शुक्रवार, 25 मई 2018

ये बचाने वाले लोग!

        ...कुछ लोग "बचाओ-बचाओ" के शोर के साथ मेरी ओर बढ़े आ रहे थे...उत्सुकतावश मैं अपने आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ देखने लगता हूँ ..!! लेकिन संकटापन्न की कोई स्थिति दिखाई नहीं देती ...फिर भी किसी को बचाने के आपद् धर्म के पालन का लोभ संवरण नहीं कर पाता और मैं भी "बचाओ-बचाओ" के उस शोर के आगे हो लेता हूँ ..! अचानक, मेरे कानों में एक कड़कदार आवाज गूँजती है, कोई मुझे रुकने के लिए कहता है और सकपकाया हुआ मैं रुक जाता हूँ...मेरे रुकते ही दौड़कर कुछ लोग मुझे पकड़ लेते हैं और मुझे पकड़नेवालों में जैसे पकड़ने की होड़ लग जाती हैै...! खैर, मैं उन सब के द्वारा पकड़ लिया जाता हूँ...अब वे चिल्ला रहे थे...ये हमने बचा लिया...बचा लिया...!! इस शोर के बीच मुझे ऐसा प्रतीत हुुआ जैसे मुुझे बचाने की छीना-झपटी मची हो...मैं माजरा समझने की कोशिश करने लगता हूँ...

           ... मुझे पकड़े हुए कोई कह रहा है, "मैंने बचाया" तो दूसरे की आवाज सुनाई पड़ी "नहीं, पहले मैंने बचाया.." तो कोई कह रहा था.. बचाने वाला तू कौन होता है...बचाया तो मैंने है.." फिर इन्हीं में से कोई बोल रहा था..."बचाने का सर्वाधिकार हमारे पास सुरक्षित है...हम ही किसी को बचा सकते हैं...तू बीच में कौन होता है...!!" मैं देख रहा हूँ... इस बीच कुछ लोग तू-तू मैंँ-मैं पर उतर आते हैं और मुझे छोड़ आपस में ही गुत्थमगुत्था हुए जा रहे थे..! अचानक...मैं चिल्लाने लगता हूँ, "क्या तमाशा है.. किसे बचा रहे हो..? छोड़ो मुझे..." इसके बाद आवाज आती है, "हम तुम्हें ही बचा रहे हैं...कैसे छोड़ दें...फिर तो, तुम बच नहीं पाओगे.!!"  किसी ने कहा..."देखना, छोडना मत इसे, नहीं तो बचने से बचकर भाग जाएगा यह..! बड़ी मुश्किल से किसी को बचाने का अवसर हाथ आया है..! अब इसे बचाकर ही दम लेना होगा...!!!"

         .....बचाने वाले के हाथों से स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करते हुए बड़ी मुश्किल से मैं बोल पाया..."मैं तो आलरेडी बचा हुआ हूँ भाई...! बचे हुए को क्या बचाना..मुझे बचाने-सचाने की कोई जरूरत नहीं.." लेकिन इन लोगों के बीच मेरी आवाज अनसुनी रह जाती है, जबकि इनके बीच फंसा हुआ मैं नुचा जा रहा था...इनके बीच मेरा दम घुटने लगा था...जैसे मेरा प्राण निकलने वाला हो...मैं बेबस भगवान से प्रार्थना करने लगा...हे भगवान..! मुझे इन बचाने वालों से बचा लो..." एक अजीब सी सडबेचैनी भरे कशमकश में आखिर मेरी नींद टूट जाती है ..!!

        ओह..! डर से मेरी धुकधुकी अभी तक बढ़ी हुई है.. मैंने अपने चारों ओर देखा...मैं बिस्तर पर ही था.. लेकिन डर का आलम यह था कि मुझे यह तसल्ली होने में कुछ सेकेंड और लगे कि मैं कोई स्वप्न ही देख रहा था और मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है..!! फिर मैंने अपने नथुने फुलाए.. बल्कि नथुने को खींच कर नसिका-छिद्र को चौड़ा किया...अब आराम से साँस लेने लगा था...कुछ गहरी सांसें ली.. असल में एक नासिका-छिद्र से साँस लेने में मुझे थोड़ी प्राब्लम होती है..! अब मैं बिस्तर पर उठ बैठा था...

             इस भयावह स्वप्न के पीछे के कारण की मैंने तहकीकात शुरू कर दी... ध्यान आया..! अभी कल ही टीवी चैनलों कुछ ज्यादा ही न्यूज-फ्यूज देख लिया था...लोग-बाग संविधान और लोकतंत्र को बचाने निकल पड़े थे और इसे लेकर चैनलों पर डिबेट में बड़ा चिल्ल-पों मचा था...शायद, इन्हीं समाचारों का मुझ पर कोई प्रभाव रहा होगा...!!

           वैसे तो, अपनी संस्कृति में बचाने का कल्चर बहुत पुराना है, लेकिन संविधान के उद्भव के बाद बचाने के लिए एक आइटम और मिल गया..! संविधान को नेताओं ने आपस में मिलजुल कर बनाया था, इसलिए इसके बचाने का दायित्व नेतागण ही निभाते हैं और इन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा चिन्ता रहती है! शायद इन्हें पता है कि आम आदमी किस खेत की मूली है..संविधान बचाना इसके वश की बात नहीं..!! और हाँ, ये नेता ही हैं, जो यह भी जानते हैं...अगर संविधान न रहे तो देश में, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी टाइप से लोकतंत्र भी नहीं रहेगा..! इसीलिए ये बेचारे अपने नेतृत्व-कला से संविधान में फूँक मार-मार लोकतंत्र की सुरीली तान छेड़ते हैं और इसी में रमे हुए सुखार्जन करते हैं...खैर जो भी हो, हमें संविधान और लोकतंत्र बचाने का श्रेय इन नेताओं को देना ही पड़ेगा...

             एक बात बता दें...अपने देश की आम जनता किसी को बचाने में रुचि भी नहीं रखती..अभी पिछले दिनों एक समाचार पढ़ा...दिल्ली के पास एक नाले में कार समेत गिरकर सात लोग डूब कर मर गए...उन्हें बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया। बल्कि उन्हें डूबते देख उनके गहने और पैसे अलग से लूट लिए गए..काश..! वहाँ कोई नेता होता, तो तय मानिए दौड़कर अकेले ही वह उन सात अभागों को डूबने से बचा लेता..लेकिन उनके भाग में बचना नहीं लिखा था क्योंकि नेता लोग संविधान बचाने से बचें, तब तो आम-आदमी को बचाएँ...!! वैसे भी आम-आदमी लुटेरी और संवेदनहीन होती है..इन्हें बचाने का पाप ये नेता अपने सिर पर लेना भी नहीं चाहेंगे..!!!

