मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

शराफ़त

         शराफ़त से ही कोई शरीफ़ बनता है। शराफ़त अकसर चादर या फिर चोंगे की शक्ल में होता है। जब तब आदमी इसे ओढ़ या पहनकर शरीफ़ बन जाता है। मतलब किसी आदमी के लिए शराफ़त एक कामन फैक्टर की तरह भी होता है, जिसे ओढ़ा या दसाया जा सकता है और फिर हर कोई शरीफ़ हो सकता है। शायद इसीलिए, शराफ़त बड़ी नाचीज़ सी चीज भी मानी जाती है और शरीफ़ को देखकर लोग अकसर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। चलिए यहाँ तक तो गनीमत है लेकिन शरीफ़ लोगों पर शराफ़त आफत भी ढाती है, लोग अकसर कह बैठते हैं कि "शरीफ़ बेचारे अपनी शराफ़त में ही मारे जाते हैं" और शरीफ़ अपनी शराफ़त के चक्कर में बाईपास कर दिए जाते हैं। बहुत पहले अपने अध्ययन-काल में शरीफ़ों की ऐसी ही दुर्दशा का आभास मैंने कुछ इस तरह से किया था--
क्या कहूँ, यहाँ 
वह हो उंकड़ूँ, बन
बैठा, कोने का एक
पीकदान! 
गर्वित वे, थूंक,
चिरत्रिषित, विजिगीषु 
आगे बढ़ जाते। 
           खैर, यह कविता टाइप की अभिव्यक्ति थी, जिसे मैंने भावुकता में आकर कही थी।
            पहले शरीफ़ लोग आसानी से पहचान में आने वाले जीव हुआ करते थे, इसीलिए "फलां शरीफ़ किस्म का है" इस पर मतैक्यता हुआ करती थी। लेकिन आज का सारा झगड़ा तू शरीफ या मैं शरीफ़ से होते हुए शराफ़त पर आ पहुँचा है। मल्लब आज शराफ़त पर ही कांसेप्ट क्लियर नहीं हो रहा है और फिर इसकी समझाइश में, शराफ़त गई तेल लेने के अंदाज में लोग अपने-अपने तईं शरीफ़ बने फिर रहे हैं।
            वैसे, पहले अपने देश की जनता आजादी के समय के आदर्शवादी मनोविज्ञान से पीड़ित थी, बेचारी यह जनता भावुकता में पड़कर किसी को भी शरीफ़ घोषित कर देती थी और शरीफ़ लोग अपनी शराफ़त का भरपूर मजा लूटते थे। पहले के शरीफ़ों की शराफ़त, छायावादी कविता में रहस्यवाद जैसी होती थी जो शरीफ़ों को आध्यात्मिकता की भावभूमि पर ले जाकर स्थापित कर देती और शराफ़त का सम्मोहन लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। फिर भी उस समय शराफ़त का मजा कुछ लोग ही उठा पाते थे। इसके बाद प्रगतिवाद-प्रयोगवाद से होते हुए नई कविता और अ-कविता का जमाना आया। अब भावनाएं जमीन तलाश रही थी, जमीन की बात लोगों को समझ में आयी और लोग कवि बनने लगे थे। मतलब अब चीजों को समझना और समझाना आसान हुआ था, फिर तो लोगों को शराफ़त भी समझ में आयी और लोग शरीफ़ भी बनने लगे। यहाँ आकर शराफ़त जमीन पर उतर आयी थी। जमीन पर उतरी शराफ़त में तमाम कर्म-पुद्गल आकर जुड़ते रहे और यहीं से शराफ़त, चोला धारण कर शरीरी हो चुका था। अब शराफ़त की बजाय शरीफ दिखाई देने लगे थे। इसी कारण आज के युग में शरीफ़ों का ही बोलबाला है। चहुँओर शरीफ़ लोग एक दूसरे पर पिले हुए अपने-अपने शराफ़त के पैमाने को जनता की ओर लकलकाते हुए जैसे कह रहे हों, "यह रही हमारी शराफ़त..हम अपनी शराफ़त से आपका जीवन सुधार रहे हैं।"   

            खैर, जनता बेचारी तो जनता ही है जो जानती तो सब कुछ है लेकिन कर कुछ नहीं पाती, उसे शराफ़त से क्या लेना-देना..! जनता कभी संभ्रांत तो रही नहीं कि उसे शरीफ माना जाए और अगर आप जनता से पूँछने जाएँ कि, "भइया शराफ़त क्या है? तो तय मानिए यह जनता आपको घूरते हुए कहेगी," साहेब यह जो शराफ़त है न, वह बड़े लोगों के चोंचले हैं..।" मतलब कुल मिलाकर बड़े लोगों के बडे़ होने के पीछे उनके "शराफ़त" का ही हाथ होता है। अकसर ये शरीफ लोग अपने सिवा सबको शराफ़त का पाठ पढ़ाते हुए देखे जाते हैं। बेचारे गरीब को शराफ़त का ऐसा पाठ पढ़ाया जाता है कि वह मुँह खोलने लायक ही नहीं रहता। वह मुँह खोले तो उठाईगीर कहा जाएगा। अब कौन मुँह खोले..! शराफ़त जो चली जायेगी..!! खैर... 
              बचपन की बात है, गांव में एक बार कुछ बाहरी लोग आए थे, पूँछने लगे थे कि इस गांव में इज्जतदार लोग कौन हैं, तो किसी ने बताया था कि फला टाइप के संभ्रांत लोग हैं जो इज्जतदार और शरीफ़ भी हैं। अब जाहिर सी बात है जो इज्जतदार हैं वह शरीफ़ होगा ही। इस प्रकार तब मैंने अपने बचपन में जाना था कि शरीफ़ लोग इज्जतदार भी होते हैं। वैसे इज्जतदार बनने में पिसान लगता है सबके बस की बात नहीं है इज्जतदार बनना..! इस पिसान की जुगाड़ में कुछ-कुछ मुखियागीरी टाइप का करना पड़ता है। यह बात हमने तब जानी जब हम शरीफ़ बनकर कुछ काबिल बन चुके थे।
           एक बार हम अपने इसी काबिलपने के साथ ऐसे ही एक गाँव में गरीब छाँटने पहुँचे। एक मरियल सा आदमी जो मैला-कुचैला कपड़ा पहने हुए था, मेरे पास आकर मेरे गरीब-छंटाई पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए जार-जार अपनी बात कहने लगा। फिर क्या था..! वहीं पर मौजूद संभ्रांत व्यक्तियों में से शरीफ टाइप के दो लोग उठे और उसका चिचुरा पकड़ कर टांगे हुए से उसे सभास्थल से बाहर लेकर चलते बने थे। अन्त में कार्यक्रम की समाप्ति पर जब वह फिर मिला तो रुआंसा हो कहने लगा था, "साहब हमै नहीं बोलने दिया जा रहा..आप ठीक से जाँच करिहौ.." उसकी बात पर वहाँ मौजूद शरीफ़ लोग उसपर हँसते हुए बोले थे, "सासुरा यह ऊठाईगीर है, अपनी ऊठाईगीरी से बाज नहीं आता और ऐसेई बोलता है"। मैं समझ गया था गाँव के संभ्रांत और इज्जतदार लोग शरीफ़ होने के लिए ऐसा ही करते हैं। कुल मिलाकर ये लोग शराफ़त पर कब्जा किए हुए लोग थे। 
           
