शनिवार, 19 मार्च 2016

बस यूँ ही !

               इस छोटे से आर्टिकल में लिखा है "समय और गति के सिद्धांत के अनुसार अगर दो वस्तुएं अलग गति से घूम रहे हैं तो जो धीरे घूम रहा होगा उसके लिए समय ज्यादा तेजी से गुजरेगा" इसे पढ़ते ही मुझे मेरा अपना वह अनुभव या एहसास याद हो आया-
              ...कई बार तेज गति से चलते हुए मुझे घड़ी की सूईयाँ स्थिर सी लगती हैं, यानी जैसे समय ठहरा हुआ दिखाई देने लगता है! हो सकता है यह केवल मनोवैज्ञानिक अनुभव हो, लेकिन इसका कोई अर्थ तो है ही।
           वास्तव में मैं भी मानता हूँ कि समय का पैमाना घड़ी की सूईयाँ नहीं होती बल्कि समय और कुछ नहीं केवल गति का ही नाम है। मतलब जब आप स्थिर होते हैं तो आप के आसपास की सारी चीजें गुजर रही होती हैं और तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे समय गुजर रहा है, लेकिन जब आप गतिशील होते हैं तो लगता है आप समय के साथ हैं, तब समय आपके लिए स्थिर हो जाता है।
           इसे आप गतिशील बस के उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं ; आप बस के बाहर खड़े होते हैं तो बस गुजरती हुई दिखाई देती है और जब आप इस बस पर सवार होते हैं तो यही बस आपके लिए स्थिर हो जाती है।
          शायद समय और स्पेस, इस गति में ही उलझे हुए हों और इसी में ब्रह्मांड का रहस्य भी छिपा हुआ हो सकता है.! लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि गति ही जीवन है, यही समय भी है। गति में समय स्थिर हो जाता है। यह गुजरता हुआ समय मृत्यु है क्योंकि तब गति नहीं होती केवल समय गुजरता है।
           यहाँ एक रहस्य और है यदि आप समय का एहसास करना चाहते हैं तो स्थिर होना पड़ेगा मृत्यु से गुजरना पड़ेगा जैसे कि यह ब्रहमाण्डीय नियम! हाँ सृष्टि का आभास स्थिरता का ही आभास है। ग्रह, नक्षत्र और ये तारे ब्रहमाण्डीय स्थिरता के परिणाम हैं। वैसे ही जैसे उर्जा संघनित होकर पदार्थ बन जाता है मतलब पदार्थ बन जाना ही स्थिरता है। और समय का अस्तित्व मात्र पदार्थों के लिए ही होता है या समय का अस्तित्व है भी तो इन पदार्थों के रूप में ही। जहाँ पदार्थ नहीं वहाँ समय नहीं।
          यहाँ एक विशेष बात है ब्रहमाण्डीय गति ही चेतना होती है समय पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि सब कुछ इसी में निहित है और इसी में अनन्त संभावनाएं भी छिपी होती है। वैसे यह विषय बहुत जटिल और गूढ़ रहस्य समेटे है इसकी व्याख्या में कभी-कभी ऐसा भी होता है जैसे जहाँ से शुरू किए थे वहीं फिर पहुँच रहे हैं। लेकिन व्याख्या आगे भी जारी रहेगी।
        फिलहाल हमें सदैव गतिशील रहना चाहिए, चेतन रहना चाहिए तभी हमारे अन्दर अनन्त संभावनाएं होंगी और यह गतिशीलता विचार, कर्म जैसे सभी क्षेत्रों में होनी चाहिए। अन्यथा स्थिरता माने पदार्थ बन जाने का क्या का हश्र होता है हम समझ गए होंगे।

देश के लोगों को ऐसे लोगों के "मूड" से आजादी कौन दिलाएगा..?