         लेकिन, यह तो पक्का हो चला है कि सपने में मुझे नेतागण ही बचा रहे होंगे..अन्यथा बचाने का श्रेय लेने के लिए कोई ऐसे ही आपस में गुत्थमगुत्था नहीं होता..! इस स्वप्न से जागने पर, मुझे एक महत्वपूर्ण सीख मिली...वह कि...किसी बचे हुए को ही बचाना चाहिए...और...बचाते-बचाते उस बचने वाले को बेदम कर देना चाहिए..जिससे इस बात के प्रमाणीकरण में आसानी हो कि इसे बचाया गया है..! अन्यथा वह आलरेडी अपने बचे होने के संबंध में कोई राजनीतिक वक्तव्य जारी कर सकता है और तब, बचाव-क्रिया को मात्र एक राजनीतिक स्टंट माना जा सकता है..! और हाँ..आम आदमी को बचाने का कोई लाभ नहीं है...इसीलिए संविधान को ही बचाना चाहिए..अगर इस देश का संविधान बचा रहेगा तो सब बचे रहेंगे...!

भाईचारे के उन्मूलन में भाईचारे के साथ सहयोग करे!!

         कानपुर की ओर जा रही बस पर मैं चढ़ लिया। बस की साठ परसेंट सीटे भरी थी। एक खाली सीट पर मैं बैठ गया। बस में बैठे यात्रियों पर एक नजर फिरायी। कंडक्टर मेरे पास आया..उससे टिकट बनवाया, मेरे दिए पाँच सौ के नोट से बाकी के रूपए उसने उसी समय नहीं लौटाए। वापसी वाला रूपया टिकट पर लिख दिया..हलांकि, बस में भीड़ नहीं थी, चाहता तो पैसा उसी समय लौटा सकता था। अब मुझे बस से उतरते समय पैसा वापस लेने की बात याद रखना होगा। खैर, बस कंडक्टरों का, बाकी के पैसे तुरंत न लौटा कर इसे टिकट के पीछे लिख देना, एक शगल जैसा बन गया है। 

       सड़क पर बस कूदते हुए चल रही थी, जबकि सड़क चिकनी थी। बस का पहिया या फिर उसका टायर गड़बड़ हो..टायर में गर्टर पड़ा हो...। वैसे, कूद-फाँद करती चलती यह बस खूब खड़खड़ भी कर रही थी..। बस के आगे एक ट्रक चला जा रहा था..उस ट्रक के साथ ही मेरी निगाह अपने बस-ड्राइवर पर भी पड़ी! सोचने लगा, "देखो यह ट्रक को ओवरटेक कर पाता है या नहीं..क्योंकि बस की कंडीशन ऐसी नहीं लगी कि वह ट्रक को पार कर पाए...बस-ड्राइवर सिर पर कैप लगाए हुए था, लेकिन पता नहीं क्यों..!  हो सकता है कैप लगाना उसका शौक हो..। आखिर ड्राइवर ने ट्रक को ओवरटेक कर ही लिया। इस दौरान बस कुछ ज्यादा ही खड़खड़ करने लगी।

          बस में बैठे-बैठे मैं ऊब रहा था, मोबाइल चलाने लगा..बस अब रुक-रुक कर चल रही थी, मने चलती फिर रुकती और फिर चल जाती टाइप से..नहीं-नहीं!  बस खराब नहीं थी...सड़क पर ट्रकों के कारण जाम लगा हुआ था..इस हाईवे पर ट्रक बड़े बेतरतीब और बेढब चलते हैं, जैसे देश में राजनीति चलती है..! पता नहीं कब..कहाँ..किस बात पर निरर्थक जाम लग जाए...बस में कोई कहता सुनाई दिया...देश के एक सौ पैंतीस करोड़ जागेंगे तभी देश की समस्याएँ हल होंगी। मैं सोच रहा था...क्यों जागें बेचारे ये एक सौ पैंतीस करोड़ लोग..? जागेंगे तो असुरक्षित नहीं हो जाएंगे.? मेरे हिसाब से जागा हुआ व्यक्ति अकेले होता है, और जो अकेला होता है, उसे कोई पूँछने वाला नहीं होता..! अभी तो कम से कम इन एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों को अपनी जाति, धर्म, क्षेत्र के भाईचारे का सहारा तो मिल जाता है..!!! और अन्य बचे-खुचे लोग माल-पानी के साथ भाईचारा निभाते हैं..। तो, ऐसे में जागने की गुंजाइश एकदम खतम..! कुल मिलाकर अगर ये जागे, तो समझिए देश में भाईचारा खतम..!! अभी तो इसी भाईचारे से बहुत काम होते हैं.! एक तो यही कि, सबको अपने मन का करने की छूट मिलती है...यही भाईचारा देश में स्वतंत्रता की गारंटी भी है..!! अगर नहीं तो, कोई सिद्ध करके दिखाए इसे..!!! 

           बस रुकी थी..ककड़ी वाला आ गया, एकाध-दो ने उससे ककड़ी खरीदी, तब तक बस चल दी, ककड़ी वाला बस से उतर गया..बेचारा ढ़ग से बेच भी नहीं पाया..फिर खड़-खड़ करते हुए बस चलने लगी। कंडक्टर हाँथ में टिकट मशीन और कांधे पर बैग लिए अपनी सीट से खड़े होकर "घाटम पुर से कौन चढ़ा बस में.." कहते हुए मेरे बगल में आकर खड़ा हो गया। मेरे पीछे किसी का टिकट बनाकर "किसी का टिकट बाकी तो नहीं..?" कहते हुए जाकर अपनी सीट पर बैठ गया और अपने बेबिल पर बस-यात्रियों के आँकड़े भरने लगा। कंडक्टर चश्मा पहने हुए था। मेरा ध्यान मेरे आगे सीट पर बैठे महिला -पुरुष पर गया, वे लगातार आपस में बतियाये जा रहे थे, पुरुष बीच-बीच में अपना सिर खुजलाने लगता। हाँ..ऐसे ही जब पत्नी जी मेरे समक्ष कोई समस्या रखती हैं और मैं उसे नहीं सुलझा पाता, तो मैं भी अपना सिर खुजलाने लगता हूँ। अब तो बिना किसी समस्या के ही मुझे अपना सिर खुजलाते देख कह पड़ती हैं "कोई समस्या सुलझ नहीं पा रही है क्या..!" और मैं सिर खुजलाना बंद कर देता हूँ। 