            वाकई! आप माने या ना माने मैं समझ गया था कि शराफ़त शरीफ लोगों का स्टंट होता है। शरीफ़ आदमी की शराफ़त संभ्रांत लोगों की बपौती होती है और जो अक्सर खानदानी हुआ करते हैं। खानदानी लोगों की शराफ़त चल निकलती है, अन्यथा लोग शराफ़त पर अपना कांसेप्ट ही क्लियर करते रह जाते हैं। शायद यही कारण है कि हमारे देश में खानदानी लोगों का बड़ा महत्व होता है। शराफ़त को लेकर इनके सामने दूसरे की दाल गल ही नहीं पाती।
            यहाँ एक औार बात की चर्चा करना समीचीन होगा अगर आपको किसी की शराफ़त समझनी है तो पहने चश्मे को भले ही मत उतारें पर इसे नाक पर थोड़ा नीचे खिसकाकर चश्में के ऊपर से देखना शुरू करें, तब किसी शरीफ की शराफ़त समझ में आयेगी। इस बात की शिक्षा मैंने अपने एक गुरू जी से पायी थी। अकसर वे पढ़ाते-पढ़ाते अचानक रुक कर चश्में को नाक पर खिसकाकर हम बच्चों को ध्यान से देखने लगते और फिर धीरे से किसी बच्चे को बुलाकर उसका कान उमेठ देते थे और गुरु जी के साथ ही वह बच्चा भी अपनी शराफ़त समझ जाता।
              आजकल मैं शराफ़त को लेकर बहुत चिन्तित हो जाता हूँ। उस दिन किसी ने कह दिया था, "आप तो बड़े शरीफ आदमी हो.." बस पूंछिए मत! तब मैं अपनी शराफत पर घंटों विचारमग्न हो सोचता रहा था। अपनी इस शराफत पर रोऊं या हंसूू मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था.. पता नहीं उन्होंने मुझे शरीफ क्यों कह दिया था..! असल में शरीफ़ आदमी के बारे में मैं अकसर लोगों को कहते सुनता हूँ, "जाने दो, वह बेचारा शरीफ आदमी है।" हाँ, यह जो शरीफ आदमी होता है न वह नाकाबिलेगौर शख्स जैसा ही होता है। मेरे एक मित्र के अनुसार "शरीफ आदमी तो मंदिर में टंगे घंटे की तरह होता है...बस, सत्संग के वक्त ही इनकी जरूरत पड़ती है! मंदिर गये घंटे को ठोका.. टन..की आवाज हुई और चलते बने...!" मित्र ने यह सब समझाते हुए यह भी कहा, "आप ठहरे शरीफ आदमी" आप नहीं समझ पायेंगे। मित्र की बात से मानो मुझपर घड़ों पानी पड़ गया था। मतलब उन्होंने मुझे मंदिर का घंटा घोषित तो किया ही नासमझ भी बता दिया था और अब मैं अपने को एक ठहरा हुआ शख्स भी मानने लगा था। उन मित्र के अनुसार शराफ़त जिसमें होती है वह ठहरा हुआ आदमी होता है। या एक ठहरे हुए शख्स में ही शराफत आती है।
              खैर.. मित्र की बात सुनकर मैं शराफ़त से आजिज़ आ चुका था। मैं, मंदिर का घंटा या फिर शरीफ़ बनकर नासमझ नहीं बनना चाहता था। मैं चाहता हूँ, कोई मुझे शरीफ घोषित न करे। मुझे मेरे हिस्से की शराफ़त मिल जाये उसी से मैं अपना काम चला लुंगा...

