मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा

               स्कूल से आते ही विशाल ने अपने बस्ते को ड्राइंगरूम में पटका और कमरे में जा कर गुमसुम बैठ गया... उसकी मम्मी ने कई बार उसे नाश्ता करने के लिए पुकारा लेकिन उसने अनसुनी कर दी... कमरे में अकेले बैठे हुए विशाल को काफी देर हो गया था... तभी उसके कानों में उसके डैडी की आवाज पड़ी,
               "क्यों... विशाल नहीं दिखाई दे रहा है? ....वह कहाँ है...?" डैडी शायद मम्मी से उसी के बारे में पूंछ रहे थे|
               "इस बार परीक्षा में कम नम्बर आए हैं..शायद इसी लिए परेशान हैं..|" मम्मी उसी के बारे में कह रहीं थी|
               'हाँ....बात तो सही है... उसे इस बार की परीक्षा में कम नम्बर मिले हैं...कक्षा का तो वह सबसे तेज़ विद्यार्थी माना जाता था...! अनुराग और विभव जैसे छात्र जो सदैव कम नम्बर पाते रहे हैं वे भी इस बार उससे अधिक नम्बर ले आए...! उसकी कितनी बेइज्जती हुई इस बार...! और तो और उसकी टीचर ने भी तो कहा कि तुमसे ऐसी आशा नहीं थी... अब तक वह यही प्रयास करता आया है कि कक्षा में उसे सबसे अधिक इज्जत मिले...लेकिन परीक्षा में आए उसके अंक उसकी इज्जत को मिट्टी में मिला दिए...|' विशाल यह सब सोच ही रहा था कि उसके डैड के हाथ उसके कंधे पर पड़े...उन्होंने धीरे से उससे पूंछा,
                 "क्या बात है...क्यों परेशान हो..?"
                  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|" विशाल ने कहा|
                 "नम्बर कम आने पर क्यों चिंतित होते हो..? ...हाँ तुमने इस बार अच्छा नहीं किया...इसीलिए नम्बर कम आया...तुमने अच्छा नहीं किया..! तुमको इसपर सोचना चाहिए...!" डैड ने उसे थोडा समझाने के अंदाज में कहा।
                  "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" विशाल के डैड ने उसे समझाया।
                 उपरोक्त बातें हो सकता है बहुत साधारण स्तर की हो जिससे कोई विशेष अर्थ न निकलता हो...लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है| विशाल और उसके डैड के बीच के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि विशाल को परीक्षा में कम अंक आने की की उतनी चिंता नहीं थी जितनी इससे होने वाली अपनी बेइज्जती की...शायद बेइज्जती न हो तो नम्बर कम आने की चिन्ता भी न हो..!
                 कई वर्षों पूर्व किसी लेख में आया शब्द "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" ने ध्यान आकृष्ट किया था, यह शब्द उस लेख में प्रसंगवश आया था, इस शब्द की कोई व्याख्या उस लेख में नहीं था....लेकिन इस शब्द से मैं काफी प्रभावित था...तभी तो पढ़ने के कई वर्षों के बाद भी यह शब्द बार-बार याद आता रहता है....और मै अपने तरीके से इसकी व्याख्या करता रहता हूँ.... उक्त वार्तालाप के क्रम में "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" शब्द मुझे फिर याद आ गया.....इसका शाब्दिक अर्थ मैंने यही निकाला है...प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा अर्थात सूअर के मल के समान होता है..... अर्थात मात्र सम्मान पाने के दृष्टिकोण से किया गया काम सूअर के मल के समान होता है | इस प्रकार 'प्रतिष्ठा' की आकांक्षा से किया गया कार्य अपने आप में व्यर्थ और अपवित्र परिणाममूलक होता है...|  'विकिपीडिया' में इस शब्द की कोई व्याख्या न मिलने पर मैंने अपनी यही व्याख्या उसमें भी डाल दी है...|               ...खैर... जो भी हो विशाल भी कक्षा में सम्मान पाने का आकांक्षी है..वह कक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर इस सम्मान को पाना चाहता है... लेकिन यहाँ एक पेंच है...विशाल का मुख्य उद्देश्य ज्ञानार्जन या पढ़ाई में औव्व्ल आना हो सकता है... लेकिन उसने 'प्रतिष्ठा' को भी अपने इस उद्देश्य के साथ जोड़ लिया है... जो उसके कहे इस वाक्य से प्रमाणित होता है,  "मेरे नम्बर कम आए हैं.... मेरी बेइज्जती हुई.....|"  यहीं पर उसके मूल उद्देश्य 'ज्ञानार्जन' के साथ उसकी एक मनोवैज्ञानिक समस्या उत्पन्न हो जाती है... और वह यह कि.. उसकी 'ज्ञानार्जन की आकांक्षा' कक्षा में 'प्रतिष्ठा पाने की आकांक्षा' के समानांतर हो जाती है... इस प्रकार कक्षा में विशाल की आकांक्षा के ये दोनों तत्व एक दूसरे की सीमा निर्धारित करने लगते हैं....अर्थात..प्रतिष्ठा से संतुष्ट होने की सीमा को ही वह ज्ञानार्जन की सीमा मान सकता है... जो विद्यार्थी होने के मूल उद्देश्य से उसे भटका सकती है... क्योंकि वह उतना ही पढ़ेगा जितने से उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे....! अर्थात उसने पढ़ाई या ज्ञानार्जन हेतु अपनी एक सीमा निर्धारित कर लिया... शायद यहीं पर प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा बन जाती है...! ...प्रतिष्ठा की इसी 'विष्ठा' को समझते हुए विशाल के डैड ने उससे कहा था, "तुम्हें इस बारे में इज्जत के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं....बल्कि तुम्हें इस बात पर परेशान होना चाहिए कि तुम सबसे अधिक ज्ञानी बनो बाकी चीजें अपने-आप ठीक हो जाएंगी..।" और यहाँ पर एक उल्लेखनीय बात और हो सकती है, प्रतिष्ठा की आकांक्षा उसकी ज्ञानार्जन की आकांक्षा पर भारी होने से वह परीक्षा में अधिक अंक पाने के लिए नकल की भी सहायता ले सकता है...! और अंत में ज्ञानार्जन के अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है...!
            विद्यार्थी और उसके डैड के बीच के उपरोक्त वार्तालाप से हम  "प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा" के अर्थ को समझने का प्रयास कर सकते हैं.... लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि समाज में प्रतिष्ठा पाने की हमारी लालसा ने हमें अपने पथ से भटका कर ऐसे कार्य करने पर हमें विवश कर देती है जिससे तमाम सामाजिक विद्रूपताओं के जन्म के साथ ही हम अपने मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं..!
              वास्तव में 'प्रतिष्ठा' जैसे किसी तत्व का कोई अस्तित्व नहीं.. और अगर अस्तित्व है भी तो हमारे कर्मों का...! प्रतिष्ठा को केन्द्र्विंदु मानकर किया गया किसी भी कार्य का परिणाम अंततः दुखदायी हो सकता है... हम दैनिक जीवन की घटनाओं से इसे प्रमाणित कर सकते हैं... 






















