शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

..क्योंकि हमें साथ ही रहना है

घने जंगल के बीच से गुजरते हुए उस हाईवे के किनारे के पहाड़ के एक बड़े से पत्थर पर लिखे वाक्य "जय जीसस" पर निगाह क्षण मात्र के लिए ठहर सी गई। एक क्षण के लिए लगा इस घने जंगल के बीच इस वाक्य का क्या काम...फिर सोचा यह किसी धर्म प्रचार का हिस्सा तो नहीं? दूर दराज के ऐसे जंगली हिस्सों में गरीब या आदिवासी समाज के लोग ही रहते हैं और यह उन्हीं के लिए या उनके द्वारा ही लिखा गया हो?

          खैर, क्षण-मात्र के लिए इस "धर्म प्रचार" जैसे तरीके पर मन उलझा अवश्य! लेकिन यही मन यह देखकर संयत हो गया कि चलो लिखा है तो हिन्दी भाषा में ही, फिर इस वाक्य से मैंने भी अपनापन जोड़ लिया और फिर मुझे यह किसी धर्म प्रचार का हिस्सा नहीं लगा। आप लिखे हुए उस शब्द के प्रति इसे मेरी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया समझ सकते हैं।

           चूँकि अपनी इस मानसिक प्रतिक्रिया को मैंने मनोवैज्ञानिक माना अतः कोई कारण नहीं कि इसे एक सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया न माना जाए। कहने का आशय यहाँ मात्र इतना ही है कि विरूद्ध सी प्रतीत होने वाली बात में भी यदि कुछ अपनापन सा झलक जाता है तो मन उसके प्रति सहज हो जाता है और यह मन उसके साथ एक तरह से सह-अस्तित्व की धारणा बना लेता है। शिलापट्ट पर वह वाक्य हिन्दी में ही लिखा था। यदि यही वाक्य अंग्रेजी में लिखा होता तो मन उसे एक विरोधी विचारधारा मान उसके प्रति असहज हो जाता। अतः सहिष्णुता भी दो समुदायों की अन्तर्क्रिया से निर्मित होती है।

          उस क्षण दो विपरीत विचारों को जोड़ने का काम भाषा ने किया। वास्तव में किसी भी भाषा को किसी धर्म विशेष के लिए आरक्षित नहीं किया जा सकता। कोई भी भाषा जिस क्षेत्र में बोली,पढ़ी और समझी जाती है वह वहाँ के लोगों के लिए उनके आपस के विभिन्न मत-मतान्तरों के बावजूद भी उन्हें आपस में जोड़ने के लिए सेतु का कार्य करती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में इस्लाम धर्म को मानने वाले भाषा के भी धर्म से जोड़ते हैं परिणामस्वरुप उनके धर्म की बातें सामान्य जनों के लिए बेगानी सी प्रतीत होती रहती हैं।

           हिन्दी क्षेत्र में लिखना पढ़ना सुनना सब हिन्दी में ही होता है चाहे वह इस क्षेत्र के हिन्दू मुस्लिम या किसी भी धर्म के माननेवाले हों। लेकिन मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं अन्य शैक्षिक संस्थानों के नामों समेत इस्लाम से सम्बंधित धार्मिक विचार सम्बन्धित सूचना बोर्ड हिन्दी में लिखे हुए दिखाई नहीं देते। धार्मिक विचारों के लिए समुदायों के बीच भाषा सम्बन्धी सेतु के अभाव में धर्म को लेकर समुदायों के बीच एक दूरी पनपती रहती है जो साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों के लिए आग में घी का काम करती है।

          इस्लाम के मतावलंबियों ने भारत जैसे देश में उर्दू भाषा और इसकी लिपि को इस्लाम धर्म से जोड़कर इसे धर्म समुदाय विशेष की भाषा घोषित कर दिए हैं। इसका परिणाम यह है कि एक ही भाषा क्षेत्र के निवासी होने के बाद धार्मिक भाषा को लेकर दो समुदायों के बीच कृत्रिम दूरी दिखाने का प्रयास किया जाता है जो सामाजिक अन्तर्क्रिया को बाधित करता है।

           एक बात और है कोई भी भाषा किसी धर्म विशेष की भाषा नहीं हो सकती। यदि ऐसा होता तो दक्षिण भारत में भी हिंदी भाषा ही बोली जा रही होती। यह भी दृष्टव्य है कि संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा होने के बाद भी जब देवभाषा बनी तो यह आमजन की भाषा नहीं रह गई थी और आमजनों के लिए पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश से होते हुए इसे हिन्दी बनना पड़ा।