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

प्रेम हाट बिकाय

           बात उन दिनों की है जब पहली बार मैंने वेलेंटाइन डे का नाम सुना था। "वैलेंटाइन डे" का नालेज, मेरे जनरल नालेज में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के रूप में एड हुआ था। जहाँ-तहाँ मैं अपना यह नवार्जित ज्ञान बघारता फिरता कि, देखो एक वैलेंटाइन डे भी होता है! और, इसकी चर्चा को "फैशन" की श्रेणी में मानता, यानी एकदम आधुनिक टाइप की नई सोच से रूबरू हुआ था।
               वाकई, बड़ा फैशनेबल है यह वैलेंटाइन डे! फैशन तो बदलने वाली चीज ही होती है, जो न बदले फिर उसमें फैशनवाली बात कहाँ! और जब तक दिखावा न हो तब तक फैशनवाली बात भी नहीं जमती। अब कोई चुपचाप वैलेंटाइन मना ले तो प्रेम का मतलब ही क्या?
             हाँ, वो मध्ययुगीन प्रेमी निरे बेवकूफ रहे होंगे जो चुपचाप प्रेम को सहते हुए "गूँगे के गुड़" टाइप वाले प्रेम में मगन होकर "भरे भौन में करतु हैं नैनन ही सो बात" में अपना प्रेम-जीवन बर्बाद कर देते रहे होंगे। भला प्रेम भी कोई सहने की चीज है! लेकिन तब के बेचारे इन प्रेमीजनों का इसमें दोष भी तो नहीं था..! समाज के मारे तब के प्रेमीजनों को कोई बाजार दिखानेवाला भी तो नहीं पैदा हुआ था। महाकवियों ने तो प्रेम-भावना को ही मटियामेट कर दिया था।
             प्रेमीजन कोई भगवान तो होते नहीं कि अपने प्रेम-पात्र को प्रेमाभिभूत कर दे? आखिर प्रेमीजन बिन लुभे और लुभाये कैसे एक दूसरे को अपने प्रेमजाल में फंसाएंगे? इसके लिए बाजार की जरूरत पड़ती ही है..! लेकिन प्रेम में बाजार के इस महती योगदान को कबीर ने अपने बेवकूफी भरे अंदाज में यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि "प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।" लेकिन, पता नहीं कबीर के जमाने में बाजार-वाजार होता भी था या नहीं या वे केवल बाजार का नाम ही सुने थे। अगर वे बाजार गए होते तो अपने इस दोहे में प्रेम की ऐसी तौहीन न करते। अरे भाई! जो बाजार में न बिक सके फिर वह किस काम की चीज...! मेरी समझ में तो यही है कि जिसकी कीमत न आंकी जा सके उसकी कोई कीमत नहीं! इसीलिए हमारे यहाँ दूल्हा तक बिकता है, और पैसेवाले लोग कीमती दूल्हे में ही विश्वास जताते हैं। हाँ महँगे दूल्हे की खोज प्रकारांतर से कीमती प्रेम की ही खोज और गारंटी होती है। लेकिन भला हो बाजार का जिसके कारण अब खोज-खोजाई का वह दौर भी समाप्त होने वाला है, प्रेमीजन अब स्वयं बाजार में खड़े होकर रेडीमेड प्रेम प्राप्त कर लेते हैं और उनका प्रेम यहीं बाजार में भटकता मिल भी जाता है।
        तो महात्मा कबीर जी यदि आज होते तो मैं उनसे यही कहता जिस प्रेम की कीमत न आँकी जा सके, भला उसे हम प्रेम कैसे मान लें? और कहता, "कबीर दास जी एक आप थे, एक वो वैलेंटाइन बाबा हैं! आपको तो बाजार का कोई नालेज ही नहीं था कि वहां क्या बिकता और क्या बिक सकता है! और वो वैलेंटाइन बाबा को प्रेम के बारे में भरपूर नालेज था.. वो प्रेम को बाजार में बिकवाना भी जानते थे।"
           शायद यही कारण था कि हमारे देश में वैलेंटाइन बाबा का जलवा आर्थिक सुधारों के साथ ही आया और तभी से बाजारों में "प्रेम हाट बिकाय" का स्कोप भी खड़ा हो गया। यही नहीं अब तो प्रेमीजनों यानी गर्लफ्रेंड और ब्वॉयफ्रेंड की सरे बाजार कीमत आँकी जाने लगी है और राजनीति में भी ऐसे जन धमाल मचाने लगे। खैर..
            मेरा तो यही मानना है कि अपने देश में वैलेंटाइन डे का उतना स्कोप नहीं था जितना वहाँ, जहाँ वैलेंटाइन बाबा हुए थे। वहाँ तो विवाह पर ही पहरा बैठाया गया था। इसीलिए वे प्रेमियों के लिए लड़े थे। मतलब अविवाहितों के विवाहित होने के या उनके प्रेमाधिकार को लेकर अपना जान तक न्यौछावर कर दिए थे। लेकिन अपने यहाँ ऐसी बात तो है नहीं। यहाँ तो प्रेम करो या न करो विवाह कर लो और सात जन्मों का बंधन निभाओ और निभाते चले जाओ वाले प्रेम का प्रचलन पहले से तो हईयै था! अब ऐसे जन्म-जन्मांतर वाले प्रेम में ऊब तो होनी ही थी। इस प्रेम में थ्रिल और रोमांच खतम हो जाता है और ऐसा प्रेम, सुबह-दोपहर-साँझ होते हुए शेष अगले जनम की बात कह कर अस्ताचलगामी हो जाता है, आखिर प्रेम भी तो कोई चीज ही होती है, जिसे ढलना भी होता है। अब ऐसे में असली प्रेमियों के लिए प्रेम में उबाऊपन या बासीपन गँवारा नहीं हो सकता। लेकिन लाइसेंस-राज हर चीज में आड़े आ जाता है।
            तो भाई, आज के प्रेमीजन ऐसे जन्म-जन्मांतर वाले प्रेम से इतर एक दूसरा वैलेंटाइन डे वाला प्रेम चाहते हैं लाइसेंस-राज से मुक्त वाला प्रेम! इस वाले प्रेम में थ्रिल और रोमांच भी होता है। यहाँ प्रेम में लुका-छिपाई जैसे खेल के साथ ही पहरेदारों से भी बचने और इसकी कीमत आंकने का बखूबी खेल भी होता है। अब ऐसे में प्रेमियों के लिए वैलेंटाइन डे वाला प्रेम मुफीद और मजेदार तो होना ही है।  वैलेंटाइन डे पर प्रेम के लाइसेंस-राज पर चोट पहुँचाकर उदात्त-प्रेम की संकल्पना साकार की जाती है तथा प्रेम में उदारीकरण का संघर्ष एक कदम और आगे बढ़ चुका होता है। जय हो वैलेंटाइन बाबा की..!!

रविवार, 29 जनवरी 2017

बाजारवाद के "इंन्फिल्ट्रेटर"