               पंजाब नेशनल बैंक की एक शाखा से ATM कार्ड निर्गत कराना था। असल में इसी शाखा से पूर्व में जारी ATM कार्ड कहीं खो गया था। कुछ दिनों पहले सम्पर्क करने पर बैंक ने ATM कार्ड की अनुपलब्धता बताई और भविष्य में सम्पर्क करने की बात कहा था।
           उस दिन ATM के लिए बैंक में पुनः जाने पर किसी महिला अधिकारी के अवकाश पर होने की बात कहते हुए दूसरे दिन आने के लिए कहा गया। दूसरे दिन बैंक फिर जाना पड़ा। मैंने ATM फार्म भर इसे एक अधिकारी को देते हुए कार्ड निर्गत करने का अनुरोध किया। उस बैंक अधिकारी ने मुझे यह कहते हुए कि आज भी वह महिला अधिकारी नहीं आई हैं, अगले दिन आने के लिए कहा। फिर मैंने अनुरोध पूर्वक उस बैंक अधिकारी से वार्ता किया -
          "देखिए मैं कल भी आया था। और आज भी वही बात कही जा रही है! मेरे लिए इतनी दूर से आना सम्भव नहीं होता..."
           तब उस बैंक अधिकारी ने मुझे कुछ देर रूकने के लिए कहा। मैं प्रतीक्षा करने लगा था। इस बीच वे महोदय अपना काम निपटाते रहे। करीब बीस-पच्चीस मिनट बाद मुझसे मेरा फार्म लेकर ATM निर्गत करने की कार्यवाही सम्पन्न किए।
ATM का लिफाफा हाथ में आते ही मुझे ध्यान आया कि मेरे मोबाइल पर sms alert नहीं आता। मेरे इस अनुरोध पर उस बैंक अधिकारी ने कहा कि बिना sms alert के ATM activate नहीं होगा साथ ही इसके लिए एक प्रार्थना-पत्र देने के लिए कहा। मेरे प्रार्थना-पत्र देने पर कम्प्यूटर पर कुछ क्षणों तक उलझने के बाद उसने मुझसे निवास और पहचान प्रमाणपत्र देने के लिए कहते हुए मुझे अवगत कराया कि पहले से मेरा पता अंकित नहीं है। हालांकि मैंने उसे इस तथ्य की जानकारी दी कि पूर्व में मेरे द्वारा सारी औपचारिकताएं पूरी की गई थी। फिर भी उसके कथनानुसार मतदाता पहचान-पत्र और पैनकार्ड दिखाने पर उसने इसके फोटोकॉपी देने के लिए कहा। करीब दस मिनट बाद मैं पुनः फोटोकॉपी लेकर उसके पास पहुँचा तब तक वह दूसरे कार्यों में व्यस्त हो चुका था। मैं उसकी व्यस्तता समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा था। इस बीच किसी फोन के आने से वह कुछ परेशान हो उठा था। शायद उसके कम्प्यूटर सिस्टम में कोई खराबी थी जिसे ठीक करने के निर्देश कोई फोन पर दे रहा था। खैर, कुछ मिनटों बाद वह सामान्य होकर पुनः काम निपटाने लगा था। इधर वहाँ बैठे-बैठे मुझे काफी समय हो चुका था। अपने अन्य कार्यों का ध्यान आते ही मैंने उसके "मूड" को सामान्य पाकर sms alert के प्रार्थना-पत्र को उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा-
          "कृपया इसे भी देख लें" उस कागज को लेकर इसे देखते हुए कम्प्यूटर पर मेरा काम करना शुरू किया ही था कि अचानक फिर न जाने उसके मन में क्या आया मेरे आवेदन-पत्र को किनारे रखते हुए मुझसे बोला-
"ऐसा है, इसे मैं बाद में कर दुँगा, अभी अन्य काम निपटा लें।" और यह कहते हुए वह उठ गया लेकिन मैं वहीं बैठा रहा। इस बीच मुझे ध्यान आया कि ऐसे ही एक बार एक अन्य बैंक में "के वाई सीे" की सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद भी मुझे इस सम्बन्ध में उसी प्रपत्र को दुबारा भर कर देने के लिए कहा गया था, क्योंकि पहले भर कर दिया गया प्रपत्र बैंक कर्मियों द्वारा ही कहीं "मिसप्लेस" हो गया था। हालांकि इस सम्बन्ध में मेरे दो दिन बर्बाद हुए थे। आज इस बैंक में भी उसी कहानी को फिर दुहराया जाता देख मैं उस बैंक अफसर के वापस आने का इन्तजार किया और कुछ क्षणों बाद उसके वापस आने पर मैंने उससे पूँछा -
                 "क्या मेरे जाने के बाद भी मेरा काम हो जाएगा?"
            "कह नहीं सकते, हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। और आपको फिर आना पड़ सकता है।" उस बैंक अधिकारी ने उत्तर दिया था।