                 

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

ताली....लेकिन सचेत होकर!

               आज स्वतन्त्रता  दिवस की वर्षगांठ थी एक सभा में मुझे भी बोलने के लिए पुकारा गया. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि  मैं क्या बोलूं क्योंकि उस सभा में बैठे सभी लोग स्वतंत्रता दिवस और इसे क्यों मनाया जाता है इसका मतलब बखूबी समझते थे और मुझे इसका भी अहसास था कि जो मैं बोलना चाहता हूँ उसके विरुद्ध हम सब क्या करते हैं, फिर भी मुझे बोलना था मैंने बोलना प्रारंभ किया , ''सभा की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय......और सम्मानित......आज हम प्रत्येक वर्ष की तरह स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ मना रहे हैं....इस वर्षगांठ के मनाने के पीछे के उद्देश्य को हमें समझना होगा......आजादी के समय की भावनाओं, संघर्षों एवं आजादी के लिए किए गए त्याग को समझना होगा और उन्हें अपने अन्दर जीवित रखना होगा तभी इस वर्षगांठ मानाने का कोई मतलब है....नहीं तो इसे हर साल मानाने का मतलब किसी कवि के शब्दों में, 'क्या आजादी केवल तीन थके हुए रंगों का नाम है....' प्रत्येक वर्ष हम तिरंगा ही फहराते चले आ रहे हैं लेकिन हमने क्या बदलाव लाया...आज भी हमारा देश मानव जनानंकीय विकास के सर्वेक्षणो में लगभग अंतिम पायदान पर आता है....हम क्या खास बदलाव कर पाए हैं...? आखिर हमने किया क्या...केवल तिरंगा फहराने तक सीमित हो चुके हैं...एक कवि की दो लाइनें हम सुनाते हैं...हमने जीवन क्या जिया / लिया लिया बहुत ज्यादा/दिया दिया बहुत कम/मर गया देश/ जीवित रह गए तुम   हमें आजादी की भावना को समझना होगा उसे आत्मसात करना होगा ...जय हिन्द'' इस प्रकार  मैंने अपना  भाषण समाप्त किया...लोगों ने ताली बजाई मैंने नोटिस किया मैंने भी ताली बजाई....शीघ्र मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि स्वयं मुझे अपने भाषण पर ताली नहीं बजानी चाहिए.....मैं अपने इस नादान हरकत पर मन ही मन शर्मिंदा होने लगा और सोचने लगा किसी ने इसका नोटिस तो नहीं लिया....खैर मैंने मन ही मन इसका विश्लेषण करना शुरू कर दिया कि मैंने अपने ही भाषण पर स्वयं ताली क्यों बजाई...मैंने पाया कि मेरे पूर्व के जो वक्ता बोलते थे उनके भाषण समाप्त होने पर लोग ताली बजाने लगते थे ...और सबकी देखादेखी और कुछ औपचारिकता निभाने हेतु मैं भी ताली बजाने लगता था....शायद मेरे अवचेतन में इसका प्रभाव था और इसी प्रभाव के कारण मैंने स्वयं अपने ही भाषण पर ताली बजाई....मुझे सजग रहना चाहिए था....
             फिर मैंने अपने दिए भाषण का मन ही मन श्रोताओं पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का विश्लेषण करने लगा....मुझे लगा कि जैसे मैंने एक मानसिक त्रुटिवश अपने ही भाषण पर ताली बजाई वैसे ही अन्य लोगों ने या तो उसी मानसिक त्रुटिवश ताली बजाई होगी या फिर औपचारिकता वश......इस भाषण ने किसी पर कोई प्रभाव नहीं डाला होगा....क्योंकि यहाँ बैठा हर शख्श केवल बैठने की औपचारिकता निभा रहा है...ऐसे में भाषण से प्रभावित होने का कोई प्रश्न ही नहीं है...अगले दिन बैंक बैलेंश कैसे बढे मेरे समेत सभी इसके तरीके पर सोच रहे होंगे....और.... ऐसे ही किसी अन्य अवसर पर देने वाले भाषण की मन ही मन तैयारी कर रहे होंगे.....जय हिन्द...! ....पुन:  ताली.......लेकिन सचेत होकर !  
  

सोमवार, 12 अगस्त 2013

बी काँन्शस....!