              हम लोग बाजारवादी दुनियाँ में रहते हैं। बाजार बनाना जानते हैं, और बाजार में माल बिकवाना भी। हम बाजार के लिए चालाकी के साथ मांग जनरेट करते हैं। माँग के विरुद्ध मांग खड़ी कर देते हैं, मतलब अगर माँग उस माल की हो और बेंचना इस माल को चाहते हैं, तो उस माल के विरुद्ध अभियान छेड़ हम उसकी बिक्री की संभावना समाप्त कर देते हैं। बाजारवाद में दिल-दिमाग भी बाजार के ही हिसाब से चलने लगता है, बाजार जो बेचना चाहता है वही चीज बिकती है। बाजार में सम्मोहन की शक्ति होती है। सम्मोहित ग्राहक सरे बाजार न मोल-तोल कर पाता है और न ही बाजार में चीजों को उलट-पुलट कर देख पाता है। यहाँ खरीददार की नहीं, बाजार की चलती है।
            आज बाजार में माल भरपूर है। अब माल नहीं, बाजार ने माल पर कब्जा कर लिया है। इस बाजार में कोई भी माल बिक जाता है। यही मार्केटिंग है। आज मार्केटिंग का ही जमाना है और जो तमाशे में माहिर होता है उसी के पास भीड़ भी होती है। यह बाजार जबर्दस्त तमाशेबाज है, इस तमाशे को लोग ललचाई निगाहों से देखने के लिए अभिशप्त हैं, तो कुछ इस तमाशे को लूट ले जाना चाहते हैं। वैसे, बाजार में धक्कामुक्की भी बहुत होती है। बाजार के भीड़ की धक्कामुक्की से बचाए रखिए, इसी में गनीमत है।
                तो, आज टहलने नहीं गया था.. असल में कल शाम पाँच बजे से रात नौ बजे तक और इसके पहले वाली शाम को भी ऐसे ही चार घंटे तक "सर्जिकल-स्ट्राइक" हेतु मैराथन बैठक में व्यस्त रहे थे। भाई, हम सरकारी योजनाओं पर सर्जिकल-स्ट्राइक दूसरे सेंस में करते हैं। इस सर्जिकल-स्ट्राइक का जगह और समय हमें अपने हिसाब से तय करना होता है। सो इसी स्ट्राइक की तैयारी में हम मैराथन बैठक करने में जुटे रहे, सबेरे जल्दी कैसे उठेंगे..!  असल में लगातार इस तरह सर्जिकल स्ट्राइक की तैयारियों में व्यस्त रहने का मुख्य कारण यही था कि जब "इंन्फिल्ट्रेटर" अपने काम में व्यस्त थे तब हम निश्चिंत से सो रहे थे । मतलब, हम लकीर पीटने वाले लोग हैं, सरकारी व्यवस्था में सरकारी लोग केवल लकीर ही पीटने का काम करते हैं और इतनी जोर से पीटते हैं कि पीटने की आवाज खूब सुनी जा सके। हम इसी को सर्जिकल-स्ट्राइक कहते हैं। ये "इंन्फिल्ट्रेटर" हम सरकारी आदमियों की लकीर पीटने की आदत को खूब समझते हैं, और इधर बेचारे नागरिक चुपचाप "इंन्फिल्ट्रेशन" सहते रहते हैं। कभी-कभी आँख खुल भी जाती है, तो हम भी अपने अभियान पर इंन्फिल्ट्रेटरों की खबर लेने में सन्नद्ध हो जाते हैं । खैर..यह कर्तव्य-पारायणता की बात गाहे-बगाहे घोषित करनी होती है, इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक करनी ही होती है ! इंन्फिल्ट्रेटर इससे भयभीत होते ही हैं और हमारे हाथ भी कुछ न कुछ तो लगता ही है। इस तरह किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक पर दो-तरफा लाभ होता है।
           हाँ, तो आज की #दिनचर्या में एक बात यह भी शामिल रही कि हम एक गाँव में निकल गए थे..निकल क्या गए थे। गाँव में, गरीब महिलाओं को प्रशिक्षित सा करना था, जिससे वे भी अपनी गरीबी से सर्जिकल स्ट्राइक कर सकें। खैर वो तो, उनको प्रशिक्षित किया ही लेकिन, उनके दिमाग पर, हम जो सर्जिकल टाइप की थियरी अपना रहे थे, उस सर्जिकल थियरी का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था...उनके चेहरों पर कोई चमक नहीं आई। मतलब, सारा प्रशिक्षण बेकार साबित हो रहा था। मैंने महसूस किया कि आज तक हुए किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में इन तमाम ग्रामीण गरीब महिलाओं को न तो कोई जानकारी है और न ही इसका कोई प्रभाव है। सारे के सारे सर्जिकल स्ट्राइक व्यर्थ और दिशाहीन प्रतीत हो रहे थे !  जैसे, आजादी के बाद कभी कोई सर्जिकल स्ट्राइक ही न की गई हो! और यदि की गई हो भी तो, सब व्यर्थ की कवायद भर रहे होंगे, अन्यथा इनके चेहरों पर भी चमक होती।
                 इनमें से कई गरीब ग्रामीण महिलाएँ केवल एक घंटे की, गरीबी को दूर करने वाली सर्जिकल ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिए छह घंटे पैदल ही चलकर आई थी। क्योंकि, किराए के पैसे खर्च करने लायक इनकी क्षमता-संवर्धन का विकास हम आज तक नहीं कर पाए हैं। यही नहीं, इनके दो बीघे खेत तक हम आज तक पानी भी नहीं पहुँचा पाए हैं। पता नहीं इनके लिए कौन सा सर्जिकल-स्ट्राइक आजादी के बाद हमने किया है? आज भी इनकी इस दशा का जिम्मेदार इनके हक-हुकूक पर हमारा "इंन्फिल्ट्रेशन" ही रहा। 
             हमारे सर्जिकल-स्ट्राइक की पोल खोलते हुए एक महिला ने बताया भी, "ऊँचे लोग ही इस सब का फायदा उठा ले जाते हैं" मतलब हमारा सर्जिकल-स्ट्राइक इनके लिए किसी काम का नहीं होता। इन्हें तो "इंन्फिल्ट्रेशन" का शिकार होना ही है। बल्कि हम सर्जिकल-स्ट्राइक के बदले तमाम "इंन्फिल्ट्रेटर" पैदा करते हैं। शायद इसीलिए किसी सर्जिकल स्ट्राइक का प्रभाव इन तक नहीं पहुँचता है। क्षमता-संवर्धन के पश्चात इन गरीब महिलाओं को घर वापस लौटने की चिन्ता भी थी क्योंकि घर लौटने में इन्हें देर होने पर अँधेरा हो जाता। हम भी गरीबी दूर करने की अपनी सर्जिकल थियरी यहीं समाप्त कर वापस लौट आए थे। 
           बात यह नहीं कि हममें देशभक्ति नहीं है, या हम सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध करते हैं, हम भी आप जैसे ही देशभक्त हैं, बस बाजार में एक ही तरह के माल को खपाने के लिए बिना उस माल के गुण-दोष का परख किए उसे ही श्रेष्ठ माल नहीं बताना चाहते। हाँ, हम भी, किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के बेतरह हिमायती हैं और सर्जिकल स्ट्राइक को पागलों की तरह प्यार करना चाहते हैं, बस इसका प्रभाव इन ग्रामीण गरीब महिलाओं के चेहरों पर भी दिखना चाहिए। अन्यथा ऊपर-ऊपर ही भाई लोग, सर्जिकल स्ट्राइक का मजा ले उड़ते रहेंगे, और बोलने भी नहीं देंगे। ये भाई लोग, अपने माल का ऐसा बाजार तैयार कर देंगे कि कोई दूसरा, अपने माल के बारे में या दूसरे माल की चर्चा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा।
              भाई लोग, किसी को ब्लाक-वलाक करने की जरूरत मैं नहीं समझता। अन्यथा, बाजार में माल परखने की क्षमता प्रभावित हो जाएगी। वैसे अगर बिना परखे कहीं किसी का खराब माल ले लिया तो यह बेचारी देशभक्ति जेब में ही धरी रह जाएगी.. देशभक्ति तो देशवासियों के बीच बाँटने की चीज होती है, केवल अपने लिए या सीने में ही छिपाए रखने के लिए नहीं होती...नहीं तो, वो बेचारे महात्मा जी! अरे वही, जिनका कल यानी दो अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है..हाँ, वही गाँधी जी, ग्राम- स्वराज की कल्पना न करते। खैर..
             #चलते_चलते
             बहुत अधिक बुद्धिवादी-विमर्श या बौद्धिकता भी उन्मादकारी हो सकती है, इससे भी बचें। घटनाएँ तो घटती रहती हैं उन्हें घट जाने दीजिए..या..घटते रहने दीजिए...बस, ऐसी बातों को लेकर बैठें न रहें, बाजार न बनाएँ। सबकी सुनें, ब्लाक-वलाक तो दूर की बात है।
             --Vinay
            #दिनचर्या 20/29.9.16

