शनिवार, 23 जुलाई 2016

अपनी बातों का गुमान न पालें

            वैसे हम सब के आसपास की दुनियाँ खूबसूरत है, हो सकता है इस दुनियाँ में रोजमर्रा की समस्याएं हो या फिर एक आम-इंसान की जिन्दगी में होनेवाली जद्दोजहद भी हो, लेकिन इससे जिन्दगी बदसूरत नहीं हो जाती।
           फिर समस्या कहाँ है कि इतना हो-हल्ला मचा हुआ है? मीडिया में घुसते ही ये चीजें दिखाई देने लगती हैं ; दुनियाँ जैसे रहने लायक ही नहीं दिखती। कश्मीर, फ्रांस, टर्की, कंदील बलोच, आई एस आई और ऐसे ही न जाने क्या-क्या अगवा-भगवा घटता हुआ दिखाई देता है.. उस साधारण संवेदनशील बेचारे इंसान के मन-मस्तिष्क पर क्या गुजरती होगी जो इसी मीडिया में ही खोया रहता होगा? वह तो इसी में उलझ जाता होगा, या फिर उसे यह दुनियाँ दोजख नजर आएगी या वह भी इधर या उधर हो रहा होगा।
           न दुनियाँ के दोजख नजर आने से समस्याएँ हल होंगी और न ही इधर-उधर होने से। हाँ इस वेगवती मीडिया की धारा की लहरों को देखने से इतना तो निश्चित ही हो जाता है कि इतनी सब समस्याओं के बाद भी यह दुनियाँ लोगों की नजरों में अभी दोजख नहीं बनी है। हाँ इधर-उधर हो जाने का ट्रेंड जरूर दिखता है। कोई एक समस्या या बात दिखी नहीं कि इसे लोकने के लिए लोग तैयार बैठे दिखाई देते हैं। अब इस लोका-लोकी के खेल में हम-आप दोनों ओर की संख्या गिन सकते हैं, लेकिन फिर भी कोई समस्या आउट होते हुए नहीं दिखाई देती। आखिर ऐसा क्यों है?
          यह तो तय है संख्या किसी समस्या को हल नहीं करती नहीं तो अरबों की संख्या वाली इस दुनियाँ में ये समस्याएँ भी न होती बल्कि संख्या समस्याओं को और बढ़ा देती है या संख्याओं से आप गुमराह होते रहते हैं। अब यह कैसे? वह ऐसे कि भाई किसी बात के पक्ष में आपके पास हजार तर्क हैं तो आपके सामने वाला इसके विरोध में दस हजार तर्क लिए बैठा है, फिर तो, कर लीजिए समस्या का हल! मतलब अब बातें केवल पार्टीबन्दी का खेल बन चुकी हैं।
           हाँ, इस सब के बावजूद एक बात जरूर हुआ वह भी इस सोशल मीडिया के आने के बाद कि अब आप कोई बात कह के निकल नहीं सकते, गलत या सही, आप धर लिए जाएंगे और कोई आपको छोड़ने वाला नहीं है, लोग आप की ताक में बैठे हैं! तो भाई, भलाई इसी में है कि अपनी बातों का गुमान न पालें, मतलब कोई बात चबा-चबा कर न कहें नहीं तो इससे लोग और बिगड़ जाते हैं! फिर होता यह है कि चले थे आप दुनियाँ बनाने लेकिन बनाने के चक्कर में दुनियाँ को खराब करने लगते हैं।
          लेकिन अच्छा हो रहा है या नहीं हम क्या जाने ? हाँ, हो सकता है दुनियाँ में जो कुछ खराब हो रहा है उसे हम-आप चुपचाप जानते हों, और इसी से यह दुनियाँ दोजख बनने से भी बची रहती है! इसके लिए किसी मीडिया, किताब, पत्र जैसी चीज की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि यह प्यारी सी दुनियाँ इसके पहले भी थी, बल्कि पहले थी ही नहीं आज से ज्यादा प्राकृतिक और खूबसूरत थी। नहीं तो हम आज सभ्यता का दंभ भरने के लिए न होते!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें