल्याणकारी-रस से बेचारा व्यंग्य-लेखक अनजान ही रहता है और वह नहीं जानता कि वह रो रहा है! हाँ पाठक के साथ ही व्यंग्य सुननेवाला भी अब तिलमिलाता नहीं बल्कि इसी बात का मजा लेता रहता है। खैर... व्यंग्यकार की एक मान्यता यह भी रहती है कि बेटा तुम नहीं तो ऊपरवाला एक न एक दिन सुनेगा ही और शायद यह चिक-चिक खतम हो जाए।

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