गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

हमारी "बदहवास आक्रामक मनोवृत्ति"

             उस दिन बस की एक सीट पर बैठे तीन लोगों में से दो लोग जिनकी उम्र में भी कम से कम पन्द्रह वर्षों का अन्तर रहा होगा बिना एक दूसरे का लिहाज किए आपस में झगड़ रहे थे। उनकी तेज आवाजें सुन कुछ लोग उन्हें शान्त भी कराने लगे थे। हालाँकि वे दोनों एक दूसरे को देख लेने के साथ हाथापाई जैसी मुद्रा में भी आ गए थे। वे दोनों किसी तरह शान्त हुए। उनकी सीट के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठे हुए मैंने कारण पूँछा तो एक ने बताया कि एक दूसरे से शरीर छू जाने से यह सारा विवाद हुआ था। 
             मुझे ध्यान आया कि बस में यात्रा करते समय जब कभी बगल में बैठा व्यक्ति जाने-अनजाने अपने नींद के झोंके में मेरे कंधे से टकराता है तो बुरा लगते हुए भी उसकी नींद में खलल न पड़े मेरा हिलना भी मुश्किल हो जाता है। खैर..
            इतनी सी बात पर आपस में इन्हें ऐसे झगड़ते देख मुझे किंचित आश्चर्य भी हुआ। आखिर हम "बदहवास आक्रामक मनोवृत्ति" के शिकार क्यों होते जा रहे हैं? हमारे आसपास घट रही ऐसी ही घटनाएँ हमारी मनोवृत्तियों के क्रूर होते जाने की व्याख्या करती प्रतीत होती हैं। यह अखलाक या डाक्टर नारंग या फिर चलती ट्रेन की खिड़की से लटकाकर पीटने जैसी घटनाओं के साथ दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है।
           वास्तव में आज का विकासक्रम हमारी "संहारक मनोवृत्तियों" का ही परिणाम है, यह एक तरह का "व्यक्तिश: साम्राज्यवादी मनोवृत्ति" है, जहाँ एक-दूसरे का सम्मान उनके आपसी हितपोषक होने की सीमा तक ही सुरक्षित माना जा सकता है। ऐसे में एक-दूसरे से शरीर छू जाना या बिना पूँछे किसी की बोतल का पानी पी जाना या हमारी इच्छाओं का सम्मान न करने वाला जैसे सभी कृत्य हमें हमारे "व्यक्तिश: साम्राज्य" को संकुचित करते प्रतीत होते हैं और फिर तो हमें आक्रामक होना ही होता है। और हमारा यह साम्राज्यवाद बिना क्रूरता के फल-फूल भी नहीं सकता।
          हमारा आज का बौद्धिक समाज ऐसी घटनाओं का विश्लेषण भी बहुत ही सतही तरीके से करता है। और यह व्याख्या असरकारी भी नहीं है क्योंकि ये व्याख्याकार भी एक अजीब सी जुगलबंदी करते दिखाई देते हैं। हाँ इन व्याख्याकारों को भी तो अपने साम्राज्य की चिन्ता होती है।
            पत्नी ने पूँछा क्या लिख रहे हो? जब मैंने बताया तो उन्होंने कहा, "हाँ, आप लोगों का भी काम बस यहीं तक सीमित हो चुका है लिख दिए! और किसने बढ़िया लिखा?" खैर....
           आज टहलने नहीं गया था और इसे लिखने बैठ गया। बाहर चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ रही है। सोच रहा हूँ इन चहचहाहटों में साम्राज्यवाद नहीं है आइए! इसी को ध्यान से सुनें...

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