             कंडक्टर की आवाज कानों में पड़ी "जिसका पैसा बाकी हो ले ले.." कंडक्टर के प्रति प्रशंसित भाव से मैंने सोचा...बेचारा बिना कहे पैसा लौटा रहा है..!! मैंने भी कंडक्टर से अपने बकाए के पैसे लिए...इस खड़खड़िया बस में खड़खड़-ध्वनि के सिवा बाकी शांति है...हलांकि, एक साथ बैठे रहने के अलावा यात्रियों के बीच कोई भाईचारा परिलक्षित नहीं हो रहा है..! एक बात तो है, अगर देशवासियों के बीच भाईचारा न हो, तो देश में बहुत शान्ति रहे..! देश में मचा चिल्ल-पों, शायद आपसी भाईचारे का ही परिणाम है..! मैं तो कहता हूँ, इस देश में भाईचारा अशान्ति का नहीं, जिन्दादिली का पहचान है..!! देश में अमन-चैन या कानून-फानून का पालन होते हुए देखने वालों को, मैं भाईचारे का दुश्मन मानता हूँ..!! आईए!  हम देश से भाईचारे को नहीं कानून-फानून को मिटाएँ..। अगर ऐसा नहीं करेंगे, तो देश से भाईचारा मिटने का भय रहेगा..!! 

            बस के पीछे से टीं-टीं की एक तीखी आवाज कानों में पड़ती है। किसी तरह पास मिलने पर वह बस के आगे आ गई..अपने हार्न के मुताबिक वह "साबुनदानी" ही थी..अकसर ट्रक वाले मारुति की छोटी कारों को "साबुनदानी" ही कहते हैं। इधर बस में थ्री सीटर पर मैं अकेला बैठा था..कमर में हलके दर्द का अहसास होने पर मैं किसी का लिहाज किए बिना उस पर लेट जाता हूँ...वाकई, यहाँ सब को अपनी ही दर्दानुभूदि की पड़ी है..! इन्हीं वजहों से अपने देश में एक-दूसरे का लिहाज करना भी खतम हो रहा है..।

          बस कूदते हुए चली जा रही है और लेटे-लेटे ही मैं, देश में व्याप्त भाईचारे की चिन्ता में निमग्न टाइप का हो रहा हूँ...इधर क्या है कि कुछ असामाजिक तत्व देश में व्याप्त भाईचारे को समाप्त करने का कुचक्र रचते प्रतीत हो रहे हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता, सरकार भी भाईचारे के बल पर ही चलती हैं..!! ये नाहक ही सरकार के दुश्मन बनते हैं..! सरकार में रहते हुए वहाँ भाईचारे की भावना से जो काम नहीं करते सरकार दुश्मनी वश ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देती है..! अलबत्ता कोरट-कचहरी और मीडिया-फीडिया भी कभी-कभी भाईचारे और सरकार दोनों के दुश्मन बनते प्रतीत होते हैं..! और सरकार को भाईचारे के खिलाफ कर देते हैं...! मजबूरन सरकार को भी भाईचारे का दुश्मन बनना पड़ता है..लेकिन, ई कोरट-कचहरी और मीडिया-फीडिया में भी तो भाईचारा का कीटाणु घुस रहा है..!! और ये भी भाईचारे के संरक्षण हेतु सन्नद्ध हो जाते हैं.. 

           चलती बस का पूरा डल्ला-पल्ला हिल रहा था..! बस के खड़खड़ेपना से कुछ ज्यादा ही परेशान होकर मैंने सोचा, "कहीं ई खड़खड़िया बसवऊ न, भाईचारे की देन हो.." और इस विचार के साथ ही भाईचारे से आतंकित होते हुए मैंने सोचा..इस भाईचारे ने तो देश को खड़खड़िया बना दिया है...एक बात बताना जरूरी हो जाता है, कुछ नहीं तो कम से कम आपको सावधान करने के लिए ही...जब कहीं बहुत ज्यादा ही "भाई-भाई" गूँजता हुआ सुनाई पड़े, तो निश्चित मानिए वहाँ भाईचारे का अन्डरवर्ल्ड टाइप से पूरा कुनबा होता है..! फिर यहीं पर भाइयों के भाई भी तो होते हैं..!! 

            बस चली जा रही है...निश्चित ही मुझे यह झकरकट्टी बस अड्डे तक पहुँचा देगी.. फिर तो लखनऊ पहुँचा ही समझिए..! मैं यही सोच रहा था कि एक बार फिर जाम से बस का चक्का जाम हो गया..! यह जाम में फंसे एक दूसरे से भाईचारा निभाते हुए इत्मीनान से खड़े थे कि तभी मेरा बस-ड्राइवर किसी ट्रक-ड्रावर को गरियाने लगता है..! मन ही मन मैं बस-ड्राइवर के हिम्मत को दाद देता हूँ..वह साथ वह ड्राइवरी के भाईचारे से मुक्त हुआ तो बस का पहिया भी थोड़ा ढीला हो गया और उचकते हुए बस चल पड़ी...इधर आप भी मेरी इस बस-यात्रा में मेरे साथ खूब भाईचारा निभा चुके हैं, अगर आपको भी कहीं पहुँचना है तो, इस संदेश के साथ बस से उतर लीजिए, कि "इस देश को गति देने के लिए देश से भाईचारे के सम्पूर्ण उन्मूलन हेतु भाईचारे के साथ आपस में सहयोग करें...!!!"