               विचारों का मानसिक प्रवाह चेतना का लक्षण है, विचारों का केन्द्र-विंदु कुछ भी हो सकता है, यह तीन प्रकार का हो सकता है- सकारात्मक, नकारात्मक और निरर्थक| विचारों का अधिकांश प्रवाह निरर्थक होता है, जिनका हमारे मन मस्तिष्क पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और इन विचारों से हमारे कार्य भी प्रभावित नहीं होते| लेकिन सकारात्मक और नकारात्मक विचारों का हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है| सकारात्मक विचार जहाँ उर्जा के श्रोत होते हैं वहीँ नकारात्मकता हमें निराशा और अवसाद के गर्त में धकेलते हैं| सकारात्मक और नकारात्मक विचारों का पहचान होना बहुत महत्वपूर्ण है, इन दोनों में बहुत झीना सा अंतर हो सकता है क्योंकि नकारात्मक विचार हमें स्वयं के लिए सकारात्मकता का अहसास कराने लगते हैं तभी हम ऐसे विचारों को छोड़ नहीं पाते और उन्हें ही सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं| वास्तव में नकारात्मक विचार धीमा जहर होते हैं यह किसी भी चीज के प्रति हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित कर लेते है, जिससे उस विचार या वस्तु के वास्तविक स्वरुप को समझने की हमारी शक्ति कमजोर हो जाती है तथा हम मानसिक भटकाव के शिकार बन जाते हैं, इस प्रकार ऐसे ही विचार हमारे लिए तमाम समस्याओं को जन्म देकर हमें मानसिक रोगी भी बना देते हैं| इनसे छुटकारा पाने के लिए एक ही तरीका है, जिस प्रकार चिकित्सा विज्ञान में रोगी-जीवाणु से लड़ने के लिए शरीर में एंटीबाडी का विकास कराया जाता है उसी प्रकार मन में नकारात्मक विचारों से लड़ने के लिए सकारात्मक विचारों का प्रवाह बनाए रखना चाहिए और यह अपने देखने के नजरिए में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेने भर से हो जाता है|
          विचारों का मानसिक प्रवाह नकारात्मक दिशा की ओर कब होता है और यह नकारात्मकता क्या है, इस पर चिंतन किया जा सकता है| वास्तव में हमारा मन अन्तर्जगत और वाह्यजगत दोनों के प्रति स्वभावतः प्रतिक्रियात्मक होता है; अर्थात हमारा मन स्वयं अपने मानसिक आवेगों, उद्वेगों आदि के प्रति धारणाएँ निर्मित करता रहता है, इसी प्रकार मन वाह्य-जगत के प्रति भी अपना एक दृष्टिकोण निर्मित करता हैं. चीजों के प्रति हमारी धारणाओं से ही हमारे विचार नकारात्मक या सकारात्मक हो सकते हैं, इसका सबसे सरल और प्रचलित उदाहरण गिलास को आधा भरा या आधा खाली देखना| वास्तव में यह दोनों, देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण है; एक से मन में आशा और उत्साह का संचार होता है तो दूसरे दृष्टिकोण से निराश और हतोत्साहित होना पड़ सकता है| वास्तव में मन में उठने वाले जिन विचारों से हम उर्जस्वित नहीं होते तथा आलस्य और प्रमाद से ग्रसित हो जाते हैं ऐसे ही मानसिक विचार नकारात्मक होते हैं|
       किसी भी विषय-वस्तु, विचार आदि के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएं या दृष्टिकोण  हमारे सोचने के तरीकों पर निर्भर करता है| हमारे सोचने या देखने का तरीका और कुछ नहीं बल्कि यह एक प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है; इस प्रक्रिया के तत्व हैं- मन, बुद्धि और विवेक| प्रथम दृष्टया किसी भी चीज पर हमारी प्रतिक्रियाएं हमारे देखने के दो तरीकों पर निर्भर करती है; आत्म-केन्द्रित दृष्टि और वाह्य-केन्द्रित दृष्टि अर्थात हमारे विचार आत्म-सापेक्ष और वाह्य-सापेक्ष दो आधार लेकर चलते हैं| वास्तव में हमारे चिंतन के यह दोनों आधार एकांगी होते हैं, क्योंकि इस स्थिति में हमारा मन हमें जो दिखाता है हम वही देखना और सोचना चाहते हैं या फिर हम जो देखते हैं उतना ही उस विषय में जानते और देखने की उसी सीमा तक सोचते हैं; ऐसी स्थिति में किसी विषय पर हमारे चिंतन की सीमा ‘मन’ या फिर केवल ‘दृश्य’ तक ही सीमित होती हैं, इस प्रकार केवल ‘मन’ या केवल ‘दृश्य’ की सीमा में आने वाले हमारे विचार दूषित हो सकते हैं|