              "हो क्यों नहीं सकता?" उसके दिए उत्तर पर मैंने थोड़ा असहज होते हुए यही पूँछा था। क्योंकि, मैं जानता था कि मेरा यह काम उसके लिए मात्र तीन या चार मिनट का ही था और जिसे एक बार शुरू करके न जाने अपने किस "मूड" के कारण उसने रोक दिया था। मैंने सोचा यदि यह बैंक अधिकारी मेरी उपस्थिति में इस कार्य को सम्पन्न कर लेता तो कम से कम इसके लिए दुबारा नहीं आना पड़ेगा। लेकिन उसने यह कहते हुए "इस क्यों का उत्तर मेरे पास नहीं है..!" मुझे रूखेपन से पुनः जवाब दिया था।
             वास्तव में, उसके इस रूखेपन और गैरजिम्मेदाराना उत्तर से मैं थोड़ा खीझते हुए बोला- "काम करने के लिए ही तो बैठे हो, और थोड़ा ढंग से बात किया करो?" मेरे यह कहने पर उसने मुझसे कहा, "मुझे गोली मार देना।" उसकी इस बात पर मेरे समझ में नहीं आया कि मैं उसे क्या कहूँ। लेकिन फिर भी मैंने उससे कहा, "देखो तुम्हारी व्यर्थ की बातें मुझे नहीं सुनना...यहाँ इतनी ज्यादा पब्लिक डीलिंग भी नहीं कर रहे हो कि छोटी-छोटी बातों पर झल्लाओ, मुझे अपने काम से मतलब है।" मैं उससे और ज्यादा उलझना नहीं चाहता था और वहाँ से उठ कर चल दिया। जाते-जाते कानों में उसकी आवाज सुनाई पड़ी "करने के लिए ही तो इस कागज को रखा हूँ।" मैं बैंक से बाहर आ चुका था।
              बाहर आकर मैं सोचने लगा। इस देश में कुछ होना या करना बहुत कुछ लोगों के "मूड" पर निर्भर करता है। जैसे उस बैंककर्मी का यदि "मूड" हुआ तो आपका काम कर देगा और यदि उसका "मूड" नहीं हुआ तो आप दौड़ते रहिए चाहे आपका समय क्यों न बर्बाद होता रहे। यही स्थिति अन्य स्थानों, कार्यालयों की भी हो सकती है। हाँ, एक बात है आम-आदमी के तरीके से पेश आने के कारण मैं अपना काम कराने के लिए उसका "मूड" नहीं बदल पा रहा था। उसने शायद इसे भाँप भी लिया था। एक तो यही कि उस बैंक के मेरे खातेे में मात्र दो-चार हजार होने से उस बैंक का कौन सा बिजनेस चलता? और दूसरे शायद उसे मुझमें वह क्षमता नहीं दिखाई दी होगी जो उसके "मूड" को बदल देती। यहाँ यह भी विचारणीय है कि ऐसे ही "मूड" वालों से सरकार की "जनधन योजना" कैसे चलती होगी?
             मैंने सुना है कि यही बैंक वाले बड़े-बड़े आसामियों को लाल कालीन विछा कर कर्ज देते हैं चाहे कर्ज लेकर वह फरार ही क्यों न हो जाए! बात केवल विजय माल्या की ही नहीं है, ये बैंकवाले करोड़ों रुपए का कर्ज ऐसे व्यक्तियों को बिना परिसम्पत्ति सृजित हुए दे देते हैं जिसे वसूलने का साहस ही इनमें नहीं होता! पता नहीं वहाँ इनका कौन सा "मूड" काम करता है? हाँ एक बात और है, अपनी उस करोड़ों की राशि को भूल यही बैंकवाले छोटे-छोटे किसानों या छोटे-मोटे काम करने वाले गरीबों को NPA हो जाने का रोना रोते हुए कर्ज देने से मना कर देते हैं।
             हाँ, देश के लोगों के इस "मूड" का क्या कहना! सभी अपने मूड के अनुसार ही तो चल रहे हैं। जिसका जो "मूड" है लिख, बोल और कर रहा है। जैसे, कोई देखने वाला ही नहीं..! देखेगा कौन? देखने वालों को भी ये "मूड वाले" अदना ही मानते हैं। वैसे बैंक से लौटकर जब मैंने अपनी पत्नी से इस घटना का जिक्र किया तो उन्होंने मुझसे कहा-
             "देखिए! ऐसे लोगों को वाकई चार बात सुना देना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर बतकही जैसी लड़ाई से भी संकोच नहीं करना चाहिए, तभी इन्हें एहसास होगा। ये हमारा ही टैक्स खाते हैं और हमारे ही काम पर आनाकानी करते हैं?" खैर... मुझे लगता है हमारा यह अन्यायपूर्ण सिस्टम ही बहुत सारे माफिया और गुंडे पैदा कर देता होगा और जिनको देखकर अच्छे-अच्छों का "मूड" ठीक हो जाता होगा।
                काश! वो JNU वाले देश को इस "मूड" से आजादी दिलाने की लड़ाई लड़ रहे होते..?