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

गुड-गवर्नेंस वाली स्कीम

            पहले राजा लोग आलरेडी ईश्वर के अंश होते थे, इसलिए इनका किया-धरा आटोमेटिक "राजधर्म" हो जाता था..! कारिंदों के साथ हाथी-घोड़े पर सवार राजा रिरियाती रियाया के बीच "राजधर्म" का प्रतीक था..! लेकिन आजकल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में "गुड-गवर्नेंस" का कोई क्लियर कांसेप्ट ही नहीं है। इसीलिए "गुड-गवर्नेंस" को समझाने के लिए पृथक से मंचीय-स्कीम चलानी पड़ती है। इस स्कीम के माध्यम से रियाया में गुड-गवर्नेंस की फीलिंग पैदा की जाती हैं..! इसी मंच से भीड़ जुटाकर अधिक से अधिक लोगों तक यही फीलिंग पहुँचायी जाती है। और फिर जुटी भीड़ के अनुपात में गुड-गवर्नेंस को मापा भी जाता है! कुल मिलाकर पेंचीदगियों से भरी यह स्कीम बहुत खर्चीली हो चली है।
             आखिर गवर्नेंस अपने गुडवर्क नहीं बताएगी तो फिर कौन बताएगा..? इसी मंशा से, सरकार अपनी स्कीमों का गुडवर्क बताने के लिए मंचीय-स्कीम टाइप की स्कीम लाती है। जिसकी सफलता के लिए तमाम विभागीय कारिंदें अपना सब काम-धाम छोड़ समर्पण भाव से जुट जाते हैं। इस दौरान गवर्नेंस के ये कारिंदें इस कार्यक्रम में किसी अवांछित गड़बड़ी की आशंका से हलकान भी रहते हैं..! क्योंकि आजकल की गवर्नेंस भ्रष्टाचार पर तो नहीं..! लेकिन ऐसी किसी गड़बड़ी पर तुरंत ऐक्शन मोड में आ जाती है..। खैर..
        आज के लोकतंत्रीय जमाने में ऐसे मंचीय-स्कीमों की जबर्दस्त मांग होती है। एक बार गुड-गवर्नेंस से संबंधित उपलब्धियों के बखान वाले कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी, पशुपालन-विभाग के डाक्टर साहब ने कुछ चिन्तित आवाज में मुझसे कहा -
          "सर जी, क्या करें..दो दिन से हम यहाँ की तैयारी में लगे हैं और वहाँ अस्पताल बंद पड़ा है...एक पशुपालक तो, फोन कर-करके हमें परेशान कर दिया है कि उसका पशु हीट में है...अब आप ही बताएँ, हम क्या करें?"
           थोड़ा विचारते हुए मैंने गुड-गवर्नेंस के प्रदर्शन की स्कीम को उनकी समस्या से अधिक ज्वलंत और संवेदनशील समस्या माना और उन्हें सलाह दिया -
            "यार, उस पशुपालक से कह दो...हम गुड-गवर्नेंस के प्रदर्शन वाली स्कीम में फंसे हैं...आज अपना पशु वापस लेकर चले जाओ..! उसकी अगली हीटिंग पर आना.."
           फिर भी, डाक्टर साहब मिल्क-प्रोडक्शन की धीमी प्रगति पर चिन्तित थे, लेकिन मैंने फिर उन्हें समझाया -
           "वैसे भी ये पशुपालक दूध ही तो बेचेंगे...बछड़े को दूध पीने नहीं देंगे..! या तो वह मरेगा या फिर अन्ना जानवरों के झुंड में शामिल हो अन्ना-प्रथा की समस्या बढ़ाएगा..! जबकि इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी आपकी ही है..! तो, दो कन्ट्राडिक्टरी जिम्मेदारी आप कैसे निभा पाएंगे..? बाकी, यदि नवजात बछड़ा अपनी गौ-माँ का दूध पिये बिना मर गया, या उसे अन्ना-पशुओं के झुंड में छोड़ा गया, तो मिल्क-प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के इस कार्य से आप अलग से पाप के भागी बनेंगे..! अतः मिल्क-प्रोडक्शन की चिन्ता छोड़ किसी पुण्यात्मा की तरह गुड-गवर्नेंस के स्कीम के आयोजन की चिंता करें।"
        मेरी बात उनकी समझ में आयी या न आई हो, लेकिन हमें ठंडा पानी पिलाते हुए वे कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।
          लेकिन, कभी-कभी कुछ अवांछनीय घटनाएं भी घट जाती हैं, एक बार ऐसे ही एक कार्यक्रम की तैयारी में एक सरकारी आयोजक महोदय तल्लीनता के साथ जुटे थे। मंच पर विभाग के मुखिया को आना था। मंच की सीढ़ी पर कालीन टाइप का कुछ बिछाने को लेकर उनकी कटिबद्धता देख, जब मैंने इसे गैरजरूरी बताया तो उन्होंने मुझसे कहा -
        "आप नहीं समझते, हम डिसिप्लिन में रहने वाले लोग हैं, इसी से हमारे काम का प्रदर्शन आंका जाता है..!"
         और उसी बिछायी कालीन से उनकी नजरें धोखा खा गई।  सीढ़ी पर बिछे उस कालीन में उलझ कर वे ऐसे गिरे, कि अपना कूल्हा ही तुड़वा बैठे और प्लास्टर चढ़ाए महीनों अस्पताल में पड़े रहे। इधर उनका महकमा उनके गुड-गवर्नेंस से भी वंचित रहा। खैर..कहने का आशय यह कि गुड-गवर्नेंस का प्रदर्शन ऐसा होना चाहिए कि गुड-गवर्नेंस में कोई बाधा न आए।
             ऐसे मंचों पर सरकारी और असरकारी विंग के वीआईपी टाइप के नुमाइंदो के लिए उचित व्यवस्था की जाती है। एक बार इस मंचीय-स्कीम की व्यवस्था में बाधा देखकर गवर्नेंस का एक आला कारिंदा अपने से छोटे सरकारी कारिंदें को जबर्दस्त ढंग से हड़काए जा रहा था, कि-
           "तुमने ढंग के मेजपोश नहीं लगाए, देखो कैसी सिकुड़न है..कुर्सियाँ भी ढंग की नही लगी...तौलिए का यही कलर मिला था.? ढंग के तौलिए की व्यवस्था नहीं कर सके...मेज एक अदद गुलदस्ते के लिए तरस रहा है...नुमाइंदों के नेमप्लेट भी नहीं लगाए..अरे ये देखो..! मंच पर गमले भी नहीं रखवाए...तुमसे हो चुका विकास...तुम्हें किसने अधिकारी बना दिया..!"
           और वह बेचारा छोटा कारिंदा मुँह लटकाए अपने बड़े साहब की डाट ऐसे खाए जा रहा था, जैसे उसे किसी घोटाले के आरोप में रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो..! बल्कि घोटालेबाजों को देख ऐसे आला डाटबाजों की बाँछें वैसे ही खिल जाती हैं जैसे, वोट के सौदागर किसी आतंकी के नाम के आगे-पीछे "जी" लगाए घूमते हैं..! इसीलिए घोटालेबाज भी आतंकियों की तरह सीना फुलाए घूमते हैं..!! खैर..
           अब इस मंचीय-स्कीम के मंच पर मंत्री से लेकर संत्री तक उदारमना बन जाते हैं। ये अपने वक्तव्यों से अपने गुडवर्क का स्वयं कोई श्रेय नहीं लेते! अपितु गीता-ज्ञान से प्रभावित स्वयं को निमित्त मात्र बताकर ऊपर वाले को कर्ता घोषित कर देते हैं। वैसे तो, अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं में अच्छे या बुरे का कर्ता ऊपर वाला ही होता है, लेकिन भक्ति-भावित जन ऊपर वाले के बुरे को भी अपने लिए अच्छा ही मानते हैं। ऐसी भक्ति-भावना से उपजी गवर्नेंस "ऊपर वाला सब अच्छा करता है, नीचे वाला ही बुरा कर सकता है" जैसे कथन को आप्तवाक्य के रूप में स्वीकार करती है। इस मान्यता के कारण ऊपर वाला नीचे वाले पर सदैव कृपादृष्टि बनाए रखता है और गुड-गवर्नेंस के "गुुड" में अपनी हिस्सेदारी मानता है।
          अकसर इन मंचों से लोकतंत्र के नुमाइंदे और कारिंदे प्रजा के मस्तिष्क की ऐसी प्रोग्रामिंग करते हैं कि रोबोट भी शरमा जाए..! फिर तो इस रोबोटिक-प्रजा से उसके अपने ही घर में आग लगाने का काम कराया जा सकता है..! इसका प्रमाण जब-तब धूँ-धूँ कर जलते अपने देश में देखा जा सकता है। या, इसी प्रजा में गुड-गवर्नेंस की फीलिंग देने वाले साफ्टवेयर के अपलोडिंग से कोई भी अपने लिए धन्य-धन्य भी बोलवा सकता हैं..! इस तरह अपने यहाँ के लोकतंत्र में साफ्टवेयर-इंजिनियर टाइप के नुमाइंदे होते हैं..!!
           लेकिन टेक्नोलॉजी के अपने खतरे भी होते हैं, अपनी पार्टी की एक चुनावी हार के बाद एक ऐसा ही साफ्टवेयर इंजिनियर एक दिन अपना दुखड़ा रोते हुए मुझसे बोले -
           "कुछ भी कर लो इनके लिए...चाहे जो कर दो, लेकिन इन्हें हमारे अच्छे काम से, जैसे कोई मतलब ही नहीं..! किस बात पर हराएँ या जिताएँ..कोई भरोसा नहीं..!"
          हलांकि मैं उनसे कहना चाहता था, "नेता जी..! ये जो आपकी प्रजा है न, रोबोटिक-प्रजा..! या तो वाइरस से आपकी प्रोग्रामिंग करप्ट हो गई होगी या फिर किसी चतुर-सुजान ने मौका देखकर फिर से इनके दिमाग की प्रोग्रामिंग कर दी होगी..! जो चुनाव में आपकी पार्टी के हार का कारण बनी.."
           और, मैं उनसे यह भी कहता -
         "आप देश की जनता को इंसान या नागरिक नहीं अपितु वोटर समझते हैं...प्रजा तो आपके लिए यह पहले से है..! आपका गुड-गवर्नेंस जनता के इस प्रजापन और वोटरपन के बीच भटकता है..। इसीलिए जनता को इससे कोई मतलब नहीं और जब जिस लोकतांत्रिक नुमाइंदे का साफ्टवेयर भारी पड़ता है, वह जीत जाता है..आपके चुनावी हार-जीत का यही कारण है, विकास तो होता-हवाता रहता है..एक बात और, मंच से दमकते हुए आप जब इन्हें अपनी रियाया समझ अपने गवर्नेंस का बखान करते हैं न, तो आपके गवर्नेंस से जलभुनकर आपके यही वोटर आपसे कन्नी काट जाते हैं...और किसी दूसरे को अपने वोट से ऐश करने का मौका दे देते हैं... आखिर ईर्ष्या भी तो इस देश के मूल स्वभाव में है..! समझे..?"
          लेकिन मेरी बात लंबी थी और वो नुमाइंदे महोदय मुझे सुने बिना चले गए। मैं मन में यही गुनता-धुनता रहा कि इस देश में प्रजा और वोटर के सिवा इंसान भी रहते हैं या नहीं? और अंत में, मैं उनसे यही पूँछता-
           "लोकतंत्र की गुड-गवर्नेंस वाली आपकी यह स्कीम किसके लिए है..? इंसान या नागरिक या प्रजा या फिर वोटर के लिए..? पहले यह तो कन्फर्म करिए..!"
                          .......