बजट देश का बनाम घर का

           पहली बात तो यही कि बजट, बजट ही होता है और बजट ही बनकर रह जाता है। वैसे, बजट बनाना टेढ़ी खीर है, देश के बजट पर तो हम दुनियाँ भर की लंतरानी छाँटते हैं, लेकिन वही जब अपने ही घर के बजट की बात आती है तो बडे़-बड़े बजट-विशेषज्ञ धनुहा-बान धर देते है और सारा ठीकरा देश के बजट के ऊपर फोड़कर घर वालों को फुसला देते हैं। यह सोच के हैरत होती है कि देश का बजट प्रस्तुत करने वाले कैसे गाजे-बाजे मतलब शेरो-शायरी के साथ प्रस्तुत करते होंगे! यही नहीं बकायदा बजट को चमचमाते बढ़िया बैग में भरकर सदन के पटल पर लाकर पटक देते हैं। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि, देश का बजट प्रस्तुत होने के बाद, बजट प्रस्तुतकर्ता लोग इस बजट से हाथ झाड़-झूड़कर आराम से दर्शकदीर्घा में खड़े टाइप का हो जाते हैं, और फिर इस बजट को लेकर मचती रहे चिल्ल-पों। इसके बाद बजट को लोक कल्याणकारी का तमगा पहनाना ही होता है। 
          बजट बनाना बडे़ जीवट का काम होता है, क्योंकि बजट का बनना और बजट का गड़बड़ाना, दोनों साथ-साथ चलता है। मतलब बजट बना है तो इसे गड़बड़ाना ही है। यह बजट, चाहे देश का हो या घर का, इसका गड़बड़ होना इसे बनाने की पूर्वमान्यता है। इतना जरूर है कि देश का बजट तो साल में एक बार ही गड़बड़ाता है लेकिन नौकरी-पेशा वाले घरों का बजट प्रत्येक महीने के अंतिम तारीख तक गड़बड़ हो ही जाता है। मतलब घर वाले बेचारे बारहों महीने गड़बड़ बजट का सामना करते रहते हैं।
            यहाँ, मेरा अपना मानना है कि बजट का लोकलुभावन होना ही बजट में गड़बड़ी का कारण बनता है। देश और घर चलाने के लिए दोनों जगहों पर बजट का लोकलुभावन होना लाजमी होता है, नहीं तो मुखिया को समर्थन की प्राब्लम होती है।  लोकलुभावन बजट के दम पर ही मालिक लोग देश या घर में बैठे हुए चैन से शेरो-शायरी कर पाते हैं। लेकिन इस लोकलुभावने बजट से देश और घर में, कहीं खुशी तो कहीं नाराजगी भी पनपती है। लोकलुभावना बजट कुछ-कुछ समाजवादी टाइप का होता है और समाजवाद का हाल सर्वविदित है। घर के छोटे बच्चे घरेलू समाजवाद का मजा उठाकर गुलछर्रे उड़ाने लगते हैं और देश की भाँति घर को भी अनुत्पादक टाइप के वित्तीय दुर्विनियोजन का सामना करना पड़ता है तथा घर के बडे़ बेचारे टापते रहते हैं। ऐसी ही बजटीय व्यवस्था के कारण देश या घर दोनों जगहों पर असंतोष पनपता है और घर के मुखिया को गड़बड़ बजट देने का ताना भी सहना पड़ता है। अब घर को समझाना पड़ सकता है, "भई, जैसा देश वैसा वेश, गरीब देश के घरों का बजट ऐसा ही होता है। जब देश का ही बजट गड़बड़ रहता है तो घर के बजट का गड़बड़ होना लाजमी ही है..खर्चों में कुछ कटौती कर लिया करो।" या फिर यह भी कहा जा सकता है कि, "भई, गरीब देश के घरों का बजट ऐसेइ होता है..अगर हमारा देश गरीब न होता तो हमें भी घर के लिए बजट बनाने की बहुत जरूरत नहीं थी।" 
            यह सही है, घर के बजट को लेकर बहुत दिक्कत होती है, घर वालों को समझाने के सारे तर्क भोथरे साबित हो जाते हैं और घर का मालिक वित्तीय -प्रबंधन में बेवकूफ घोषित कर दिया जाता है। अब घर में कौन समझाए कि "भई वित्त हो तब न, उसे प्रबंधित किया जाए!" 

            वाकई, देश के नेता लोग देश के बजट की कलम से आम आदमी के घरों के बजट की दैनंदिन डायरी पर व्यंग्य लिखते हैं। इस बजट पर चिंतन न तो कोई उच्च आर्थिक वर्ग का करता है और न ही बेचारा टाइप का निम्नवर्ग ही करता है और इन दोनों वर्गों के लिए बजट की चर्चा कोई मायने नहीं रखती। ये उच्च और निम्न आर्थिक वर्गीय लोग बजट को लेकर वाकई बड़े दिलवाले होते हैं। इन दोनों की भाव-भंगिमा बजट बनने के पहले और बजट के क्रियान्वयन के बाद भी एक जैसी ही रहती है। बजट पर चर्चा करने का फैशन केवल मध्यमवर्गीय घरों में ही होता है।
             इतना जरूर होता है कि मध्यमवर्गीय परिवार अपने पड़ोसी घर के बजट की सफलता पर विशेष रूप से निगाह गड़ाए रहते हैं। अकसर घर के मालिकों को पड़ोसी-घर के बजट की सफलता की उलाहना भी सुननी पड़ती होगी "उनके यहाँ से कोई फेरीवाला भी मुँह लटकाए वापस नहीं लौटता।" इस उलाहना को सुनकर किसी-किसी घर के मुखिया को खीझ होती होगी । ऐसे ही एक दिन एक घर के मुखिया को खीझ में अपनी भड़ास निकालते हुए मैंने भी सुना था, "देखो, ऐसे लोगों को बजट बनाने की जरूरत नहीं होती ये लोग देश के बजट में से ही अपने लिए मलाई निकाल लेते हैं और ये इसी मलाई को चाट-चाट कर आलरेडी मोटे होते रहते हैं तथा ऐसे लोग घर के बजट की समस्या से नहीं मोटापे की समस्या से ग्रस्त होते हैं!" खैर...जो भी हो, उस बेचारे मुखिया को उनके घरवालों ने अर्थशास्त्र के बजाय आज के समाजशास्त्र से मलाई खाने की सीख लेने की बात कही थी । 
           एक बात और है घर के बजट पर देश के बजट के साथ-साथ पड़ोसी के घर के बजट का भी बहुत प्रभाव पड़ सकता है। यह घरेलू बजट का ग्लोबलाइजेशन है। अब घर का बजट भी घाटे के बजट की राह पर चल पड़ता है और देश के बजट जैसा ही घर के बजट के लिए भी तमाम तरह के "अर्थोपाय" का सहारा लेना पड़ता है। घर का मुखिया बेचारा अपने "राजस्व घाटे" जैसी अक्षमता को पाटने के लिए "राजकोषीय घाटे" का दंश झेलता रहता है। 
           अन्त में बजट के दंश से बचना है तो घर के बजट को भी देश के बजट जैसा ही होना चाहिए और बजट कागजी रहे तो ज्यादा बेहतर होता है। मतलब, बजट को डपोरशंखी होना चाहिए, हमारे देश का बजट भी ऐसा ही होता है। 
                   #व्यंग्यकीजुगलबंदी