                  विचारों का दूषित होना एक प्रकार से भ्रम का शिकार होना ही होता है और यह भ्रम चीजों को सही तरीके से समझने में बाधा पहुंचाती हैं| यदि ‘मन’ और ‘दृश्य’ इन दो आधारों तक ही हमारे विचार सीमित होकर चलते हैं तो इसका प्रभाव हम पर किस प्रकार पड़ सकता है इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं, जिसकी चर्चा बचपन में पिता जी ने मुझसे की थी- एक बार रुई के एक व्यापारी ने पहली बार अपने लड़के को व्यापार की कुछ बातें समझाने के लिए उसे रुई के अपने एक बड़े गोदाम में नौकर के साथ भेजा| उस गोदाम में रुई के विशाल ढेर को देख कर व्यापारी का लड़का हतप्रभ रह गया और आश्चर्य से बोला, ‘इतनी ढेर सारी रुई...! इसका क्या होगा..?’ नौकर ने उसे समझाया कि इसे बेचा जाएगा तो पैसा प्राप्त होगा| व्यापारी के लड़के ने सोचा- ‘ढेर सारी रुई का ढेर सारा पैसा...!’ और यही बात उसके मन-मस्तिष्क में घर कर गई और वह सारा काम छोड़ कर रात-दिन यही सोचने लगा- ‘ढेर सारे रुई का ढेर सारा पैसा|’ और वह अकसर यही बुदबुदाता भी रहता था| व्यापारी को पुत्र की इस हालत से दुःख होने लगा क्योंकि अब उसके लड़के का मन किसी अन्य कार्य में भी नहीं लगता था| व्यापारी ने उसे कई चिकित्सकों को दिखाया लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ| धीरे-धीरे व्यापारी-पुत्र में अन्य लक्षण भी प्रकट होने लगा, जैसे कार्यों में उसकी अरूचि, नई परिस्थितियों में असहजता और घबड़ाहट| वह किसी नए कार्य और नई परिस्थितियों से बचने का प्रयास भी करने लगा, परिणामस्वरूप उसकी मानसिक शक्ति क्षीण होने लगी| किसी की सलाह पर व्यापारी ने पुत्र को मनोचिकित्सक को दिखाया, चिकित्सक ने परिक्षण के उपरान्त व्यापारी को कुछ सलाह दिया|
       एक दिन सुबह-सुबह व्यापारी ने पुत्र को जगाते हुए कहा, ‘अरे बेटा..! बहुत बुरा हुआ...|” पुत्र की जिज्ञासा पर व्यापारी ने उसे बताया कि उसने रुई के जिस गोदाम को देखा था उसमें बीती रात आग लग गई....और..गोदाम की सारी रुई जल गई....सुनकर उसका पुत्र आवक रह गया...और बोला, ‘ओह..! यह क्या हुआ...!’ और शांत हो गया| धीरे-धीरे उसकी स्थिति सुधरने लगी और उसे अहसास होने लगा कि वह किस स्थिति में पहुँच गया था|
          उक्त उदाहरण के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि व्यापारी-पुत्र ने जो देखा उसे अपने ‘दृश्य’ की सीमा तक ही सत्य मानते हुए अपने उस मानसिक सत्य से जोड़ दिया जहाँ प्रथम बार गोदाम देखने का उद्देश्य व्यापार की सीख लेना और उद्देश्य धनार्जन था| इस प्रकार वह दोनों ही परिस्थितियों में एकांगी सोच का शिकार हुआ और उसके मानसिक विचार भ्रमात्मक होते हुए नकारात्मक स्वरूप ग्रहण कर लिए, फलत: वह मानसिक रोगी बन गया| यहाँ नकारात्मकता का आशय देखे हुए या अपने सोचे हुए को ही सत्य मानना और उसमें निहित अन्य सत्य को न मानना है, यह स्थिति क्यों उत्पन्न होती है, हम इसका विश्लेषण कर सकते हैं|