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

अब तो मैं भी देशद्रोही हूँ..

अब इतना भी देशभक्ति-देशभक्ति की बात न करें नहीं तो इसका अर्थ ‘आजादी पर प्रतिबन्ध’ मान लिया जाएगा! और फिर क्या होगा..? तब इस आजादी को अनिर्बन्ध करने के लिए मैं तो यही चाहता हूँ..वास्तव में किसी भी तरह की सीमाओं से परे होना ही आजादी है और आप हैं कि देशभक्ति की बात कर सब कुछ सीमाओं में बाँध देना चाहते हैं! नाहक ही किसी को सैनिक बनाकर उसकी जान का सौदा देशभक्ति की धार पर करते हैं ! इतना तो तय है देशभक्त बनने के लिए पहले आप देश बनाते हैं फिर देशभक्ति की बात करते है।अतः स्पष्ट है इस देशभक्ति की जड़ देश नामक तोते में ही है। तो आइए इस आजादी को पाने के लिए पहले इस तोते की गर्दन मरोड़ दें क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बाँसुरी! वैसे भी आप देश कब थे ही..?
अच्छा..!! इस पर और ध्यान चला जा रहा है..देश होने से संविधान होता है और संविधान के अपमान से भी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता है तथा इस बेचारे से देश का कोई इसका झंडा भी होता है।फिर तो इसके मान-अपमान के जड़ में यही कलमुहें होते हैं! और देशभक्ति पर चोट पहुँचना स्वाभाविक हो जाता है। इस चोट से उबरने के लिए देशद्रोह की बात भी उभर आती है, फिर यहीं से शुरू हो जाती है आजादी पर खतरे की बात !! हाँ आजादी ही सबसे बड़ी प्यारी चीज है और एक आप हैं कि देश बनाकर इसकी सीमाओं पर सैनिक भेज इस पवित्र और हम लोगों की परमप्रिय आजादी को खतरे में डाल रहे हैं? आखिर क्या..इस आजादी को खतरे में डालने के लिए ही हमने इसे अंग्रेजों से छीना था..? तो आइये! इस कल्मुहें देश और इसके संविधान दोनों को ख़तम करें तभी हमारी आजादी सुरक्षित होगी। इसके बाद कोई किसी को देशद्रोही भी सिद्ध नहीं कर पाएगा।
वैसे भी हम देश कब थे ही? देश का मतलब हम अभी तक जान ही नहीं पाए हैं। देश हमारे लिए मात्र ‘डेस्टिनेशन’ था है और रहेगा। मैं तो कहता हूँ इंशाल्लाह इसके सौ नहीं कम से कम हजार से कम टुकड़े से नहीं होने चाहिए। और देख लेना इस देश के न रहने पर हमारा अपना-अपना ‘डेस्टिनेशन’ तब भी आबाद रहेगा जैसे आज है। आप समझे नहीं, अरे भाई! बभनान, तिवरान, पड़ान, शुक्लान, मिश्रान, ठाकुरान, अहिरान, कैथौली, कुर्मियान, चमरौटी, पसियान, गडेरान, हिन्दुआन, मुसलमनान ये बस्तियाँ हैं कि नहीं..? और यही आप का अपना-अपना ‘डेस्टिनेशन’ भी है। मैं दावे के साथ कहता हूँ आपने देश बना लिए और संविधान बना लिए लेकिन फिर भी ऐसे "डेस्टिनेशन" पर कोई खतरा नहीं मंडराया और लोग अपने-अपने डेस्टिनेशन में ही स्वयं को सुरक्षित भी महसूस करते आ रहे हैं। फिर देश और संविधान की कोई आवश्यकता ही नहीं थी जब हमें अपने डेस्टिनेशन में ही रहना था? अगर मेरी बात आपको गलत लगे तो चले जाइए दूसरे के 'डेस्टिनेशन' में! आप दूसरों के लिए बेगाने होकर ‘ब्लाक’ जैसे हो जायेंगे। मैंने देखा है प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने डेस्टिनेशन में ही अपनी आजादी का अनिर्वचनीय आनंद उठाता है।तो आइए इस देश को समाप्त कर अपने-अपने 'डेस्टिनेशन' में अपनी-अपनी आजादी का भरपूर लुत्फ़ उठाएँ!
हाँ जब देश ख़तम होगा और आप अपने-अपने ‘डेस्टिनेशन’ में होंगे तब आपको इसके लिए कोई संविधान बनाने की आवश्यकता भी नहीं होगी क्योंकि वहाँ आपको यह पहले से ही बना बनाया मिलेगा। जैसे हम हिन्दू हैं तो मनुस्मृति या वेद हैं, नहीं तो हमारा ब्रामणवाद तो पहले से ही है! यदि इससे कोई संतुष्ट नहीं है तो अपने-अपने जातिस्थान जैसे ‘डेस्टिनेशन’ में हम दूसरों के जुल्मों-सितम से बचे रहेंगे। इसी तरह से मुसलमान भाइयों के लिए इस्लाम के क़ानून तो पहले से ही बने बनाए हैं, बात समझ गए न!! आप भी ख़ुशी से अपने शरिया क़ानून लागू करिए। मतलब अब आपका डेस्टिनेशन और आपका कानून! किसी और से इसके लिए हुज्जत करने की कोई जरुरत नहीं!! और फिर इन संघ वालों की भी दुकानदारी बंद..!!!
लेकिन इन सबके बीच देश ख़तम हो जाने से मुझे बुद्धिवादियों की सबसे अधिक चिंता सताने लगी है क्योंकि तब इनका ‘डेस्टिनेशन’ कहाँ होगा..? हो सकता है कुछ बौद्धिक अपने-अपने ‘खून-ए-जिगर’ के साथ हों ले और वहाँ अपना ज्ञान बघारें। लेकिन यहाँ थोड़ी चिंता हो रही है क्योंकि कहीं तब भी उनकी जान खतरे में न पड़ जाए? अरे आप ने देखा नहीं है, भाइयों-भाइयों में ही तो असल झगड़े की जड़ छिपी होती हैं अगर ऐसा न होता तो आपस में मारकाट मचाते इतने देश न होते ! फिर तो यह ‘डेस्टिनेशन’ भी उन बुद्धिजीवियों पर भारी पड़ सकता है। लेकिन हमसे क्या मतलब मुझे भी तो अपने ही ‘डेस्टिनेशन’ में रहना है...! लेकिन अब मजे की बात यह कि ऐसी स्थिति में ‘कामरेड’ या जे. एन. यू. टाइप के बुद्धिजीवियों के लिए ‘डेस्टिनेशन’ तलाशने में है..!! ये बेचारे कहाँ रहेंगे..? अब सोबियत संघ तो बचा नहीं, ले दे कर चीन ही इनका माई बाप हो सकता है। लेकिन ये वहाँ भी रहने से रहे, क्योंकि चीन की हालत तो हम सब समझते है। वहाँ इन बेचारों की आजादी वाली आकांक्षा कहीं थ्येन-आन-मन चौक की तरह टैंकों के तले न कुचल दी जाए..? अब हांगकांग भी तो ब्रिटेन का नहीं है और हो भी तो जब देश नहीं रहेगा तो भी वहाँ बैठकर किसके विरुद्ध राग अलापेंगे..? और यहाँ ये जे.एन.यू. भी तब कहाँ रहेगा कि कोई वी. सी. इन्हें सरक्षण देगा, तब तो उस वी.सी. की भी नौकरी नहीं रहेगी क्योकि देश नहीं तो इनको कोई सब्सिडी देनेवाला नहीं। हाँ, फिर तो भाई लोगों की सारी ‘कामरेडी’ धरी रह जायेगी!
एक बात और है जैसे आज ‘देशभक्तों’ की हालत है वैसे ही इन ‘कामरेडों’ की भी..। ये सिद्धांत तो देते हैं लेकिन चले जाएँ किसी दूर दराज के माफियाओं के इलाके में..!! इनका सारा समाजवाद और मार्क्सवाद हवा हो जाएगा! वहाँ से कामरेडी झाड़कर सही सलामत लौट आयें तो बहुत बड़ी बात है। ये बस केवल कामरेडी ही झाड़ना जानते हैं कुछ कर पाना इनके बस में नहीं है। यदि ये कुछ करना जानते होते तो जे.एन.यू. से निकल कहीं मौज न मना रहे होते। ये बस गरीब आदिवासियों के कन्धों पर ही बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं और चलाना भी नहीं उन्हें उकसा कर मरने के लिए अकेले ही छोड़ देते हैं। हाँ, उसी तरह से जैसे ये देशभक्त हैं जो सैनिकों को देश की सीमा पर भेज इन गुंडों, माफियोओं, नौकरशाहों, दलालों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं!! इन सब की नीयत ठीक नहीं है...!
अंत में मैं यह चाहता हूँ इन सब जाहिलों, काहिलों के लिए किसी देश की जरुरत नहीं है, देश किसी के लिए मौज मनाने की जगह नहीं होता! वैसे भी इन सबके अपने-अपने ‘डेस्टिनेशन’ तो हैं ही!! तो इन्हें वहीँ पर अपनी आजादी के साथ जश्न मनाने के लिए छोड़ देना चाहिए...! अब मुझे भी कोई देशद्रोही समझे तो समझे...मैं अपने 'डेस्टिनेशन' में हूँ..हाँ मैं भी देशद्रोही हूँ..!!!!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

एक अभिशप्त देश!