        अन्त में बात बस बात यही है कि हमारा सह-अस्तित्व है। हमें एक दूसरे की बातों, विचारों और भावनाओं को साझा करना पड़ेगा इसके लिए भाषा ही एक महत्वपूर्ण सेतु है। बेशक हम एक ही भाषा बोलते हैं लेकिन दिवारों पर जय जीसस, वाहे गुरु , अल्ला हो अकबर, जय श्रीराम स्थानीय भाषा में लिखा दिखाई दे जाए तो इन सभी से बड़ा अपनापन झलकेगा।

       चूँकि भारतीय चाहे किसी भी धर्म के हों बहुत भावुक भी होते हैं, इन बातों को ऊपर से नहीं थोपा जा सकता इस प्रवृत्ति को हमें स्वतः विकसित करना होगा। हो सकता है बौद्धिक सेक्यूलर तर्कवादियों के सहअस्तित्व सम्बन्धी तर्क यहाँ दूसरे हों लेकिन आमजन तर्कवादी नहीं होता वह भावनाओं से परिचालित होता है और तमाम जद्दोजहद में अपनापन तलाश करता रहता है। ऐसे लोगों को बहुत आसानी से बरगलाया भी जा सकता है।

             इन सब पर भी हमें सोचना होगा...क्योंकि हमें एक ही साथ रहना है।

                                                         -----------------------    

ये बच्चे भी स्कूल जाने के लिए रोते हैं...

         कल दीया जला रहे थे...और यह दीया अँधेरा रहने तक जलता रहे..कुछ यही सोचते हुए दियालियों में मैं भर भर तेल उड़ेले दे रहा था...! दिया जलाने के लिए तेल की आवश्यकता तो होती ही है...हाँ इसी चक्कर में तेल की बोतल लगभग खाली हो गयी थी...और इस खाली बोतल को देखकर दिमाग में आया कि दिया जलाने से बेहतर है कि चलो रोशनी की ही सब को शुभकामनाएँ दे डालें...नाहक इसके लिए तेल का बोतल खर्च किए दे रहे हैं..!! सुबह तो उजाला हो ही जाएगा...!! खैर..  
          सुबह के लगभग पाँच बज रहे होंगे..लेकिन अभी भी अँधेरा ही था...श्रीमती जी मुझे जगा रही थी...मोर्निग वाक के लिए..! इधर सबेरे-सबेरे जब-तब वो मुझे अपने साथ चार-पाँच किलोमीटर टहला आती हैं...हालाँकि मैं एक दिन टहलता हूँ तो दो दिन आराम भी करता हूँ...आज टहले कई दिन हो गए थे..एक बार तो सोचा...चलो टहल आयें....साथ ही अपने जलाये दीयों को देख भी लें कि वे अभी भी जल रहे हैं या नहीं...क्योंकि अभी तक तो अँधेरा ही है...! पता भी चल जाएगा कि रात भर के लिए इन दियों में तेल डाला था या नहीं..लेकिन न जाने क्यों नींद की खुमारी अभी भी छायी हुई थी...फिर जलाए वे दिये तो कब के बुझ चुके होंगे क्योंकि इतना तेल उन दीयों में नहीं डाल पाए थे...हाँ यही सोचते हुए मैंने श्रीमती जी से कहा, “यार अभी सोने का मन है..” और चद्दर तानकर फिर सो गए..हाँ वे अकेले ही टहलने निकल गयीं थी...
       
         इधर सुबह हुई, मैं सो ही रहा था...श्रीमती जी टहलने-टुहलने से लौट आई और चाय बनाने के बाद मुझे पुकारा..”अरे सोते भी रहोगे कि चाय-वाय भी पियोगे..?” मेरी आँख खुली देखा तो धूप किचन के रोशनदान से आ लाबी के फर्श पर बिखरी थी..जैसे जैसे मुझसे ही कह रही हो, “जागो मैं तुम्हें जगाने आई हूँ..जागो..! जागोगे तभी इस उजाले को और मेरा अहसास कर पाओगे...” ठीक इसी समय वह पुरानी बात भी याद हो आई...तब पढ़ते थे...तो ऐसे ही जब कभी सबेरे सोकर उठने में मैं देर करता तो माँ की यह आवाज मेरे कानों में गूँज रही होती... “जो सोवत हैं सो खोवत हैं, जो जागत हैं सो पावत हैं” और मैं जान जाता यह मुझे ही सुनाते हुए बोला जा रहा है...   
         