मंगलवार, 13 मार्च 2018

मूर्तियों के देश में!

       सबेरे-सबेरे सोकर उठा तो तरह-तरह के उवाचों और हो-हल्लों के बीच मैंने अनुमान लगा लिया कि हो न हो लोकतंत्र पर एक बार फिर कोई खतरा मँडरा रहा है..!! वाह भाई वाह..! अपने देश में लोकतंत्र तो बड़ा पिद्दी निकला..!! एक खतरे से फारिग नहीं हो पाता कि दूसरा खतरा आ घेरता है। जबकि इसी देश में और भी तमाम चीजें हैं, लेकिन उनपर खतरा नहीं मँडराता..! यह लोकतंत्र भी न, लोकतंत्र न होकर जैसे कोई जू-जू का बच्चा हो, जब देखो तब खतरे में पड़ा रहता है।

            आँख मींचते बिस्तर छोड़ मैं उठ खड़ा हुआ और इन जैसे तमाम खतरों के बीच अलसुबह ही अपने वाले भगवान की मूर्ति का दर्शन करने निकल पड़ा। चलते-चलते क्षितिज पर उभर रहे सूरज पर निगाह गड़ी और मैंने "जानि मधुर फल" वाले सौन्दर्यबोध के साथ उन लाल बाल-सूरज को लाल सलाम दिया। वैसे भी, इस सर्वहारा टाइप के देश में लोकतंत्र, लाल रंग के राजनीतिक सौन्दर्यबोध के बिना चल नहीं सकता। इधर सूरज महाशय भी, निहारते-निहारते लाल से पीले होते गए और उनके सौन्दर्यबोध कराने की क्षमता से मैं सहम गया ! समय के साथ रंग बदलते सूरज मुझे बेहद लोकतांत्रिक टाइप के प्रतीत हुए। इस बीच मैंने देखा, चमकीले होते सूरज की देखरेख में चिड़ियों का एक झुंड भी मजदूरों की तरह धूप में पसीना बहाने उड़ चला लेकिन इधर हम अभी सूरज से लाल सलामी पर ही अटके थे!