कुछ लोग कहते हैं कि अमेरिका और यूरोप के संस्थानों में ऐसे बौद्धिक क्रियाकलाप होते रहते हैं जो वहाँ की लोकतांत्रिक परिपक्वता को प्रदर्शित करते हैं। भाई मेरे, ऐसा कह शायद आप भी ऐसी ही अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं।

तब तो आपको इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि अति बौद्धिक बनकर आप तो पूर्ण स्थिति-प्रग्यता को प्राप्त कर चुके हैं ; जहाँ आप अपनी बर्बादी से भी अप्रभावित रहते हैं। लेकिन आजादी के पैंसठ सालों के बाद भी आम नागरिकों को आपने इस योग्य बनाया ही नहीं कि इनका भी आप जैसा ही बौद्धिक स्तर होता! और ये भी आपके विमर्श को समझते।

लेकिन, वे बेचारे तो आपके बहकाव में मात्र वोट-बैंक बन कर ही रह जाते हैं और आपके किसी विमर्श का हिस्सा तो वे बन ही नहीं पाते! ऐसे में राजनीतिक रोटी की छीना-झपटी तथा कोई देशद्रोही तो कोई देशभक्त सिद्ध होता ही रहेगा। और! आप इस या उस ओर के बौद्धिक जमात के लोग! खिसियानी बिल्ली जैसा खम्भा ही नोचते रहेंगे।

यह देश बेचारा! अपने शेष अबौद्धिक जमात के साथ आपके ऐसे ही पापों को ढोने के लिए अभिशप्त तो है ही।

सोमवार, 18 जनवरी 2016

हम हैं कि गिनती करने में ही व्यस्त हैं!

         यदि सोशल मीडिया पर हम अपने फॉलोअर और अपनी अभिव्यक्तियों पर दूसरों के लाइक, कमेन्ट गिनेंगे तो निश्चित रूप से हमारी अभिव्यक्तियाँ पूर्वाग्रही होंगी।
        लेकिन हम सोशल मीडिया पर होते हुए अपने को किसी निश्चित विचारधारा, समुदाय या वर्ग का मानते हैं ; फिर तो यह प्रवृत्ति चल जाएगी क्योंकि तब हम किसी समुदाय या वर्ग या फिर किसी खास उद्देश्यों को लेकर काम कर रहे होते हैं, ऐसे में गिनना स्वाभाविक है और कम से कम गिनकर समझ लेंगे कि हमसे कितने लोग इत्तफाक रखते हैं तथा प्रसन्न हो लेंगे फिर दूसरों पर गिनती की अपनी धाक भी जमेगी।
         अब यदि हम अपने को समाज का निष्पक्ष आलोचक मानते हैं तो सोशल मीडिया पर अपने लिए ऐसी गिनती करना समाज के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि तब हमारी अभिव्यक्तियाँ इसी गिनती से प्रभावित होती है। सोशल मीडिया पर कुछ खास विचारों या विश्लेषण पर किए गए लाइक, कमेंट की संख्या देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इस संख्या में हमें स्पष्ट रूप से वर्ग भेद या ध्रुवीकरण जैसी स्थिति दिखाई देने लगती है जो सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करती। भारत जैसे बहुभाषी, बहुधार्मिक देश के लिए यह प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है। यहाँ गिनती के प्रति नहीं बल्कि समान दृष्टि और निष्पक्ष विचारों के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए, अन्यथा हम गिनती करने वाले लोग किसी मुद्दे पर क्षणिक राजनीतिक उठापटक मचाकर चर्चित होने का तमगा तो हाँसिल कर लेंगे लेकिन राष्ट्र को स्थाई दिशा देने में असफल ही रहेंगे।
        हमें कबीर वाली दृष्टि चाहिए; जो कबीर के इतने वर्षों बाद आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन हम हैं कि गिनती करने में ही व्यस्त हैं!

यह आबोहवा..!

           मेरे गन्तव्य का एक तिहाई दूरी तय कर चुकने के बाद बस अपने उस अड्डे से चलने ही वाली थी कि अचानक एक सत्ताईस-अट्ठाईस साल के नौजवान ने मुझे नमस्कार किया। मैं उसे पहचान नहीं पाया। फिर उसने अपना परिचय दिया -

         "सर आप ने पहचाना नहीं? चुनाव के दौरान आपने मेरी पत्नी की ड्यूटी काटी थी.. "

        मैं उसका मुँह देखने लगा था। उसने फिर कहा-

        "मेरी पत्नी टीचर है उस दिन उसे चुनाव ड्यूटी पर जाना था लेकिन उसे मधुमक्खी ने काट लिया था.. मैंने आपसे उसकी ड्यूटी काटने के लिए अनुरोध किया था और आप ने उसकी ड्यूटी काट दी थी.."

        हालाँकि, उस दौरान मैंने कुछ लोगों की समस्याग्रस्त परिस्थितियों के दृष्टिगत उन्हें चुनाव कार्य से विरत किया था लेकिन मधुमक्खी काटने के कारण किसी को इस ड्यूटी से मुक्त किया किया हो यह बात मुझे पूरी तरह से याद नहीं थी, फिर भी उस युवक का मान रखने के लिए मेरे मुँह से निकला-

       "हाँ..हाँ... याद आया...मैंने ड्यूटी काटी थी..!"

         इसके बाद वह युवक आकर मेरे बगल की खाली सीट पर बैठ गया। शायद उसे मेरी सहजता प्रभावित कर रही थी। बस इस छोटे से शहर के टूटे-फूटे सड़क पर हमें हिचकोले खिलाते हुए चल चुकी थी। हम दोनों के बीच कुछ क्षणों के मौन को तोड़ते हुए युवक ने हमसे कहा -

         "सर, आपसे एक सलाह लेना चाहता हूँ..यदि आप..?"