         मानव स्वभाव मूलतः जिज्ञासु होता है और यह प्रवृत्ति उसकी अपनी अन्त:प्रज्ञा से स्वत: उत्पन्न होती है, यह गुण केवल मनुष्य में ही होता है जबकि अन्य जीवों में यह आतंरिक न होकर उनके व्यावहारिक अभ्यास पर निर्भर होता हैं| वैज्ञानिकों ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं जैसे, एक बाड़े में कैद कर जानवरों को कुछ दिनों तक रखा गया कुछ दिनों बाद बाड़े को हटा लेने पर यह देखा गया कि बाड़ा हटने के बाद भी जानवर बाड़े लगे स्थान तक जाकर वहाँ से वापस लौट आते थे| इस प्रयोग से यह प्रमाणित है कि पशुओं में ‘जिज्ञासु मन’ नहीं होता जिससे वे बाड़ा हटने के बाद की स्थिति को नहीं समझ पाए| इसी ‘जिज्ञासु मन’ की कमी के कारण मनुष्य भी भ्रमात्मक विचारों को ग्रहण कर कभी-कभी चीजों के प्रति नकारात्मक अवधारणा बना लेता है|
              आइये हम मन को समझें हमारा मन कोरा मन होता है मन किसी ज्ञान का आधार नहीं हो सकता क्योंकि भ्रम अकसर केवल मन और केवल वाह्य के संयोग से उत्पन्न होता है जिसमें एक तीसरे तत्व ‘विवेक’ का आभाव होता है| जब हमारा मन ‘जानने की प्रवृत्ति’ से संपृक्त होता है तभी ज्ञान उत्पन्न होने की प्रक्रिया उत्पन्न होती है| व्यापारी-पुत्र और बाड़े में कैद जानवरों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है| प्रारम्भिक स्तर पर दोनों का ज्ञान समान है, व्यापारी-पुत्र के उदाहरण में 'दृश्य' के बाद केवल मन में उठे विचारों को ही ज्ञान मान लिया गया तथा इस ज्ञान में विवेक का अभाव था और बाड़े में रखे गए पशुओं में अनुभव-जनित प्रवृत्तियां ही उनमें ज्ञान के रूप में संचित हुआ और बाड़ा हटने के बाद की स्थिति को वे समझ नहीं पाए अर्थात पशुओं में अंत:प्रज्ञा जनित ज्ञान का अभाव था| उपरोक्त दोनों ही स्थितियों में ‘जानने की प्रवृत्ति’ का अभाव देखा जा सकता है; जिससे उनका मन वास्तविक ज्ञान तक पहुँचने का प्रयास नहीं करता और मन में, देखी स्थितियों से गलत अवधारणाओं का वे निर्माण कर लेते हैं| इसी प्रकार त्रुटिपूर्ण मानसिक अवधारणाओं से उत्पन्न नकारात्मक विचारों से प्रभावित हो हम अँधेरे में रस्सी को सांप समझ निरर्थक उछल-कूद करते रहते हैं| 
                       वास्तव में ‘मन’ और ‘दृश्य’ के प्रभाव से उत्पन्न हमारे ‘विचार’ जब तक ‘जिज्ञासा’ की आधार भूमि ग्रहण कर नहीं चलते तब तक वे दिशाहीन होते हैं| इस तरह के दिशाहीन विचार हमें स्थितियों का सही ज्ञान नहीं होने देते और इसी दिशाहीनता के कारण हमारे विचार नकारात्मकता की ओर मुड़ जाते हैं| मन जब ‘जानने की प्रवृत्ति’ से संपृक्त होता है तब ‘तर्क’ की उत्पत्ति होती है और यह तर्क मन को विचारों, स्थितियों के विश्लेषण की ओर प्रवृत्त करता है, इस पूरी प्रक्रिया को हम ‘बुद्धि’ कह सकते हैं, अर्थात ‘जिज्ञासु-मन’ विवेकी होकर व्यक्ति को ‘बुद्धिमान’ बना देता है और ऐसा व्यक्ति स्थितियों, विचारों एवं दृश्यों आदि के प्रति ‘काँन्शस’ हो जाता है| यह ‘काँन्शसनेस’ व्यक्ति के विचारों को एक सकारात्मक दिशा प्रदान करती है और ‘त्रुटिपूर्ण मानसिक अवधारणा’ के प्रति सचेत होकर चीजों को हम उसके सही सन्दर्भ में समझ सकते हैं जिससे हमारा व्यावहारिक जीवन प्रभावित हो सकता है| इस पूरी प्रक्रिया को हम इस तरह समझ सकते हैं- हमें अपने 'पशु-मन' में अंत:प्रज्ञा जनित 'जिज्ञासु-मन' का प्रवेश कराते हुए उसे 'विवेकी मानव-मन' का रूप दे देना है| अंत में हम कह सकते हैं ‘आत्मदीपो भव..!’ या ‘बी काँन्शस...!’
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शनिवार, 27 अप्रैल 2013