         खैर, परिवर्तन को प्रकृति का नियम मानकर मैंने किसी छवि से चिपकना उचित नहीं समझा। क्योंकि अकसर मैंने प्राचीन होती मूर्तियों को म्यूजियम में ही पहुँचते देखा है ! ऐसे ही उस दिन पुरानी मूर्तियों को कला-नमूनक के तौर पर मैंने वहाँ संरक्षित देखा। लेकिन, इस प्रत्यक्षीकरण के साथ मैं मूर्ति-भंजक कला से भी परिचित हुआ तथा वहाँ संरक्षित सभी मूर्तियों को खंडित अवस्था में देखा। जैसे, किसी की नाक टूटी, तो किसी का सिर विहीन धड़, तो किसी की टांग टूटी मिली..! मूर्तियों के इस खंडन-कला को नायाब-नमूना मानने वाला ही था कि गाइडनुमा उस व्यक्ति के यह बताने पर कि सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले मूर्ति-विरोधी शासकों की मूर्ति-भंजक कला का ये नमूना भर हैं! मैं उस मूर्ति-भंजन कला पर सिहर उठा। फिर विस्मित होते हुए सोचा, "म्यूजियम में संरक्षित इन खंडित मूर्तियों को देखकर जन्नत से अपनी इस कला पर वे आज अवश्य ही गर्वित होंगे !" क्योंकि, यहाँ आकर अब ये कलात्मक प्रदर्शन की चीज बन चुकी हैं।

            हलांकि, इन सब के बीच एक क्षण तो मूर्ति-भंजकों के प्रति कोफ्त हुई, लेकिन अगले ही पल भंजन-कला में क्रूरता देखने से मन ने इनकार कर दिया। बल्कि, मुझे ऐसे लोग लोकतंत्र के प्रेेेेमी के साथ ही लोकतंत्र के सेनानी टाइप के लगे ! और फिर म्यूजियम के उस परिसर में तलवार हाथ में लिए अकड़ से मूर्तिवत खड़ा वह राजा भी अपने समय का, भावी भारत के लोकतंत्र और यहाँ के सर्वहारा-वर्ग का प्रणेता जान पड़ा। वाकई ये राजा लोग, जिनके होते हुए यह खंडन-कला विकसित हुई होगी, बड़े जीवट वाले दूरदर्शी तथा बहादुर रहे होंगे। निश्चित ही, हजार या सैकड़ा साल पहले इनके ऐसे ही ठाट-बाट के सामने मूर्ति-भंजन किया गया होगा..!!  इसी के साथ मूर्ति-भंजकों और इस अकड़ूँ राजा के प्रति मन श्रद्धावनत होकर सोचने लगा, "अहो..! यदि ये उस समय न होते, तो हम आज एक महान लोकतांत्रिक देश बनने की ओर अग्रसर ही न हुए होते..बताइए..! न जाने ऐसी कितनी मूर्तियों के बनने और टूटने के बाद यह देश आज के जैसा बना होगा..!!" इस प्रकार अपने देश का लोकतंत्र, मूर्ति-गढ़क मजदूर से लेकर मूर्ति-पूजक से होते हुए मूर्ति-भंजक तक की एक महान-यात्रा है, जिसके हर एक पड़ाव पर एक महान देश-प्रेमी मिलेगा।

            वैसे भी, इस देश में मूर्ति-विसर्जन का कल्चर भी है, पूजा हुई नहीं कि मूर्ति विसर्जित..!! वाकई, इस कल्चर में बाजे-गाजे के साथ भीड़ के सामने बकायदा उत्सव-भाव से विसर्जन कार्य संम्पन्न किया जाता है और विसर्जित मूर्ति अपने एकाकी पन के साथ क्षरित होते हुए घुलती रहती हैं। मतलब आगे फिर मूर्तियों के गढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, इससे मजदूरों को काम मिलना एवं व्यापारियों का बिजनेस बढ़ना हो जाता है। इधर लोकतंत्र के नुमाइंदों के बीच, मजदूरों का भल्लोभाई बनने के चक्कर में उनकी गढ़ी मूर्तियों पर फूलमाला चढ़ाने की प्रतिस्पर्धा भी विकसित हो जाती है। जिससे फूलों की खेती को बढ़ावा मिलने के साथ किसानों की पौ-बारह होती है। शायद यही कारण है कि इस देश का सर्वहारा वर्ग गद्गगद होकर छेनी-हथौड़ा लिए झोला उठाए कहीं भी, किसी की भी मूर्ति गढ़ने के लिए तैयार बैठा रहता है। इस कल्चर में, हमारे देश के परम लोकतांत्रिक-देश बनने और आर्थिक आत्मनिर्भरता का भरपूर स्कोप छिपा है।

              इन स्थितियों के बरक्स मूर्तियों का बनना या बिगड़ना, तोड़ना या तुड़वाना या इनका विसर्जन करना ही लोकतंत्र है, इसी कल्चर में पले-बढ़े हम लोकतांत्रिक देश बने। आखिर, जिन देशों में मूर्तियों का कल्चर नहीं होता वे निरे अलोकतांत्रिक टाइप के होते हैं और लोकतंत्र वहाँ पानी भरता होगा या फिर खूबसूरत म्यूजियम वाले विकसित टाइप के देश होंगे। अपना देश तो विकासशील लोकतांत्रिक देश है, तमाम उवाचनुमा हो-हल्ला यहाँ लोकतंत्र के पुष्ट होने का प्रमाण है। कुछ भी हो, अपने देश के लोकतंत्र का लबादा भी यहाँ की मूर्ति-कल्चर जैसा ही है।