        खैर, पत्नी की “चाय-वाय भी पियोगे?” की आवाज सुन तथा फर्श पर बिखरी धूप को देख सोचा ओह..! इतनी धूप निकल आई और मैं सोता रहा..! हो सकता हैं रात भर मेरे जलाए ये दिये भी बेमतलब से ही जलें हों.? सोते हुए लोग इसकी रोशनी और लौ को कहाँ देख पाए होंगे..? और मैं भी तो इन्हें जलाकर ही सो गया था..! फिर विचार आया...चलो जब जागो तभी सबेरा..और..झटपट हाथ मुँह धोकर मैं श्रीमती जी के साथ चाय पीने बैठ गया...
        
         चाय पी लेने के बाद घर से बाहर निकला तो देखा धूप रुई के फाये जैसा एहसास दे रही थी...बस..मन बाहर निकलने का हो गया...एक तरह से सुबह का टहलना मेरा अब जाकर शुरू हुआ...
        
        पैदल चालन के लगभग दस मिनट हो चुके थे...किसी भीड़-भाड़ से बचने के लिए मैं एक नए विकसित हो रहे कालोनी के रास्ते पर हो लिया...एक छोटी सी झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती दिखाई पड़ी..सड़क पर उसी बस्ती के कुछ बच्चे आपस में बातें करते हुए खेल रहे थे...मैंने इनकी बातें सुनने का प्रयास किया...हाँ भाषा तो समझ में नहीं आई...लेकिन बच्चों के खेल की भाषा देखकर..मैं समझ गया कि दुनियाँ के सारे बच्चों की भाषा एक जैसी ही होती है, वही उनके अन्दर की भाषा है...!! इस भाषा पर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि ये बच्चे झुग्गी-झोपड़ी वालों के हैं या बँगलों के..! हाँ मैं भी तो ऐसे ही कभी खेला करता था...इन बच्चो की भाषा बिलकुल हमारे बचपन की भाषा से मिलती-जुलती थी...जिसे मैं समझ गया...
        
       मैंने एक बच्चे को अपने पास बुलाया..एक-एक कर सारे बच्चे मेरे पास आ गए...मैंने उस बच्चे से पूँछा, “बेटा स्कूल जाते हो...?” उसने कहा, “हाँ” और किसी अंग्रेजी स्कूल का नाम भी बताया! मेरे यह पूंछने पर आप में से कौन-कौन बच्चा स्कूल जाता है...? तो उन बच्चो में एक थोड़ी सयानी बच्ची बारी-बारी उन बच्चों के कन्धों पर हाथ रख बताने लगी, “ये जाते हैं...ये जाते हैं...ये जाते हैं...ये नहीं जाते...ये नहीं जाते..ये जाते हैं...”  एक छोटा बच्चा जो स्कूल नहीं जाता था मैंने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “ये तो अभी छोटा है इसलिए स्कूल नहीं जाता होगा..क्यों?” बच्ची ने झट से अपना सिर हिलाया और कहा, “हाँ इसीलिए..” लेकिन उस बच्ची की एक बात पर चौंक उठा..जब उसने अपनी झुग्गी बस्ती की ओर इशारा करते हुए कहा, “वहाँ कुछ और बच्चे हैं जो स्कूल जाने के लिए रोते है...!!”
      
        उस बच्ची की बात सुन मैंने सोचा “इस झुग्गीवाली बस्ती के बच्चे स्कूल जाने के लिए रोते हैं..!!” मैं चौंक उठा...मुझे एक रोशनी सी दिखाई पड़ी...फिर मैंने बच्चों से पूँछा, “तुम्हारे मम्मी-पापा क्या करते हैं...मजदूरी या कूड़ा बीनते होंगे...?” उसी बच्ची ने हिचकते हुए बताया, “हाँ..कूड़ा बीनते हैं..” हालाँकि मैं पहले से जानता था कि शहरों की ऐसी बस्तियों के लोग अकसर कूड़ा ही बीनते हैं या फिर लोगों के घरों से कूड़ा उठाते हैं...मुझे बात करते-करते एक-दो साइकिल ठेले कूड़े से लादे आते-जाते दिखाई भी पड़े...
      
        क्षण भर के लिए मैंने सोचा, रात के फूटते पटाखों और जलाए दीयों के साथ प्रकाश-पर्व की शुभकामनाएँ हमने खूब बाँटा...! और जब सही में अँधेरे में रोशनी करने की सोची थी तो तेल से खाली हुई बोतल आँखों के सामने नाच गई...बिना तेल के तो कोई रौशनी की ही नहीं जा सकती...बाकी मेरे सुपुत्रों ने मुझे दीवाली के ही दिन मेरे फेसबुक स्टेट्स को पढ़ मेरी खिल्ली उड़ाने के अंदाज में “बड़ी-बड़ी बाते करने वाला” घोषित कर दिया था...इसी समय बम्बई में बचपन की सुनी वह बात जैसे याद हो आई हो.. “क्या खाली-पीली बोम मारता है..?” सो, शेष सब बातें ही होती हैं..अपनी बातों की निरर्थकता मैं जानता हूँ...
       