         मैंने बिना उसकी ओर देखे बोला-

        "पूँछो..पूँछो..! कोई बात नहीं.." बाहर बस की खिड़की से झाँकते हुए ही मैंने कहा।

         "सर, बात यह है कि मेरी पत्नी का आयकर विभाग में स्टेनोग्राफर के पद पर भी चयन हुआ था और आजकल वह वहीं काम भी कर रही है लेकिन इधर प्रशिक्षु शिक्षक की अवधि पूरी होने के बाद शिक्षक पद पर भी नियुक्ति होनी है.. उसे दोनों में से किस नौकरी में जाना चाहिए?" 

        युवक की इस बात से उसकी द्वन्द्वात्मक परिस्थिति का आभास कर मैंने उस बेचारे को सलाह देने के लिए उत्साहित हो उसकी ओर देखा। मुझे उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। फिर उसे चिन्तामुक्त करने की गरज से मैंने सलाह देने के अन्दाज में कहा- 

       "देखो, प्राइमरी टीचर की नौकरी उस स्टेनोग्राफर की नौकरी से बेहतर तो है ही; एक तो टीचर में वेतन भी अधिक होगा और दूसरे छुट्टियाँ भी मिलती रहेंगी, महिलाओं के लिए टीचर की नौकरी ही सबसे बढ़िया होती है।"

        "यही तो मैं भी कह रहा था सर! इसमें वेतन तो अधिक है ही परिवार और आगे बच्चों के देखभाल के लिए भी समय मिल जाएगा।" युवक ने मेरी ओर देखते हुए कहा।

         युवक के अनुसार उसकी पत्नी स्टेनोग्राफर की ही नौकरी करना चाहती है, बहुत समझाने पर शिक्षिका की नौकरी के लिए मन बना रही है। लेकिन उसके पिता अपनी बहू अर्थात उसकी पत्नी को आयकर विभाग में ही स्टेनोग्राफर की नौकरी कराने पर तुले हुए हैं। वह पत्नी की सहमति से अपने पिता को बताए बिना उसके टीचर पद पर नियुक्ति हेतु काउंसिलिंग के प्रमाण-पत्र जमा करने आया था जिससे किसी विद्यालय में उसके पत्नी की नियुक्ति हो सके। उस युवक की बातों से मुझे लगा कि उसकी पत्नी ने भविष्य में स्वयं के आयकर अधिकारी बन जाने की बात घरवालों को समझा रखा है। जब मैंने बताया कि स्टेनोग्राफर का प्रमोशन अधिकारी में नहीं हो सकता तो फिर उसने विभागीय परीक्षाओं का हवाला दिया। अब मैं समझ गया था कि स्वयं उसकी पत्नी प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका नहीं बनना चाहती है।

          इसके बाद मैंने पूँछा, "क्या तुम्हारी पत्नी किसी बड़े शहर मैं नौकरी कर रही है?" युवक ने हामी भरी। और आगे उसने बताया कि स्टेनोग्राफर की इस नौकरी में उसे सुबह निकलना होता है और कभी-कभी तो लौटने में देर शाम भी हो जाती है। 

         मैंने कुछ सोचते हुए उससे पूँछा, "इसका मतलब तुम्हारी पत्नी शहर में रहना चाहती है, टीचर वाली यह नौकरी तो गाँवों के लिए है!"

         "जी सर, आपने सही कहा, वह शहर में ही रहना चाहती है, लेकिन सर! यह बताइए स्टेनोग्राफर को तो साहबों के साथ कभी-कभी दूसरे शहरों में भी दौरा करना पड़ सकता है तथा अपने साथ वे देर तक काम करने के लिए भी रोक सकते हैं?"

         जब मैंने यह कहा "हाँ यह भी हो सकता है" तो थोड़ा चिन्तित होते हुए वह बोला, "ऐसे में हमारे और पत्नी के बीच टकराव हो सकता है..रिश्तों में खटास..!"

       मैं समझ गया कि यह मुद्दा उसके लिए बहुत संवेदनशील है इसे कुरेदना उचित नहीं है। फिर मैं उससे बोला-
      
      "हो सकता है तुम्हारी पत्नी स्कूल के छोटे बच्चों का नाक न पोंछना चाहती हो लेकिन तुम अपनी पत्नी को यह समझाओ कि स्टेनोग्राफर की नौकरी में सदैव शहर में ही रहना पड़ेगा और घर के लिए छुट्टियाँ भी टीचर की अपेक्षा कम ही मिल पाएगी तथा शहरों के प्रदूषण से आदमी बीमार भी हो जाता है.. जबकि टीचर की नौकरी गाँव में ही करनी है जहाँ शुद्ध आबोहवा भी मिलेगी, और अगर छोटे-छोटे बच्चों को मन से पढ़ाएगी तो बच्चों का भविष्य तो सुधरेगा ही इसी बहाने थोड़ी समाज सेवा भी हो जाएगी!"
       
       "सर समझाया तो हूँ लेकिन मेरे पिताजी तो उससे स्टेनोग्राफर की ही नौकरी कराना चाहते हैं। मैं तो परेशान हूँ..." युवक की इस बात पर मैं कुछ नहीं बोला। फिर उसने मुझसे कहा-

"सर, आप कहीं मेरी नौकरी लगवा देते तो..पहले मैं कम्प्यूटर का काम करता था इन दिनों उसे छोड़ दिया हूँ क्योंकि आर्थिक परेशानियों के साथ अपने शहर से दूर रहना होता था.. कहीं संविदा पर ही हो सके तो मुझे कोई काम दिला दीजिए.."