क्या सेक्युलर होने के लिए किसी ढोंग की आवश्यकता है...?

             पिछले दिनों टोपी और तिलक को लेकर सेक्युलरिज्म पर एक नई बहस छिड़ी, आशय यह हो सकता था कि इन प्रतीकों से परहेज न कर इनका समान रूप से सम्मान करने वाला व्यक्ति सेकुलर हो सकता है, लेकिन इससे सेक्युलरिज्म की बहुत सतही परिभाषा निकलती है। यह परिभाषा राजनीति की भूमि पर ही उपजती है, जहाँ राजनीतिकों की सुविधानुसार यह परिभाषा उलझती जाती है और तो और उनकी राजनीति भी मात्र प्रतीकों तक ही सीमित हो जाती है। राजनीति से भिन्न भावभूमि पर सेकुलरिज्म की परिभाषा खोजने की कोशिश करने लगा .....।
                  बात बचपन के दिनों की थी ... मैं  तेरहवीं के एक भोज में अपनी एक बुआ के यहाँ गया था ... मुझे याद है दूर -दूर से लोग उस भोज में आए थे, खाने के लिए पाँत दर पाँत उठ और बैठ रही थी, और कुछ लोग चारपाइयों पर बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा भी कर रहे थे। ऐसी ही एक चारपाई पर मैं भी बैठा था जैसा कि अपने पारिवारिक संस्कारों वश मैं चारपाई के पैंताने की ओर  बैठा था क्योंकि सिरहाने की तरफ एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे साथ ही एक-दो लोग और उस चारपाई पर बैठे थे। बुजुर्ग का चेहरा सफेद दाढ़ी और सिर पर सफ़ेद गोल टोपी के साथ दीप्तवान और गरिमापूर्ण लग रहा था .... वह कोई मौलवी जैसे लग रहे थे और मुस्लिम थे  ....वह भी उस तेरहवीं के भोज में सम्मिलित हुए थे, वहाँ उनके जैसे कुछ और लोग भी थे ...बाद में जानकारी हुई कि उस गाव में हिन्दू या मुस्लिम एक दूसरे के यहाँ कार्यक्रमों में इसी तरह सम्मिलित होते हैं। बुआ के घर एक बड़े सदस्य ने बातों -बातों में यह भी बताया था कि मुहर्रम पर उठने वाले ताजिए के लिए हम लोगों का प्रयास रहता हैकि हमारे गाँव  का ताजिया अन्य  गाँवों के ताजियों से ऊंचा ही रहे। और हाँ कभी कोई आपस में झगड़ा होता  भी तो किसी ने यह नहीं कहा कि यह टोपी वाला है या यह तिलक वाला है ...। उसे आज भी याद है स्कूली दिनों की वे बातें जब साथ में पढनेवाले एक मुस्लिम सहपाठी से उसका अकसर किसी बात पर झगड़ा हो जाया करता था लेकिन तब किसी ने यह अहसास नहीं होने दिया था कि यह एक मुस्लिम और हिन्दू बच्चे के बीच का झगड़ा है ...लेकिन आज…! आज की यह राजनीति शायद यही अहसास करने पर तुली हुई है।
             वास्तव में सेक्युलर होने की कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती और शायद इसकी कोई परिभाषा होती भी नहीं ...।  मैं कभी-कभी तिलक भी लगा लेता हूँ लेकिन टोपी नहीं पहनता .... और वह भी कभी-कभी टोपी पहन लेता है लेकिन तिलक नहीं लगता .... हम मिलकर बिना भेदभाव के साथ में काम भी करते हैं ....वह अपनी इबादतगाह की ओर चला जाता है और मैं भी कभी -कभी मंदिर की ओर चला जाता हूँ .... हम अपने धार्मिक प्रतीकों को खुले-आम धारण करने में थोड़ा परहेज भी कर लेते हैं , तभी तो जहीर बाबू को एक बार अपनी गोल टोपी को मेरी नजरों से उन्हें छिपाते हुए देखा था, मैंने मुस्कराते हुए उस टोपी को उनके जेब से निकालते हुए उनके सिर पर लगा दिया था। हाँ मैंने भी तो अपने धार्मिक चिह्नों को बेवजह धारण करने में परहेज ही किया है, हम एक दूसरे को अपने को यह या वह होने का अहसास नहीं कराते। हम एक साथ जीते हैं, एक साथ जीना  है..., आखिर इस एक साथ जीने के लिए किस परिभाषा की आवश्यकता हो सकती है ...?  क्या हम सेक्युलर नहीं हैं …! या फिर सेक्युलर होना किसको कहते हैं .....? क्या सेक्युलर होने के लिए किसी ढोंग की आवश्यकता है ...?     