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

हम भारतीय अपने धुन के पक्के लोग नहीं होते

            "अति सर्वत्र वर्जयते" कभी-कभी जब यह वाक्य सामने आता है तो दिग्भ्रमित हो जाता हूँ, इस वाक्य से मेरी सोच, मेरी क्रियात्मकता जैसे पंगु बनने लगती है...हाँ यह एक नीति वाक्य है..शायद हमारे मनीषियों ने अपने अनुभव के बल पर इस नीति-वाक्य की स्थापना किए हों..लेकिन मस्तिष्क में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि आखिर उन मनीषियों ने किस तरह के "अतियों" का सामना कर इस नीति-वाक्य का खोज किए होंगे...? सच में! यहीं पर हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं...और उन "अतियों" की पहचान करने में जुट जाते हैं, जहाँ हम भी इस नीति-वाक्य का अनुसरण करना शुरू कर दें...
           मुझे लगता है हमारे देश की संस्कृति "अतियों" से बचने की रही है..अकसर हम मध्यम-मार्ग की खोज करते हुए दिखाई देते हैं..विद्वानों ने भी तमाम धार्मिक ग्रंथों में निहित उपदेशों को मध्यम-मार्ग बताया है...खैर मैं, धार्मिक व्याख्या पर नहीं जा रहा...लेकिन...! ऐसे नीति-वाक्यों से कभी-कभी किसी पथ पर चलते-चलते कदम ठिठकते दिखाई पड़ते हैं...कदम तो आगे पड़ना चाहता है लेकिन इस नीति-वाक्य की शिक्षा के वशीभूत यह कदम जहाँ का तहाँ रुक जाता है और इस नीति-वाक्य से निकलती "वर्जना" मन पर प्रभावी होने लगती है...
           मैंने अकसर देखा है..और देखता रहा हूँ....जीवन के कुछ पथ अतियों की माँग करते हैं, अन्यथा वलिदान की अवधारणा न मिली होती...बहुत सारे पथ अतियों से चलकर ही अपने लक्ष्य की ओर ले जाते हैं...लेकिन यदि ऐसे पथिक के समक्ष "अति सर्वत्र वर्जयते" आ जाए तो फिर उस पथ और पथिक का क्या होगा..? 
             मुझे एक घटना याद आती है..कई वर्ष हो चुके हैं इस बात के..! एक बार एक बेहद सफल माफिया टाइप के व्यक्ति से हमारी बात हो रही थी..उसने बड़े गर्व से हम लोगों से बताया था कि TOI का एक पत्रकार रह-रहकर उसके विरुद्ध खबरें छाप रहा था...उस माफिया ने उस पत्रकार को इसके लिए चेतावनी भी दी थी कि ऐसी खबरें वह न छापे...लेकिन पत्रकार माना नहीं... अचानक उस पत्रकार का स्कूटर से जाते हुए एक्सीडेंट हो गया और टाँग में फ्रैक्चर लेकर हास्पिटल में भर्ती होना पड़ा था...आगे उस माफिया टाइप के व्यक्ति ने बताया था कि, वह उस घायल पत्रकार से मिलने हास्पिटल गया और उसे गुलदस्ता भेंट करते हुए कहा था.."शुक्र मनाइए टाँग ही टूटी वरना जान भी जा सकती थी.." 
          वाकई! उस माफिया द्वारा पत्रकार को दी गई यह धमकी थी..लेकिन शायद वह पत्रकार भी अपने धुन का पक्का था...! तभी उस माफिया के विरोध में खबरें देने से बाज नहीं आया था। ऐसे ही अपने धुन के पक्के लोगों की घटनाएँ हम अकसर सुनते रहते हैं..उनके साथ क्या होता है, ऐसे धुन के पक्के लोग इस बात की परवाह नहीं करते.. वे हर उस "अति" से गुजर जाना चाहते हैं...जहाँ उनकी धुन उन्हें ले जाना चाहती है..ऐसे लोगों के लिए "अति सर्वत्र वर्जयेत" बेमानी कथन है...
          लेकिन सामान्यतः .हम भारतीय अपने धुन के पक्के नहीं होते...हमें "अति सर्वत्र वर्जयते" सिखाया जाता है। हमारे लिए हमारी कोई अपनी "धुन" नहीं होती। सामाजिक, आर्थिक और नैतिकता जैसे पहलुओं पर अतियों से बचने की सलाह देकर हमने किसी तरह निकल लेने का मार्ग बना लिया हैं, और यही नहीं, अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलने के लिए हम ऐसे ही कथनों को नैतिक ढाल बना लेते हैं...
             भारतीय जन जीवन में व्याप्त तमाम सामाजिक-आर्थिक  विसंगतियों के पीछे हमारी यही मध्यममार्गी सोच रही है..अकसर किसी बडे़ परिवर्तन के लिए उठाए गए कदम को "अति सर्वत्र वर्जयते" कह कर डरा दिया जाता है..! परिणाम हमारे देश मेंं जातीय भेदभाव के साथ आर्थिक विषमता आज भी कलंक-कथा बनी हुई है। किसी अच्छी सोच के प्रति हमारी दृढ़ता, इस एक वाक्य से डर जाती है। इस डर के कारण किसी बदलाव के मुखापेक्षी बने हम जहाँ के तहाँ खड़े रह जाते हैं...
         सच तो यह है...इस एक वाक्य से हमें, अपने कामों के परिणामों से डराया जाता है। गीताकार को शायद इसी बात का इल्म रहा होगा कि हम परिणामों से डरने वाले लोग हैं तभी तो "कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:" कह परिणामों की चिन्ता न करने की बात कही थी..लेकिन इसी कर्म को ज्ञान और भक्ति से संतुलित करने की सीख दे गीताकार ने एक तरह से हमें मध्यममार्गी भी बना दिया। फिर तो हमने इससे "अति सर्वत्र वर्जयते" निकाल कर व्यावहारिक जीवन को एक फलसफा भी दे दिया। इस फलसफे ने देश को बहुत क्षति पहुँचाई है..!
         लेकिन बदलाव! अपने धुन के पक्के लोग ही ले आते हैं, जिन्हें परिणामों की चिन्ता नहीं होती..भारतीयों में इसी "धुन" की कमी है..! हम जीना तो चाहते हैं..लेकिन बिना किसी "धुन" के बस जिए चले जाते हैं...एक गुणात्मक-हीन जीवन..! शायद इसी को हम जीना कहते हैं...!! लेकिन यह भी कोई जीना है लल्लू....!!!
                - Vinay