        इसके साथ ही वह अपने नौकरी के लिए मुझसे काफी अनुनय-विनय करने लगा था। 

        अन्त में मैंने उससे कहा, "तुम नौकरी के लिए इतना परेशान क्यों होते हो? तुम्हारी पत्नी को तो नौकरी मिल ही गई है, तुम कम से कम अपने घर व बच्चों को सँभालोगे तो तुम्हारी पत्नी अच्छे से नौकरी कर लेगी।"

        मेरी इस बात को सुनकर वह बस की दूसरी खाली पड़ी सीट पर जाकर बैठ गया। इधर मैं सोच रहा था कि शायद यह इसलिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना चाहता हो जिससे अपने परिवार में होने वाले निर्णय-प्रकृया का हिस्सा बन सके या हो सकता है पत्नी को लेकर उसका अहं भी जाग रहा हो...खैर उसके पारिवारिक भविष्य के प्रति मुझे कुछ चिन्ता सी हुई क्योंकि युवक मुझे भोला-भाला सा लगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

ये आदतें !


                उस दिन बस से ही मैं कहीं जा रहा था। सुबह-सुबह का ही समय था। मतलब उठें या न उठें या थोड़ी देर और सो लें जैसी जद्दोजहद में फँसे रहने वाला वही सुबह का समय था! बस में, ठीक ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर ही मैं बैठा था। बस चली जा रही थी। अचानक मुझे सिगरेट या बीड़ी सुलगाए जाने की गंध मिलने लगी थी। मैं पीछे उझक कर देखने का प्रयास किया कि यह गंध कहाँ से आ रही है? लेकिन इसके लिए उत्तरदायी कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया था। बस के अन्दर लाईट जल रही थी और बस के बाहर अभी तक अँधेरा ही था। इस अँधेरे को बस की हेडलाईट चीरती जा रही थी। इधर साथ ही किसी के द्वारा किए जा रहे धूम्रपान के इस धुएँ का मैं अहसास भी करता जा रहा था। बस में कौन अपने इस लत को पूरा कर रहा था इसे जानने का प्रयास मैंने छोड़ दिया क्योंकि ऐसे ही एक बार किसी को मैंने जब टोंका था तो पहले वह माना नहीं और बाद में खिल्ली उड़ाने के अन्दाज में पी चुकने के बाद ही सिगरेट फेंका था। मैं करता क्या झगड़ा तो कर नहीं सकता था केवल चुप लगा कर रह गया था।

            इसी समय मैंने बस के कंडक्टर को ठंडी हवाओं के बस के अन्दर आने के कारण बस की खिड़की को बन्द कर लेने के लिए कहते हुए एक यात्री से बहस करते देखा। फिर उस यात्री ने ड्राइवर की ओर इशारा करते हुए खिड़की के शीशे को खींच दिया था। मैंने ध्यान दिया यह बस ड्राइवर ही बीड़ी पर बीड़ी सुलगाए जा रहा था। 

             मैं मन ही मन सोचने लगा कि बस चलाते हुए इतनी सुबह ही इसे बीड़ी पीने की कौन सी आफत आ पड़ी थी। फिर सोचा, नशे की ये आदतें ऐसी ही होती हैं, आदमी बेचारा अपनी इन आदतों के सामने विवश हो जाता है। उसे भी टोकने का मेरे मन में खयाल आया लेकिन सोचा ड्राइवर को बीड़ी पीने से टोकने पर एक तो उसे बुरा लगेगा दूसरे वह तर्क देगा कि तरोताजा होने और चैतन्य होने के लिए मुझे तो यह करना ही है। यह छूट नहीं सकती। इसके बिना मैं बेचैन हो जाऊँगा। 

           फिर मेरा ध्यान अपने ऊपर गया। इसी तरह फेसबुक पर और आनलाइन रहने का भी अपना एक नशा होता है। एक बार जब मैंने तय किया कि आज दिन भर मुझे फेसबुक या किसी भी तरह के आनलाइन क्रियाकलापों से दूर रहना है तो दिन में कई बार मुझे जबरन इसका प्रयास करना पड़ा और शाम को तो जैसे हलका सा सिरदर्द ही होने लगा था, शायद यह दर्द भी एक तरह के लत से दूर रहने की जद्दोजहद से ही उपजा हो।

          वास्तव में नशा या लत किसी पदार्थ के जैविक प्रभाव से उत्पन्न नहीं होता, मतलब हमें नशे में डालने के लिए कोई वाह्य कारक भी उत्तरदायी नहीं है। बल्कि किसी चीज के प्रति हमारी आदतें ही नशा या लत होती हैं। कभी-कभी एक विशेष अनुभव से गुजरने की आदत ही नशा बन जाती है और बुरी आदतों का नशा ही हानिकारक होता है। कोई भी आदत धीरे-धीरे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में बदल शरीर को जैविक तरीके से भी प्रभावित करने लगता है और इन आदतों से प्रभावित हमारा शरीर इसके लाभ या हानि से भी प्रभावित हो जाता है। बुरी आदतों से हमारा स्वास्थ्य तथा व्यवहार दोनों खराब हो जाता है। नशे के मामले में भी यही होता है। 

           आदतों से छुटकारा पाना स्वयं को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से मुक्त करना होता है, जो बेहद कठिन होता है। यहाँ बहुत सजगता की आवश्यकता होती है। खासकर नशे जैसी किसी आदत नामक चीज से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी प्रारम्भिक चरण में तमाम तरह के शारीरिक दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन यह केवल मानसिक अवस्था को प्रभावित करने वाला लक्षण मात्र ही है जो धीरे-धीरे नशे जैसी आदतों में सुधार होने के साथ ही गायब हो जाता है। 

     इतनी लम्बी बात बस ड्राइवर को हम उस समय नहीं समझा सकते थे। सोचा कहीं मेरे इस नशा-मुक्ति उपदेश पर यह ड्राइवर खिसिया गया तो चलती यह बस डिसबैलेंस हो जाएगी और सब धरा का धरा रह जाएगा। फिर मैंने भी अनचाहे धूम्रपान के इस धुएँ से मुक्ति पाने के लिए बस की खिड़की के शीशे को थोड़ा खिसका दिया और सीधे नाक पर बाहर की शुद्ध हवा लेने लगा था।

