गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

कम से कम यहाँ बालिकाओं के लिए इन्टरमीडिएट स्कूल ही खुल जाता!



             एक यह तस्वीर महोबा जनपद मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर स्थित एक पिछड़े गाँव सिजरिया के आँगनवाड़ी केंद्र पर मनाए जाते पोषण दिवस का है। पूर्व में इस गाँव में नौ कुपोषित बच्चे चिह्नित किए गए थे लेकिन पता चला कि इनमें से एक बच्चे की मृत्यु हो गई। उस बच्चे को इलाज के लिए जिला चिकित्सालय में भी भर्ती कराया गया था लेकिन बचाया नहीं जा सका था। वर्तमान में आठ कुपोषित बच्चों में से तीन-चार बच्चों की स्थिति थोड़ी गंभीर थी। शेष अन्य बच्चों में सुधार परिलक्षित हो रहा था।
            एक बेहद कुपोषित बच्चे की माँ तो उसके जन्मते ही मर गई थी। उस बच्चे को उसकी चाची लेकर आई थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री के अनुसार इससे पहले उसके तीन बच्चे और हुए थे और सभी मर गए थे। मैंने उस बच्चे को जिला चिकित्सालय में भर्ती कराने के लिए कहा, क्योंकि ऐसे कुपोषित बच्चों को वहाँ चौदह दिन का इलाज और उसकी माँ को निःशुल्क भोजन के साथ चौदह सौ रूपया भी दिया जाता है। लेकिन वे जाने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें रोजी-रोटी भी कमाना था। इसी प्रकार एक बच्चे को उसकी बहन जो स्वयं अभी बच्ची ही थी अपनी गोंदी में लिए हुए खड़ी थी। उसके माता-पिता दोनों मनरेगा में मजदूरी करने गए थे। वे भी उसे जिला चिकित्सालय ले जाने के लिए लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि उन्हें भी जीवनयापन के लिए मजदूरी करना जरूरी था। एेसे ही एक अन्य कुपोषित बच्चा अपनी माँ के पागलपन का शिकार था। वह अपने इस कुपोषित बच्चे का ढंग से देखभाल नहीं कर पाती थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने उसके बारे में बताते हुए कहा कि इसका पति इसे उड़ीसा से लेकर आया था और इस बच्चे को वह औरत साथ में ही लाई थी। आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री जैसे मुझसे यह सफाई देना चाह रही थी कि इसके कुपोषित होने में हमारी यहाँ की व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है। खैर, उसकी बात सुनकर मैंने जब यह कहा कि "दिमागी रूप से दिव्यांग यह औरत इस बच्चे की क्या देखभाल कर पाएगी?" तो आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने कहा - "अरे नहीं साहब! यह देखने में ही ऐसी है, एक बार इसका पति इससे ऊब कर झाँसी तक छोड़ आया था, लेकिन यह फिर अकेले ही वापस आ गई।" उस औरत से मैंने अपने बच्चे की ढंग से देखभाल करने के लिए कहा तो वह हाँ के अन्दाज में सिर हिलाते हुए बच्चे को लेकर हँसती हुई चली गई। एक अन्य बच्चा तो इसलिए कुपोषित था कि वह सात महीने में ही पैदा हो गया था।
          एक-एक कर आठों कुपोषित बच्चों को देखते हुए और साथ में उन बच्चों को लेकर आए परिवार के सदस्यों से उनकी गरीबी पर भी मैं चर्चा करता गया लेकिन किसी ने भी भोजन की समस्या होने की बात स्वीकार नहीं किया। मजदूरी या खाद्य-सुरक्षा जैसी योजनाओं से उन्हें दो जून की रोटी आसानी से मिल रही थी। फिर भी उनके बच्चे कुपोषित थे?