रविवार, 20 नवंबर 2016

अपने-अपने अर्धसत्य

           (चलो हम मान लेते हैं, भैंचो..चाहे आम हिन्दू हो या आम मुसलमान दोनों साम्प्रदायिक ही होते हैं। लेकिन इनके बीच ये बंटवारे का बीज कौन बोता है..? भैंचो..चलो यह भी मान लेते हैं कि...नेता ही इनके बीच बंटवारे का बीज बोते हैं..
      ... लेकिन भैंचो..ये बुद्धिजीवी किस खेत का मूली हैं कि बंटवारे को नहीं रोक पाते? ..और दिनोंदिन बंटवारे की खाई चौड़ी होती जाती है.... 
         फिर यह बुद्धिजीवी भैंचो...क्या घास छीलता है..या केवल वकीली के रूप में ही बुद्धि का प्रयोग करता है...जैसे वकील अपने-अपने पक्ष को जिताने में सारी बुद्धि खरचते रहते हैं, वैसे ही हार या जीत का बीज बोते हुए ये बुद्धिजीवी भैंचो..भी अपनी-अपनी घांई के पक्ष में ही बात कर-कर विग्रह का बीज बोते रहते हैं...)

        माफ करिएगा, कोष्ठक की पंक्तियाँ ज्ञान चतुर्वेदी के "हम न मरब" उपन्यास की उद्धृत निम्न पंक्तियों से प्रभावित है.....
        "वकील लोग भैंचो कभी कुछ करते भी हैं? ये लोग बंटवारा करवाने के सिवाय और कर भी क्या सकते हैं?  इनका बस चले तो ये घर बंटवा दें, देश बांट दें। जिनने कभी हिंदुस्तान को बंटवाया था उनमें भी तो वकील-ही-वकील भरे पड़े थे, भैंचो।.."    
          मेरा अपना मानना है, यह वकील और कोई नहीं, यही ये तथाकथित पत्रकार, बुद्धिजीवी जैसे लोग ही हैं..जो केवल अपने-अपने अर्धसत्य को ही सत्य समझ कर समाज के लिए अपने इन अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं...लेकिन यह आम जन चाहे जितना साम्प्रदायिक हो..अपने सत्य की सीमा को जानता है अन्यथा ये तथाकथित अपने-अपने अर्धसत्यों के पैरोकार इस आमजन को कब का अपना मुरीद बना लिए होते..लेकिन आज भी ये तथाकथित बुद्धिजीवी अप्रभावी ही हैं...अगर प्रभावी होते तो इनसे कहीं आगे नेता इन आमजन पर प्रभावी होते दिखाई न दे रहे होते...
          सच तो यह है अपने-अपने अर्धसत्य लिए हुए वकीलनुमा इन बुद्धिजीवियों के कारण ही ये नेता बंटवारे का बीज बोने में सफल हो पा रहे हैं... कारण?
        कारण यही...ये नेता, बुद्धिजीवियों के अर्धसत्य के बाद के बचे सत्य को आईने के रूप में उसी आमजन को दिखाते हैं और उन पर प्रभावी हो जाते हैं...क्यों? क्योंकि जनाब, नेता का यह अर्धसत्य उस आमजन को अपना सत्य प्रतीत होता है और फिर नेता इस सत्य को दिखा दिखा उनका रहनुमा बनता है.. यही बंटवारे की फिलासफी है...इसी अर्धसत्य में अन्याय छिपा होता है... अर्धसत्य की वकालत ही वकील का पेशा होता है, वह इसकी फीस वसूलता है... आज का यह बुद्धिजीवी यही काम कर रहा है.. पत्रकारों का भी सरोकार इसी अर्धसत्य से है....
        एक बात और..समाचार चैनलों का चिल्ल-पों या किसी पत्रकार की "महानता" का इस आम जनता पर कोई प्रभाव वैसा नहीं पड़ता जैसा ये सोचते हैं.. चाहे कोई स्क्रीन काली करे या सफेद... यह भी टीवी शो का फैशन जैसा ही माना जाने लगा है... हो सकता है इस फैशनबाजी के चक्कर में कोई बुद्धिजीवी या पत्रकार महापुरुष जैसा बनता दिखाई दे।
        यहाँ ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने उपन्यास "हम न मरब" में की यह पंक्ति उल्लेखनीय है- 
        
        "चेलों तथा अनुयायियों की भीड़ ही, अंततः हर महापुरुष को खा जाती है।" 
            खैर, मैं यहाँ मानता हूँ कि अगर कोई पत्रकार महापुरुष बनने की राह पर है, तो मान लीजिए उसके चेले और अनुयायी उसे नेता बना रहे हैं, जो आमजनता के किसी अर्धसत्य को उस जनता का सम्पूर्ण सत्य बताते हुए बरगला रहा होगा...हाँ, सत्य को समग्रता के साथ जानने और कहने की कोशिश करने वाला कभी लोकप्रिय नहीं हो सकता है, नेता बनना तो दूर की बात। 
             कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि, किसी भी बात या व्यक्ति को बहुत सिर चढ़ाने की जरूरत नहीं है..चीजें चलती रही हैं चलती रहेंगी..आप केवल वाचर बने रहिए, सबको देखते रहिए, समझते रहिए...अपने अन्दर समझने की "सिर्रीपना" जैसी आदत डालिए...फिर देखेंगे, हर गाँठ सुलझती दिखाई देगी...
नोट - हो सकता है यहाँ उद्धृत विचार मेरा अर्धसत्य हो, इसमें आप अपना सत्य मिलाकर घोल बनाकर इसे समझने का प्रयास करिएगा। 

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

बाजार के हिमायती मत बनिए

(नोटबंदी के पक्ष में)
         अर्थव्यवस्था..! आज इस व्यवस्था से जुड़े बिना हम अपने जीने की कल्पना नहीं कर सकते। और यह व्यवस्था चलती है नोट से..जेब में नोट है तो समझो पूरी व्यवस्था है..नहीं तो चहुँ ओर अव्यवस्था ही अव्यवस्था! लेकिन इन्हीं नोटों का मूल्य यदि कागज के एक टुकड़े भर रह जाए तब क्या होगा? तब तो सारी व्यवस्था अनर्थव्यवस्था सी हो जाएगी। बाजार में सियारिन फेकरेंगी..मतलब सब सून..! हाँ.. 
             रहिमन नोटन राखिए, बिन नोटन सब सून। 
             नोटन गए न ऊबरै, बाजारन के कारकून।। 
           