          इधर जिसे कोई भगवान मान ले उसकी परिक्रमा करना भी जरूरी होता है। अन्यथा उसे अपने भगवान की कृपादृष्टि हासिल नहीं होती। एक बात है, आराध्य की कृपादृष्टि पाने के लिए उनके परिक्रमा पथ पर अपने तर्क और बुद्धि को पीछे छोड़कर चलना होता है, शायद तभी अपने अच्छे दिनों की कामना करनी चाहिए। मैं भी अपने भगवान के परिक्रमा-पथ पर था, उस पथ पर सुध-बुध खोए श्रद्धालुओं के बीच भिक्षार्जन हेतु तरह-तरह के दिव्यांग टाइप के लोग कतार में बैठे मिले। जिनकी ओर मैंने एक फूटी कौड़ी भी नहीं फेंकी। इसी बीच एक पीत वस्त्रधारी मुस्टंडा मेरे लिए अच्छे दिनों के अपने आशीर्वचनों के साथ मेरे पीछे हो लिया। मैंने अपने अच्छे दिनों की कामना में दिव्यांगों का खयाल किए बिना उसे दस रूपए का एक नोट पकड़ा दिया और दक्षिणा पाते ही वह मुस्टंडा आशिर्वचनों के साथ वापस हो लिया। इधर मैं भी परिक्रमा पूरी कर चुका था। वाकई!  जिस देश में मूर्तियाँ होती हैं, वहाँ ऐसे ही परिक्रमा-पथ होते हैं।

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

सरकारी घोड़े और नेतागीरी

          उस दिन जब मैं बस में चढ़ा तो वह खचाखच भरी थी। उसमें मेरी सीट आरक्षित थी, इसलिए इसके चलने के समय ही मैं इसमें सवार होने को पहुँचा था। सीट आरक्षित इस मायने में कि मेरा फॉलोअर (वैसे इस शब्द से मुझे एतराज है) बस में मेरे लिए सीट कब्जाए हुए था।  हाँ, एक बात तो है, कोई कितना भी बड़ा तोप हो जाएं, लेकिन इस देश का लोकतंत्र अब इतना भी गया गुजरा नहीं रह गया है कि बस की सीट से किसी आम-यात्री को जबरिया उठाकर कोई बैठ जाए। और, ऐसे अलोकतांत्रिक कृत्य से आज का बड़ा से बड़ा तानाशाह भी बचना चाहता है। इन्हीं वजहों से किसी देश में तानाशाही वाले शासन को भी मैं अलोकतांत्रिक नहीं मानता! 

          मुझे बस में चढ़ते देख फॉलोअर उठ खड़ा हुआ। सीट पर बैठते ही मैंने उससे कहा, "यही सीट मिली थी तुम्हें..! अरे, बस में बीच वाली सीट लेते..।" उसके अनुसार, मेरे लिए सीट कब्जियाते समय बस लगभग भर चुकी थी..यही एकदम आगे वाली सीट खाली मिली थी। खैर, मैं बस में बैठ गया, ठीक मेरे बगल में एक पढ़ी-लिखी स्मार्ट सी युवती बैठी थी, जो अपने मोबाइल में खोए हुए ही बीच-बीच में सामने बस की बोनट के बगल की सीट पर बैठी महिला से इशारों में कुछ बात भी करती जा रही थी। हलांकि उसका इशारों में बात करना मुझे कुछ अजीब सा लगा था। 

          इधर बस की गति धीमी ही थी और कंडक्टर टिकट बनाने में मशगूल था। मेरे बगल में बैठी लड़की अपने मोबाइल में अभी भी व्यस्त थी। इस दौरान मैंने अपना टिकट बनवा लिया, फिर मैंने ध्यान दिया, बस की गति अब तेज हो चुकी थी, शायद ड्राइवर को भी यात्रियों के टिकट बन जाने का इंतजार था। वह भी भाई-चारे में ट्रैफिक इंसपेक्टर-फिंस्पेक्टर से कंडक्टर को सुरक्षित रखना चाहता होगा। बस के अंदर सारी स्थितियाँ सामान्य थी और बतियाने वाले एक-दूसरे से बतिया रहे थे। मेरे पीछे सीट पर बैठे किसी व्यक्ति की तेज, तल्ख और भारी आवाज मुझे सुनाई पड़ी-  

     

      "बुंदेलखंड तो, सरकारी घोड़ों के लिए हरी घास का मैदान है।"

        यह उसका किसी से बतियाने का स्वर था। आवाज मुझे रूचिकर प्रतीत हुई। इस पर कान देने की कोशिश के साथ ही मैंने बस की खिड़की से बाहर झाँका, कोई घास का मैदान-वैदान मुझे नजर नहीं आया। बल्कि बड़े-बड़े मैदाननुमा धूल-धूसरित खेत और जमीन से लेकर आसमान तक गर्दोगुबार छाया हुआ दिखाई पड़ा। इसे देखते हुए मैंने सोचा-

       "इस गर्दोगुबार के सिवा यहाँ तो कोई हरा मैदान नहीं दिख रहा..! ये घोड़े घास कहाँ चरते होंगे? "

        कुछ क्षणों बाद पीछे बैठे उसी व्यक्ति की आवाज मेरे कानों में फिर पड़ी-

      

        "यहाँ कोई नेतागीरी नहीं है। अधिकारियों, कर्मचारियों की बल्ले -बल्ले है।"

     

       चलती बस में, खिड़की से बाहर झाँकते हुए मैंने सोचा-

        "वाकई! यहाँ बड़े-बड़े खेतों में लगे इन पत्थर के क्रेशरों से उठते गर्दोगुबार ने वातावरण को जबर्दस्त धुंधमय बना दिया है।"

         अचानक मन-मस्तिष्क में यही गर्दोगुबार, धुंध, घास, हरा-मैदान, सरकारी घोड़े, नेतागीरी सब मिल गड्डमड्ड होकर उछल-कूद करने लगे! एक अजीब सी बेचैनी में, मैंने बस की खिड़की से बाहर झाँकना बंद कर दिया। 

       बगल में बैठी युवती पर ध्यान गया। वह अपने एक हाथ में मोबाइल पकड़े उसकी स्क्रीन पर आँख गड़ाए दूसरे हाथ से इशारे करती हुई बातचीत की भाव-भंगिमा में दिखाई पड़ी। उसके मुँह से कभी-कभी अस्फुट सी ध्वनि निकल जाती। जिज्ञासा वश मैंने एक उड़ती सी निगाह उसके मोबाइल-स्क्रीन पर डाली। स्क्रीन पर भी एक महिला उसी तरह इशारों में बात कर रही थी। अचानक मुझे आभास हुआ -

        "तो..यह स्मार्ट सी लड़की गूँगी-बहरी है..!"