        कुछ ही क्षणों बाद मैंने अनुभव किया कि हाई-वे पर दौड़ी जा रही यह बस अप्रत्याशित रूप से अपने दाहिने अधिक कट रही थी। ध्यान दिया तो मैंने पाया कि बस ड्राइवर अपने जेब से गुटखा जैसे पाउच को निकाल उसे मुँह में डालने का प्रयास कर रहा था। इसी दौरान शायद उसके हाथों का नियन्त्रण बस के स्टेयरिंग पर न होकर गुटखे के पाउच पर हो गया था। ठीक उसी समय पीछे से किसी ट्रक ने हार्न बजाया और बस ड्राइवर बस के स्टेयरिंग पर पुनः नियन्त्रण स्थापित करते हुए बस को बाएं लाते हुए ट्रक को आगे जाने का रास्ता दिया था। मुझे लगा कभी-कभी ऐसी ही लापरवाहियों का खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ जाता है। 

      एक बात है, आदतों का भी गजब का मनोविज्ञान होता है। आदतें अच्छी या बुरी ही नहीं बल्कि हानि या लाभ देने वाली भी होती हैं। मतलब अपनी अच्छी आदतों के बलबूते लोग आसमान चूम लेते हैं तो बुरी आदतें लोगों को पतन के गर्त में ढकेल देती हैं। आशय यही कि आदतों का नशा हमारे लिए कई तरह के परिणाम लाते हैं। 

           यह भी देखने में आता है कि जिन व्यक्तियों में अच्छी या बुरी जैसी किसी भी आदत को गढ़ लेने की क्षमता नहीं होती वे विश्रृंखलित व्यक्तित्व के ही मालिक होते हैं, मतलब उनमें विखराव ही अधिक होता है और वे किसी भी लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और फिर जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। वैसे अच्छी आदतों वाले बिना किसी विशेष प्रतिभा के भी शिखर पर पहुँच जाते हैं। 
      
       बिडम्बना यह भी है कि इन आदतों को क्या कहा जाए जिसका साइड इफेक्ट उन दूसरों पर पड़ता रहता है जो ऐसी किसी भी आदत से दूर रहते हैं। लेकिन उन बेचारों को दूसरों की आदतों को ढोना भर होता है! वैसे ही जैसे एक कार्यालय के साहब रजनीगंधा और राजश्री के तलबगार थे और जब वे तलब मिटा रहे होते थे तो उनका अटेंडेंट बेचारा अपने हाथों में पीकदान लिए उनके पीछे-पीछे चलता था। मुँह में पीक भरने पर जब साहब जी "हूँ " की ध्वनि निकालते हुए उसकी ओर देखते तो वह अटेंडेंट बेचारा तुरन्त समझ जाता था और झट से पीकदान साहब के मुँह के आगे कर देता और साहब का पिच्च पीकदान में! यह उस अटेंडेंट की मजबूरी बन और उसकी आदत में शुमार हो गया था। आम आदमी तो इन साहबों के कार्यालयों के कोनों को ही पीकदान के रूप में प्रयोग कर लेता है। इसी तरह बस में बैठे-बैठे हम भी तो ड्राइवर की आदत को कुछ क्षणों के लिए ढोने लगे थे। हालाँकि ठीक उसके सिर के ऊपर ही लिखा था "धूम्रपान निषेध" लेकिन लिखा रहे इसका क्या यह तो लिखा ही रहता है। मैंने भी इस लिखे का अर्थ निषेध के प्रतिषेध के रूप में ही ग्रहण किया। अब कानून की किताबों में भी तो सब कुछ लिखा है लेकिन क्या कोई कानून टूटने से रह जाता है? 

       उस चलती बस में मेरी बातचीत एक परिचित से होने लगी थी। उन्होंने मुझे बताया कि एक लड़के वाले ने दो लाख के चक्कर में उनकी बेटी की शादी नहीं मानी। लड़के वाले बीस लाख माँग रहे थे और वे किसी तरह से फंड पेंशन से अट्ठारह लाख इकट्ठा कर देने के लिए तैयार थे। अब पता नहीं लड़के वाले किस आदत के शिकार थे यह भी एक शोध का विषय बन सकता है। 

         बातों-बातों में एक अन्य व्यक्ति की भी चर्चा हुई थी जिसकी पत्नी का देहांत तब हो गया था जब उसके दो बच्चे पांच-छह साल के रहे होंगे। उस समय उस व्यक्ति की पुनः विवाह के लिए लोगों ने काफी प्रयास किया था लेकिन अपने बच्चों के खातिर विवाह करने से मना कर दिया। आज उनकी बेटी कुछ बड़ी हो गई है वह अपने छोटे भाई को तैयार कर स्कूल भेजती है तथा पिता के लिए भी टिफिन तैयार कर फिर स्वयं स्कूल जाती है। 

         कहने का आशय यही है इन सारी बातों के पीछे हमारी कोई न कोई आदत ही होती है जो हमारी ऐसी सोच बनाती है या फिर हमारी कोई सोच ही होती है जो हमारी आदत बन जाती है। यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि सोच से ही आदतें बनती हैं। लेकिन सोच बहुत अच्छी होने पर भी हम कभी न कभी कुछ न कुछ बुरा कर बैठते है। इसका उदाहरण समाज में मिलता रहता है। आखिर ऐसा क्यों? 

           क्योंकि बातें बस यही है कि सोचते तो हम बहुत अच्छा हैं लेकिन इस सोच के ही अनुरूप हमारी आदतें नहीं होती इसीलिए हमसे गलतियाँ भी हो जाती हैं। हमारी अच्छी आदतें ही हमें गलतियों से बचाती हैं। 

         नशा तो अच्छी आदतों का ही होना चाहिए न कि किसी नशे की आदत!