         सोचा दीवाली की रात के बाद सूर्य के उजाले में ही सही इन बच्चों को रौशनी की शुभकामनाएँ ही दे दे..लेकिन मैं यह भी जानता था शुभकामनाएँ लेना देना तो बड़ों का ही खेल है..इनके लिए तो नहीं...! शुभकामनाओं से इन बच्चों पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं...लेकिन..मैं अकस्मात् बच्चों से कहने लगा...
         
          “बेटा तुम लोग खूब पढ़ा करो...स्कूल जरुर जाया करो..”
         
         ठीक इसी समय ऊपर से गड़गड़ाहट के साथ एक हवाईजहाज गुजरने लगा था..बच्चों की उत्सुकता भरी आँखों के साथ मेरी भी आँखे ऊपर आसमान की ओर उठ गई...मुझे इनकी आँखों में ऊँची उड़ान की ललक दिखाई पड़ी...
         
        ....इस ललक के साथ ही इन बच्चों के चेहरों के पीछे छिपी हुई रोशनी भी मुझे दिखाई देने लगी थी...मुझे अपनी माँ की वह आवाज याद आ गई... “जो सोवत हैं सो खोवत हैं, जो जागत हैं सो पावत है..” मतलब इनकी बस्तियों में यदि केवल ऐसी ही आवाजें सुनाई देने लगे तो इन बच्चों से इनके अन्दर की छिपी हुई रौशनी स्वतः फूट पड़े...क्योंकि ये बच्चे स्कूल जाने के लिए भी रोते हैं...
          
        घर लौट कर जब श्रीमती जी से इन बातों को बताया तो उन्होंने मुझसे कहा, “हाँ ये सब असाम से आये लोग हैं...सबेरे उठते टहलते समय हम इन बच्चों को रेल लाइन पर गुजरती मालगाड़ी के ड्राइवर से भी टाटा-बाय-बाय के अंदाज में उत्सुकता से हाथ हिलाते हुए अकसर देखा करते है...”
                             --------------(12-11-15-viny)   



ध्यान दीजिए और अपना अपराधबोध पहचानिए...

      उस दिन श्रीमती जी ने खाने के लिए दाल-रोटी दिया था। बस, कुछ ही क्षणों में यह भोजन सफाचट कर हाथ मुँह धो मैं उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। श्रीमती जी ने मुझे घूरते हुए पूँछा "खा लिए?" मैंने कहा "हाँ"। उनका अगला प्रश्न था "इतनी जल्दी खा लिए " इसके उत्तर में मेरे फिर "हाँ" कहने पर एक मधुर गुस्से में उन्होंने कहा "वही बचपन की आदतें अभी तक नहीं गई! अरे चबा-चबा कर खाया करो और खाते समय खाने पर ही ध्यान दिया करो..पता नहीं खाते समय क्या सोचते रहते हो? यदि ऐसा ही करोगे तो दाँत कमजोर होंगे ही स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा!" बाप रे!

          आप विश्वास नहीं करेंगे दूसरे दिन जब इसी दाल-रोटी को मैंने खूब चबा-चबा कर और खाते समय केवल अपने इस भोजन के स्वाद आदि पर ही ध्यान देते हुए खाया तो हमें एक नए तरीके की अनंदानुभूति हुई। और खाने के बाद मुझे एक प्रकार के सामाजिक अन्याय का भी अहसास होने लगा। लोग सोचेंगे बेटा..! तुम्हारे पास तो दाल-रोटी है, इसे खूब ध्यान लगा कर खाओ और खाने की आनंदानुभूति ले लो..। लेकिन जिसके पास यह दाल-रोटी मुअस्सर नहीं वह क्या करे..? यह बड़ा अजीब बेढब सा प्रश्न मेरे सामने आकर खड़ा हो गया...! इस प्रश्न की मुस्कुराहटों को देख मैं चौंक गया! दिल के किसी कोने में नैतिकता की अलंम्बरदारी (हाँ..केवल साहित्य की रचना के लिए) का ठेका लिए होने के कारण यह प्रश्न मेरे सामने आकर उछल-कूद मचाते हुए मेरा मुँह चिढ़ाने लगा। इस प्रश्न की उछल-कूद से मैं बौखला गया और फिर पत्नी के ऊपर यह सोचकर मन ही मन झल्ला उठा कि नाहक ही इनके चक्कर में यह बवाल मोल ले लिया..!