            बच्चों के कुपोषित होने के कई कारण मेरे समझ में आए। जैसे गर्भवती माताओं का स्वास्थ्य के प्रति जागरूक न होना, जीवन के प्रति उनका बेहद लापरवाही भरा नजरिया होना, अस्वास्थ्यकर परिवेश में निवास करना आदि-आदि।
           एक गर्भवती महिला तो दोनों पैरों से दिव्यांग थी! आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री के उसे दिखाते हुए यह कहने पर कि यह स्वयं उठ नहीं पाती और इसका पति भी इसी तरह विकलांग है, यह लड़के की चाह में सातवीं बार गर्भवती है, तो -
          "पता नहीं इसे अपनी कौन सी सल्तनत चलानी है कि यह भी अपना वारिस खोज रही है? इसका बच्चा या तो कुपोषित ही होगा या यह स्वयं अबकी बार खुदा को प्यारी हो जाएगी!" हाँ, दोनों पैरों से विकलांग सातवीं बार गर्भवती उस औरत को देखकर मैंने यही सोचा था।
          अन्त में कुपोषित बच्चों को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन बच्चों के कुपोषित होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण इनके माता-पिता और परिवारों का अनपढ़ तथा अशिक्षित होना ही है तथा शेष अन्य कारण बाद के हैं।
            इसके बाद आँगनवाड़ी कार्यकर्त्री ने अवगत कराया कि इस गाँव में नब्बे किशोरियाँ है जिनके स्वास्थ्य का भी परीक्षण किया गया है। वहाँ खड़ी कुछ किशोरियों से मैंने जब उनसे उनकी पढ़ाई के बारे में पूँछा तो लगभग सभी ने पढ़ाई न करने की बात कही। मैंने थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूँछा - "क्या तुम लोग पाँच तक भी नहीं पढ़ी हो?" तो सब ने कक्षा आठ के बाद पढ़ाई छोड़ देने की बात कही। इसके बाद वहीं बैठे उस गाँव के प्रधान ने मुझे बताया कि "यहाँ उच्च प्राथमिक विद्यालय तक का ही स्कूल है और हाईस्कूल या इन्टर की शिक्षा के लिए इन्हें इग्यारह किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा! घर वाले बच्चों की सुरक्षा की चिन्ता के कारण इन्हें इतनी दूर नहीं जाने देते....सर! इस गाँव में एक इन्टर कालेज खुल जाता तो इन बच्चों की आगे की पढ़ाई हो पाती।"
            इधर उस इग्यारह किलोमीटर की दूरी पर ध्यान चला गया जिस रास्ते से होते हुए मैं इस गाँव पहुँचा था। एकदम सूनसान रास्ता! इस ग्यारह किमी के रास्ते में एक छोटा सा ही गाँव मिलाथा।
            असल में महोबा जैसे जनपद में एक गाँव से दूसरे गाँव के बीच की दूरी पाँच से दस किमी से कम नहीं होती और इन्हें जोड़ने वाला रास्ता भी पहाड़ों और ऊँची-नीची जमीनों के बीच से गुजरता है। इन गाँवों में भी दबंग किस्म के लोगों की तूती बोलती होगी। ऐसे में बच्चियों की सुरक्षा की चिन्ता मुझे स्वाभाविक जान पड़ी। क्योंकि प्रधान ने भी स्वीकार किया था कि दो राज्यों की सीमा होने के कारण यहाँ इस ग्रामीण क्षेत्र में संवेदनशीलता कुछ ज्यादा ही है। जूनियर प्राथमिक विद्यालय के परिसर में स्थित इस आँगनवाड़ी केंद्र पर पहुँचते ही मेरी निगाह वहीं पास में बैठे दो पुलिस वालों पर भी पड़ी थी।
            अब मैं सोच रहा था, काश! यहाँ बालिकाओं के लिए कोई इन्टरमीडिएट स्तर का स्कूल खुल जाता तो प्रधान के कथनानुसार कम से कम चार-पाँच गाँव के बच्चे लाभान्वित होते!! खैर....

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