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

बातें हैं इन बातों का क्या ..!

         वास्तव में ये बातें हैं इन बातों  का क्या ...! अन्नाहजारे हों चाहे केजरीवाल हों या कोई और अन्य हो इनकी तमाम बातें हैं पर  इन बातों का क्या ...! है कोई ध्यान देने वाला ..? हाँ एक बात देखने में आ रही है, आजकल कार बाजार की मार्केट  बहुत गिर गई है ....। आर्थिक समीक्षक इसके चाहे जो कारण समझते हों लेकिन कार बाजार के उठने और गिरने का सीधा संबंध भारत सरकार की आर्थिक नीतियों से नहीं बल्कि भारत सरकार की चलाई जा रही तमाम विकास की योजनाओं से है, इन योजनाओं के लिए जारी धन और योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीकों पर ही ऐसे बाजारों का उठना-गिरना निर्भर करता है। केवल कार-बाजार ही नहीं अन्य कई तरह के बाजार इन्हीं योजनाओं से अपनी उर्जा ग्रहण करते हैं, उस पर निर्भर होते हैं ....! शायद हम योजनाए भी तो बाजार को ही ध्यान में रखकर बनातें हैं ...! और ढिढोरा हम अपनी आर्थिक नीतियों का पीटते हैं ...। आखिर क्या कर लेंगे अन्नाहजारे या केजरीवाल अपनी बातों से ....! हम तो बाजार की ओर चले .....।   