         खैर, यह जो मन है न, वह होता बड़ा अजीब है..! हर अपराधबोध से बचने के लिए कोई न कोई तर्क खोज ही लेता है। जैसे बिहार में हुई हार के लिए ये पार्टी वाले लोग खोज लेंगे..! मैं दाल-रोटी खाते समय इस खाने से उपजे आनंद से आनंदित हो ‘सामाजिक-अन्याय’ कर देने के पीछे के अपने "ध्यान" को ही इस अपराधबोध से बचने के लिए हथियार बनाया...मतलब जो ध्यान देगा वह तो खाएगा ही...आखिर ध्यान से ही तो योग्यता अर्जित हो सकती है...इस ‘ध्यान’ नामक तत्व के सहारे से ही तो गौतम जी बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे...! इसमें किसका निहोरा..? क्या बुद्धत्व प्राप्त कर उन्होंने सामाजिक अन्याय कर दिया था..?
         
         मैंने भी तो जब पढ़ने-लिखने पर थोड़े समय के लिए ही सही ध्यान दिया तो नौकरी मिल गई! और फिर आज की यह दाल-रोटी मुअस्सर हुई। मतलब ध्यान से बुद्ध बन सकते हैं तो अपने काम पर ध्यान देने से दाल-रोटी भी मिल सकती है! फिर मैंने ही ध्यान देकर कौन सा गुनाह कर दिया..? हाँ, जिसने ध्यान नहीं दिया वह रोए अपनी असहायता का रोना और फँसे दुःख के दुश्चक्र में..! अब अपने इस तर्क से मैं बेतरह खुश हो गया और जैसे मेरा अपराध-बोध रफूचक्कर हो चुका था...आखिर मैं अपने ध्यान की रोटी जो तोड़ रहा था..! इसमें किसी का अहसान कैसा..?

          मैं अपने इस ध्यान सम्बन्धी तर्क पर अभी खुश हो ही रहा था कि जैसे मुझे कोई आवाज सुनाई दी हो "बेटा! तुम चोर हो...बुद्ध ने तो अपना ध्यान सबमें बाँट दिया था….सबको बुद्धत्व सिखा गए..! लेकिन तुमने क्या किया..? इस ध्यान से केवल अपने लिए ही दाल-रोटी जुटाया...तुम्हारा ध्यान तो केवल तुम्हारे ही काम आया..! इसे बाँटा भी नहीं..!!”

         "मैं चोर? मैंने ध्यान नहीं बाँटा..?"  बात मेरी समझ में नहीं आई...भला ध्यान भी कोई बाँटने की चीज होती है..? जबकि ध्यान बंटा तो गए काम से..तब तो ध्यानभंग..! तभी मुझे लगा जैसे कोई सामाजिक न्याय का पुरोधा कह रहा हो "हाँ तुमने चोरी की है वह भी ध्यान की चोरी..सारा ध्यान तुमने अपने लिए ही बटोर लिया..! जब वे बेचारे अपने पेट के लिए तुम्हारे खेतों में तुम्हारे लिए रोटी बो रहे थे तब तुम उनके हिस्से वाले ध्यान की भी चोरी कर रहे थे..! इसीलिए आज रोटी-दाल खाने की आनंदानुभूति ले रहे हो..अरे, उनके हिस्से वाला वह ध्यान उन्हें लौटाने की कौन कहे उल्टा तुमने उन्हें ही मजदूर, कमजोर, बेबस बनाकर उन्हें नीचा भी बता दिया तथा स्वयं ऊँची कुर्सी पर बैठ अपनी इसी चोरी पर इतराने भी लगे..! इस चोरी पर ज्यादा मत इतराओ..समझे..?

        अब काटो तो मुझे खून नहीं, जैसे किसी चुनाव में मेरा अपराध-बोध जीत गया हो और मैं हार गया होऊँ...और..जैसे मेरे ध्यान की गठरी खुल गई हो, सारा भेद खुल गया और मेरी चोरी पकड़ी गई हो...सब मुझे चोर समझ जैसे दौड़ाए ले रहे हों..! हाँ, चुनाव की बात पर ध्यान आ गया...अभी-अभी कोई चुनाव परिणाम आया है..लोग इसे सामाजिक-न्याय की आवाज भी कह रहे है।
         मैं चौंक उठा..! नए-नए आए इस सामाजिक-न्याय पर ध्यान चला गया। अब यह ध्यान दाल-रोटी वाली आनंदानुभूति देने वाला ध्यान नहीं बल्कि अपराध-बोध से उपजा हुआ ध्यान था किसी दुश्चक्र से मुक्ति देने वाले टाइप का ध्यान..! इस ध्यान से ध्यान देने पर मैंने पाया -