             हमने तो सरकारों से यही अपेक्षा की थी कि भइया हमें इस अर्थव्यवस्था में बेमतलब का मत घुसेड़ो...क्योंकि अर्थ का ही अनर्थ होता है। हमारी तो, बस हमारे गाँव के आसपास स्कूल चाहिए...एक अदद अस्पताल चाहिए...आने-जाने के लिए एकदम से गड्ढामुक्त बढ़िया पक्की सड़क चाहिए..और..हम अपने खेतों में अपने खाने की जरूरत का अनाज पैदा कर सकें...तथा बाग- बगीचों जैसी हरियाली के बीच कच्चा ही सही एक साफ-सुथरा घर हो..और घरों में टिमटिमाती रोशनी हो..इन सब चीजों के लिए किसी शहर के मोहताज न रहें..यही अपेक्षा थी। लेकिन हमारी अपेक्षाओं पर ध्यान न देकर हमें केवल अर्थव्यवस्था पकड़ाया गया। पता नहीं कितने नोट छपे और कहाँ चले गए? मगर हम अपनी अपेक्षाओं का बोझ लिए झुनझुना बजाते शहर दर शहर खाक छानते रहे...
             लेकिन सरकार आप..! आप तो आजादी के बाद से ही अर्थव्यवस्था बनाने में लग गए...बाजार बनाने में लग गए! आपने साहब! एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई कि आपने बाजार के बाजार खड़े कर दिए..इस बाजार ने हमारी हमारे ही ऊपर की निर्भरता हमसे छीन लिया। हमारी स्वनिर्भरता को बाजार में सौंप दिया गया। अर्थ का अनर्थ होता गया और हम, बाजार के गिरवी होते गए, शहर दर शहर बाजार की चकाचौंध में डूबते चले गए..गाँव के गाँव उजड़ते चले गए..गाँवों की चौपालों में सन्नाटा पसर गया। हम कर भी क्या सकते थे क्योंकि हम शहर और बाजार के मोहताज हो गए..! और आप, आप तो सरकार दर सरकार अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होने के गर्व से भर चुके थे.. हमारा ख्याल ही कहाँ था आपको..! आप की अर्थव्यवस्थाजनित चक्रव्यूह में घिरे हुए हम भी लालची दर लालची बनते रहे...हमारी नियति भी लालची बनने की हो गई...इसमें हमारा दोष नहीं..हम तो आपके बनाए बाजार की कठपुतली बन चुके थे...नए-नए करारे नोट दे-देकर और नोट उगलने की मशीन बनाकर बीच बाजार में ढकेल हमें आपने अकेला छोड़ दिया..अब हमारी नियति बाजार के हाथ में थी।
        हाँ, गलती हमारी ही थी.. जेब के नोट को खुदा समझ हम भी बाजारू बन स्वयं को सर्वशक्तिमान मान गर्वोन्मत्त हो चुके थे...जैसे बाजार पर विजय प्राप्त कर लिए हों...लेकिन यह बाजार..! यह बाजार तो बड़ा छलिया निकला...बहुत मायावी निकला..! हमने नोट को खुदा माना तो शायद बाजार अपमानित हुआ फिर इस बाजार ने ही अर्थव्यवस्था से सांठ-गांठ कर हमारे जेब के नोट को काले रंग से रंग दिया..! जेब में धरे-धरे इनकी पहचान खतम हो गई..अब इनके बिना हमें अपनी लाचारी समझ आ रही है..
              काश! हम बाजार और अर्थव्यवस्था के गुलाम न बने होते तो हमारी यह दुर्दशा न हुई होती...हमें सरे बाजार नंगा कर दिया गया है..चोर घोषित कर दिया गया है..यह तो सरासर बाजार की ही नंगई है..और सरकार! यह आप की भी सरासर बदतमीजी है हमारे साथ। हम तो भोलेभाले थे..आपने हमें बाजार के भरोसे क्यों छोड़ा? जनाब अब यह नहीं चलेगा..अब बिना अपने खुदा के हम नहीं जी पाएंगे...आप हमारी हत्या करने पर उतारू हो आए हो...आप हमारे आक्सीजन हमसे छीन रहे हो..अब ऐसा नहीं हो सकता..अगर यही करना था तो बाजार न बनाते..हमें ललचाते न..हम तो सदियों से अपने में जीते रहने वाले लोग रहे हैं..हमें तो आपकी ऐसी अर्थव्यवस्था-फर्थव्यवस्था से कोई सरोकार नहीं था..शादी विवाह भी हम लाई गुड़-चना और शर्बत खा-पीकर निपटा लेते थे.. वह भी अटूट बंधन वाली! इसमें हमें किसी टेंटहाऊस-फाऊस की भी जरूरत नहीं होती थी, गेस्टहाउस-फाउस की तो कल्पना ही नहीं थी..लेकिन आज खाट मिलना तो दूर अब तो खाट भी लूट ली जाती है..आपने लूटना ही लूटना सिखाया...सरकार यह लूटना और लुटना सिखाना सब आप का ही दिया है।
        सदियों पहले हमने पुल बनाना सीखा था क्योंकि समुद्र को लांघना हमने अनुचित माना था तब बाजार बनाने वाले हम लोग जो नहीं थे..! हम आत्मनिर्भर अपने में जीने वाले लोग थे..। लेकिन हमारी आदतें बदल डाली गई..हमें बाजार दिया गया..नोट दिया गया और..इधर अब आप हमसे नोट छीने ले रहे हैं...यह कैसे चलेगा..जो बाजार आपने फैला रखा है उसका क्या होगा? गवाह, अपराधी, जज सभी आप ही बनोगे? यह नहीं हो सकता। आप भी सजा के हकदार हैं। आप भी अपने लिए सजा तय करें..आजादी के बाद आखिर आपने क्या किया..?
           आखिर सरकार दर सरकार सब सरकारों ने मिलकर हमें क्या दिया? इनने जो चमचमाती सड़कें बनाई वह भी केवल बाजार जाने के लिए; एक भी सड़क हमारे गाँव की ओर जाती नहीं दिखाई देती। शायद, गाँव की ओर जानेवाली सड़कों को बाजार बनाने वालों ने ही मिलकर लूट लिया है...अगर कोई सड़क हमारे गाँव की ओर जाती हुई हमें मिलती तो शायद हम आपकी दी हुई अर्थव्यवस्था और इसके दिए बाजारूपने की लालच से हमारे जेब में पड़े काले रंग में रंगे नोट न गिन रहे होते..और आज अपने नोट के मालिक हम स्वयं होते..हम ही तय करते कि इन नोटों के साथ क्या सलूक किया जाए। लेकिन आपकी अर्थव्यवस्था और बाजार में फँसे हुए हम लोग अब कर ही क्या सकते हैं? 
          आज अगर कोई बाजार और इससे उपजे लालच को तोड़ने का काम करता है तो हमें भी अच्छा ही लगता है, लेकिन यह ऐसे नहीं होगा, हमें आत्मनिर्भर भी बनाइए। किसी बाजार और उसके चक्रव्यूह में मत ढकेलिए! अगर बाजार बनाएँगे तो यही होगा..! कृपया बाजार के हिमायती मत बनिए...