         उसे देख उसके जीवन की सुगमता और सुरक्षा के प्रति हमारी और समाज की संवेदनशीलता को लेकर मन में तरह-तरह के खयाल आए। लेकिन, उस लड़की के चेहरे पर झलक रहे आत्मविश्वास से मुझे राहत की अनुभूति हुई। आगे एक छोटे से कस्बे के अपने गंतव्य पर वह लड़की बस से उतर गई थी। 

        अब उस लड़की के साथ कस्बा भी पीछे छूटता जा रहा था। मैंने सोचा, चीजे ऐसे ही अकसर पीछे छूट जाती हैं। उसी समय मेरे पीछे बैठे उसी व्यक्ति की आवाज मुझे फिर सुनाई पड़ी-

         "ये सब सचिव-फचिव (मैंने ग्राम स्तरीय सचिव माना) सब लाखों में खेलते हैं.. पहले जहाँ पैदल चलते थे, वहीं अब इनके पास एक से एक गाड़ियाँ हो गई हैं..ऐसा कोई नहीं जिसके पास चार-छह प्लाट-जमीन न हो.."  

          इसके बाद फोन पर किसी से बात करती उसकी आवाज सुनाई दी-

         "हलो..कोटेदार..! हाँ.. अच्छा..अच्छा.. दिल्ली में हो.. कल आ जाओगे! यहाँ एस डी एम बदल गया है.. नए वाले से बात की जाएगी.. प्रधानमंत्री पोर्टल वाली शिकायत आ गई है...वो साला इंसपेक्टर बदमाशी कर रहा है...वो उससे (किसी नेता का नाम) डर के ऐसी रिपोर्ट लगा रहा है... अच्छा आ जाओ, तो चलते हैं उस इंसपेक्टर के कमरे पर... साले को कमरे में बंद कर..ठीक कर दिया जाएगा.."

        उसकी इन बातों को सुन मैं पशोपेश में पड़ गया, सोचने लगा -

         "यहाँ आम-आदमी...नेता..गुंडागीरी...अधिकारी...घोड़ा...घास आदि सब तो एक दूसरे में उलझे हुए हैं..! कौन सी कीमोथेरेपी सफल होगी कि इन्हें एक-दूसरे से अलग कर असली कर्ताधर्ता को पहचाना जाए ?" 

    

         और, मैंने सोच-विचार में अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि खर्च किया तथा अपने विचार इस बात पर स्थिर किए-

         "बुंदेलखण्ड में राजनीति और सरकारी घोड़ों के बीच इस बात पर जबर्दस्त आपसी समझ विकसित हो चुकी है कि, सरकारी घोड़े हरी घास चरते रहें और राजनीति गर्दोगुबार उड़ाती रहे..! मने दोनों का काम चलता रहे..!! सच में, इसी वजह से यह क्षेत्र सरकारी घोड़ों के लिए हरी घास का मैदान है..!! कुल मिलाकर मरन तो यहाँ हरी घास की ही है।"

            खैर, उस व्यक्ति के अपने गंतव्य पर उतर जाने के बाद मैंने भी उसकी बातों को पीछे छोड़ते हुए सोचा-

           "अगर कोई जाम-साम न मिला तो समय से यह बस हमें भी पहुँचा देगी..बस-ड्राइवर, ड्राइवरी में होशियार है।"

         लेकिन यह खुशफहमी ज्यादा देर टिकी नहीं। अचानक सड़क पर दिखाई पड़े एक व्यक्ति के इशारे से बस रुक गई। उसके और हमारे बस-ड्राइवर के बीच न जाने कौन सी गुफ्तगूँ हुई और ड्राइवर बस से उतर गया। लगभग सात-आठ मिनट बीतने के बाद "कोई समस्या फंसी है" सुनकर मैं भी अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए बस से उतर लिया। 

          पता चला कि बस-डिपो से, हमारे बस-ड्राइवर को एक अन्य समस्याग्रस्त रोडवेज बस को तीन किमी पीछे पुलिस चौकी पर खड़ा कर आने के निर्देश मिल रहे हैं और ऐसा करके ही वह अपनी बस आगे ले जाए। मैंने अनुमान लगाया कि उस बस को पुलिस चौकी पर खड़ा कर वापस आने में ड्राइवर को लगभग एक घंटे का विलम्ब हो सकता है। मेरे पूँछने पर ड्राइवर ने फोन मेरे हाथ में देकर बस-डिपो वाले से बात करने के लिए कहा, लेकिन डिपो वाले ने मेरी बात नहीं सुनी। डिपो वाले मुझे जानते थे, लेकिन मैंने अपना परिचय देना उचित नहीं समझा। ड्राइवर ने हमसे अपनी मजबूरी बताई और उस बस को पुलिस चौकी पर छोड़ने जाने के लिए तैयार हो गया। 

       

           लेकिन, मैंने बस-ड्राइवर और कंडक्टर दोनों से सैकड़ों यात्रियों के विलम्ब का हवाला दिया, इस बीच एक-दो और यात्रियों ने मेरा साथ दिया। खैर, मेरे समझाने पर ड्राइवर भयभीत-मन से (बस-डिपो के अधिकारियों से) अपनी सीट पर आया और बस चली। ड्राइवर ने मेरा फोन नम्बर भी इस उद्देश्य से लिया कि डिपो से कोई समस्या होने पर हमसे बात करा देगा। 

           इधर चलती बस में, मैं इन प्रश्नों में खो गया - " अगर ऐसी ही समस्या किसी अन्य देश में होती, तो क्या वहाँ भी बस-ड्राइवर से अपनी यात्रियों भरी बस छोड़ दूसरी बस को टोचन करने के ऐसे ही निर्देश दिए जाते? या वहाँ ऐसी समस्याओं के लिए पृथक से कोई व्यवस्था होती होगी..?"

         मैं इसका उत्तर खोजने में मशगूल था कि हमारी बस एक बार फिर झटके के साथ रुक गई। पता चला कि टी. आई. साहब हैं, बस की जाँच करेंगे। अबकी बार कंडक्टर बस से उतरा, और इस प्रकार जाँच-फांच होते-हवाते करीब दस मिनट बाद बस चली। 

            जब हम बस से उतरे, तो हमारी बस-यात्रा के लिए निर्धारित समय में, एक घंटा और जुड़ चुका था।