          ..वही मजदूर, कमजोर लोग, अरे, अब तो कहने में कोई संकोच नहीं...वही नीची जाति वाले..जिन्हें हमने नीचा समझ लिया था और जिनके हिस्सों का ध्यान चोरी करते-करते हम ऊँची जाति वाले बन गए थे...जब हम उनके हिस्से का ध्यान खुशी-खुशी स्वतः ही नहीं लौटाए तो वे ही अब अपने उसी चोरी हुए ध्यान को हमसे छीने ले रहे हैं!! बुद्ध ने तो अपना ध्यान इन्हीं लोगों में बाँट दिया था...हमने तो इस ध्यान को अपने लिए दाल-रोटी में बदल लिया और इसे अब तक केवल अपने ही कोठारों में छिपाते रहे...वे बेचारे अब तक सोते रहे तथा हम ध्यान दर ध्यान अर्जित करते रहे..! लेकिन उनका जागना हमें खल गया क्या..? फिर इसमें रोना-चिल्लाना क्यों..?  ये बेचारे किसी दूसरे का हक् तो छीने नहीं केवल अपना ही खोया हुआ ध्यान वापस ले रहे हैं...हक् ले लेना बुरी बात नहीं....इसके लिए इन्हें बधाई..! अब ये भी ध्यान लगाने के काबिल बनेंगे..कम से कम ये भी अब अपने लिए दाल-रोटी का आनंद उठाने के लायक तो बन सकेंगे..! हाँ इस पूरी प्रक्रिया में ध्यान नमक जो जीन हमारे अन्दर है..वही जीन इनके अन्दर भी पहुँचेगा..!

         भाई लोग इसे भी पचाओ...! हम लोगों की तो बड़ी-बड़ी चीजें पचा लेने की आदत रही है! इतना न पचाए होते तो हम इतने सांस्कारिक और पारिवारिक कैसे बने होते..? क्या हम लोगों ने गाँव-गाँव फैले अपने परिवारों पर ध्यान दिया है? जरा ध्यान दीजिए, कैसे गाँव-गाँव पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे सांस्कारिक परिवारवाद के नीचे ये कमजोर और मजदूर हमारे लिए ही पिसते रहे और हम इन सबका ध्यान भी अपने लिए ही सुरक्षित कर अपना ही फैसला पीढ़ी दर पीढ़ी इन पर थोपते रहे? और बिना ध्यान वाले ये लोग जो अब तक हमारे ध्यान के मारे थे..आज इन्होंने थोड़ा सा फैसला क्या सुना दिया कि हम लगे चिल्लाने..? मेरे भाई अब यही फैसला सुनाएंगे और हमें सुनना भी पड़ेगा...
          
          हाँ..अभी इनके परिवारवाद पर अँगुली न उठाइए..! इन बेचारों में तो दो-चार ही परिवारवादी होंगे! ये बेचारे क्या परिवारवादी बनेंगे? हम लोगों ने तो पहले से ही अपने परिवारवाद के लिए इनके हिस्से की जमीनें भी छीन रखी है..इनका भी कोई परिवारवाद हो इस पर तो हमने न तो इन्हें मौका दिया और न ही इस बात पर कभी हमने ध्यान दिया...क्योंकि तब हमारे परिवारवाद को खतरा होता..!! आखिर मजदूरों कमजोरों दलितों का कौन सा परिवारवाद हो सकता है..? वे बेचारे तो हमारे ही परिवारवाद को बढाने के काम आते हैं...हाँ दो चार परिवारवादियों की भी जो बात आप कर रहे हो न, वे भी इन कमजोरों मजदूरों के सपने हैं, उन्हीं में ये बेचारे ध्यान के मारे अपना अक्स ढूंढते हैं..! हाँ, जब दोनों ओर परिवारवाद बराबरी पर आ जाए तब इस पर अंगुली उठाइए..!! समझे?