शनिवार, 9 मार्च 2013

महाशिवरात्रि

          आज महाशिवरात्रि है, शिव तो जन-जन के देवता हैं| शिव के जिस स्वरूप की कल्पना की गई है वह हमें सीधे प्रकृति से जोड़ देती है, उनके मस्तक पर चन्द्रमा, जटा से निकलती पवित्र गंगा की धारा, गले में साँपों की माला तथा शरीर पर लिपटा भभूत यही उनके श्रृंगार हैं; वह मुकुट नहीं पहनते, आभूषण नहीं धारण करते वह किसी को छोटा नहीं बनाते और यहाँ तक कि उनके गण भी इसी बात को सिद्ध करते है क्योंकि उनके गणों का स्वरूप भी ऐसा ही है, वे भी जैसे आम जनों के प्रतिनिधि हों| और तो और शिव ने तो अपने इस स्वरूप का और सरली करण कर शिवलिंग के रूप में पत्थरों में भी आ गए, जन-जन तक की उनकी पहुंच सुलभ है| बचपन की स्मृतियाँ भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती हैं, जब अपने बाबा के साथ हम गाँव से लगभग ढाई किलोमीटर दूर महाशिवरात्रि के मेले में जाया करते थे, खेतों के मेड़ों से, बगीचों और रास्ते में पड़ने वाले तालाबों के किनारों से होते हुए हम वहाँ पहुँचते थे| उस मेले में ग्रामीणों की बहुत भीड़ हुआ करती थी; सभी वर्गों के बड़े-बूढ़ों को वहाँ एक साथ बैठ कर मस्ती भरे फाग के गीत भी गाते हुए देखा-सुना था| हाँ, वहाँ स्थित शिव मंदिर में श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ हुआ करती थी , मुझे याद है, एक-दो वर्षों तक शायद होने वाली भीड़ के कारण  बाबा मुझे उस मंदिर में नहीं ले गए थे लेकिन बाद में दूसरे या तीसरे वर्ष मंदिर के प्रति मेरी जिज्ञासा को समझते हुए वह किसी तरह भीड़ से बचाते हुए मुझे उस शिव मंदिर में ले गए; पहले तो वहाँ मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया कि लोग यहाँ क्यों उमड़े हैं और क्या कर रहे है ; हाँ मंदिर के बीच में फूलों और बेलपत्तियों का ढेर सा लगा हुआ दिखा, लोग झुक रहे थे, दूध भी उड़ेल वहाँ माथा टेक रहे थे तब मैंने भी उनकी देखा-देखी वैसे ही किया और फिर किसी तरह भीड़ से बचाते हुए बाबा मुझे मंदिर से बाहर ले आये, जहाँ तक मुझे आज भी याद है किसी मंदिर में जाने का मेरा वह पहला अवसर था| उस मेले से लौटने के बाद मैंने बाबा से पूँछा था, ''बाबा वहाँ मंदिर में क्या था|'' तब बाबा ने बताया था, "वहाँ भगवान शिव थे|" मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी मैंने फिर पूँछा था, "लेकिन वह तो मुझे दिखाई नहीं दिए|" उन्होंने कुछ समझाया था उसमें से एक बात मुझे आज भी याद है, "शिव भगवान बड़े भोले हैं वह सबका जहर स्वयं पीते हैं|" मैंने सोचा था शायद उस मंदिर में भीड़ का करण यही था, सभी अपना- अपना जहर शिव पर उड़ेल रहे थे| यही कारण है कि शिव मंदिरों की संख्या  व्यापक है, मूर्ति पूजा कह इसकी आलोचना भी हम नहीं कर सकते वह तो साकार और निराकार दोनों रूपों में आराध्य हैं ; वास्तव में शिव समाज के सभी वर्गों के देवता हैं| उनकी यह महत्ता इसी बात से सिद्ध है कि वह अमृत की राजनीति नहीं करते बल्कि जगत को बचने के लिए विषपान कर लेते हैं इसी लिए तो वह नीलकंठ हैं! ईश्वर-रूप कल्याणकारी शिव की यह कल्पना हमें भी जन-जन से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है| ॐ नम: शिवाय !

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

चेतना तो स्थिरांक है...!

    जीवन और जगत के अनुभव तथा अपने स्वयं के अहसास से उसने यही पाया है कि...चेतना तो स्थिरांक है...! इस ब्रह्माण्ड का कण-कण चेतन है...क्योंकि...यह चेतना इसी ब्रह्माण्ड से उपजती है...दृश्यमान चेतना का विभिन्न स्तर इस बात पर निर्भर होता है कि जिस पदार्थ में यह चेतना परिलक्षित हो रही है उस पदार्थ में वाह्य जगत के अन्य गुणों को ग्रहण करने की कितनी क्षमता है जिसके कारण जगत के अन्य गुण उससे सम्बध्द होते जाते हैं तथा चेतना के स्तर में परिवर्तन होता रहता है...मनुष्य नामक पदार्थ भी इसका उदाहरण माना जा सकता है...मनुष्य बचपन से लेकर जवानी एवं वृद्धावस्था तक तमाम अहसासों से होकर गुजरता रहता है जिसके कारण उसमें परिलक्षित चेतना का स्तर परिवर्तित होता रहता है...जो तथाकथित बुद्धि या विवेक के रूप में दिखाई देती है...यह बुद्धि और विवेक और कुछ नहीं बल्कि मनुष्य नामक पदार्थ की वह क्षमता है जिसके कारण वाह्य जगत के अन्य गुण उससे चिपकते हैं...! वास्तव में यदि हमें चेतना के उच्च स्तर को पाना है तो अपने अहसासों को समझना होगा...अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाना होगा...|