         अन्त में एक बात और हम अपने उसी अपराधबोध वाले ध्यान के माध्यम से उन भक्तों से कहना चाहते हैं जो ध्यान का ठेका लिए फिरते हैं..! वह यही कि भाई जी आप बड़े संघ लिए फिरते हो, क्या आपने कभी किसी बात पर किसी से ध्यान देने की बात किया..? किसी को किसी बात पर ध्यान देना सिखाया..? आपने तो ध्यान में डूब जाने की बात की लेकिन ध्यान देना नहीं सिखाया..! हाँ आप इन्हें फिर से ध्यान में डुबो देना चाहते थे..! आप यह भूल गए कि "ध्यान देना" और "ध्यान में डूबना" दोनों एकदम से अलग-अलग बातें होती हैं..! एक यदि होशोहवाश की बात है तो दूसरा नशे का इंजेक्शन देना है मतलब बेहोशी की स्थिति में पहुँचाना..! आप अपना संघ लेकर इन बेचारों को जगाना छोड़ इन्हें फिर से नशे में डुबोना चाह रहे थे..? जबकि सबसे अधिक इन्हीं पर ध्यान देना था...और इन्हें ही ध्यान देना सिखाना भी था...!! लेकिन आप ने ऐसा नहीं किया..आप ने ध्यान के बँटवारे में भी रूचि नहीं लिया...अलबत्ता आप ध्यान का इंजेक्शन ही लगाते रहे...!

          शायद मेरी बातें अब भी समझ में न आई हों तो थोड़ा शार्टकट में समझाते हैं--

          उस दिन मेरे जल्दी-जल्दी खाना खा लेने के कारण पत्नी ने इसे मेरा बचपना कहा और इससे स्वास्थ्य खराब होने की चेतावनी देते हुए मुझे टोका था, तब मुझे अहसास हुआ कि खाना खाते समय कहीं किसी और ध्यान में मैं डूबा हुआ था। खाना खाते समय मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या खा रहा हूँ..? कैसे खा रहा हूँ..? खाने में स्वाद है या नहीं..? किस कौर को निगलना चाहिए..? किसे चबाना चाहिए..? आदि-आदि..! हाँ, इसका आशय यही है कि कोई काम करते समय हम उस काम पर ध्यान दिए बिना करते जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी कार्यकुशलता प्रभावित होती है और उस कार्य के परिणाम भी प्रभावित होते हैं। कोई काम करते समय उस काम पर ध्यान न देने की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब हम किसी अन्य विचार या धारणा से प्रभावित या उसमें डूबे हुए होते हैं| यह एक रोगी की ही स्थिति होती है, इस स्थिति में हमारी मनःस्थिति जैसे परतन्त्रता की शिकार बन जाती है| अब तो स्पष्ट हो गया होगा कि किसी ध्यान में डूब जाना कितना हानिकारक होता है, बहकना होता है।
        तो ये भाई लोग संघी को अपने साथ लेकर लोगों को रोगी बनाने चले थे...हाँ, तभी पहचान लिए गए...! गजब हो गया...भेद खुल गया..लोग फिर नशे से बिमार होने से बच गए...!! जैसे लोगों ने ध्यान दे दिया हो..!
        ...और ध्यान देना यह है - जो काम कर रहे हैं उस पर ध्यान देना उस काम के प्रति सचेत होना होता है और तब काम करने वाले को कोई नहीं बहका सकता। जबकि नशेड़ी तो बहक जाता है..सम्मोहित हो जाता है...परतंत्रता का शिकार हो जाता है...इनका दुरूपयोग कर इन्हें बिमारी का शिकार बना दिया जाता है...। हमारे देश में सदियों से लोगों के साथ यही होता रहा है...लोग बीमार बनते रहे हैं...।
           भाई लोगों ने इन्हें अब तक ध्यान में ही डुबो सम्मोहित करके रखा था और ये बेचारे कभी अपने काम पर ध्यान ही नहीं दे पाए..और तो और...हम भाई लोगों ने इनके हिस्से का ध्यान भी चुरा लिया...! इस चोरी के ध्यान-धन से ऊँचा बन बैठे..!!

           इतने दिनों तक ध्यान देने की क्षमता से वंचित इन बेचारों का स्वास्थ्य खराब बना रहा..! हम इनसे मनमाना कराते रहे क्योकि तब ये हमारे दिए गए ध्यान के नशे में डूबे कमजोर जो थे...!! अब ये भी जागना सीख रहे हैं..इन्हें सीखने दीजिए...इन्हें ध्यान में डुबोना नहीं इन्हें ध्यान देना सिखाइए...!! अन्यथा ये चोरी हुआ अपना ध्यान आपसे छीन लेंगे...क्योंकि अब इन्हें चोर और चोरी हुए माल का पता लग गया है..!! अपना अपराधबोध पहचानिए...!!! बिहार में लोगों ने ध्यान ही दिया है।
         ध्यान दीजिए आपका भी स्वास्थ्य अच्छा हो और आप सब के घरों में रोशनी का दिया टिमटिमाए इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएँ!

                  ------------------------(११-११-१५)  

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

सहित्यकारिता को जीना भी पड़ता है

          बचपन में जब कभी बेमतलब की घुमक्कड़ी कर रहे होते तो घर के बड़े लोग उठाईगीरी करने का तमगा दे दिया करते थे। इस उठाईगीरी में गैरजिम्मेदारी और आवारगी का भाव मिलाजुला होता है। आज जब हम नौकरी में हैं तो स्वयं उठाईगीरी करने जैसा भाव मन में कभी-कभी आने लगता है। खैर, इसकी व्याख्या में हम नहीं जाना चाहते क्योंकि तब बेमतलब का बखेड़ा खड़ा करना माना जाएगा एक तो यही कि जैसे सरकारी पुरस्कार हमनें क्यों ग्रहण किया?

        इधर नौकरी की व्यस्तता में इतना खो गए कि हमें पारिवारिक दायित्व ही विस्मृत से हो गए। लेकिन नौकरी से बचे समय में घर की बात भूल लेखक या साहित्यकार बनने का चस्का पाल लिये। अब मेरी लगातार पोस्टों को देखकर मेरे घर में यह विश्वास ही नहीं हो रहा कि मैं इन दिनों नौकरी में व्यस्त हूँ।

          उस दिन श्रीमती जी ने काफी नाराजगी व्यक्त किया और यह कहते हुए कि "अपने घर के प्रति गैरजिम्मेदार, आवारा और उठाईगीर ही लेखक या साहित्यकार बनते हैं" और फोन काट दिया था। वास्तव में उनका यह कथन मुझे अन्दर तक हिला गया। मुझे श्रीमती जी का कथन प्रामाणिक सिद्ध होता प्रतीत हुआ।  क्योंकि जो व्यक्ति अपने परिवार को ही नहीं गढ़ सकता वह साहित्यकार क्या बन पाएगा? और मुझे लगा ऐसे ही उठाईगीरी में ही लोग लेखक बन पाते होंगे। केवल चन्द शब्द गढ़ देना ही साहित्यकारिता नहीं होती उसके कथ्य को जीना भी पड़ता है।

          संयोग से उसी दिन मैंने एक साहित्यकार को किसी विवाद पर अपने साहित्यिक पुरस्कार लौटाते हुए देखा। मुझे साहित्यकारों का यह काम बहुत अच्छा लगने लगा। मुझे प्रतीत हुआ कि बेमानी के पुरस्कारों के साथ इन लोगों ने अब जाकर न्याय किया। वास्तव में उठाईगीरी का लेखन पुरस्कार के योग्य हो ही नहीं सकता। गाँधी भी गाँधी इसीलिए बने कि वे जैसा कहते वैसा ही जीते भी थे। केवल लफ्फाजी असरकारी नहीं होता यदि ऐसा होता तो इन साहित्यकारों को पुरस्कार लौटाने की नौबत ही न आती।
      

           अन्त में श्रीमती जी का गुस्से में ही सही कहा गया वह कथन मुझे बड़ा मौजू लगा इसीलिए पत्नी के कथन को हू-ब-हू पोस्ट कर दिया था।

कृपया मुझे मतदाता ही बने रहने दें

किसी भी व्यक्ति की एक राजनीतिक विचारधारा हो सकती है लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसके लिए वह किसी एक खास राजनीतिक दल से स्वयं को सम्बद्ध करे। राजनीतिक विचारधारा के क्रियान्वयन के लिए जरूरी नहीं कि राजनीतिक कार्यकर्ता ही बना जाए। राजनीतिक दल सत्तावादी विचारधारा के होते हैं और इनके कार्यकर्ता भी सत्ता के आकांक्षी होते हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता की आकांक्षा में राजनीतिक उद्देश्य विश्रृंखलित हो सकते हैं।
                वैसे भारतीय संविधान स्वयं में एक राजनीतिक विचारधारा ही है। यदि इसे सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर सकें तो शायद हम अपने राजनीतिक विचारधारा के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। इससे इतर कोई निजी राजनीतिक विचारधारा लेकर चलना एक तरह से अलोकतांत्रिक हो सकता है। वैसे हम एक आम वोटर हैं दलीय कार्यकर्ता नहीं और यदि हम एक जागरूक मतदाता हैं तो राजनीतिक दलों के प्रति हमारी निष्ठाएँ भी बदलती रह सकती हैं क्योंकि अपने नागरिकों के लिए एक राष्ट्र की जरूरतें भी देश-काल और तमाम परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तथा एक तटस्थ मतदाता ही विश्रृंखलित राजनीतिक उद्देश्यों को राष्ट्रहित में संतुलित कर सकता है।


             अतः कृपया मुझे मतदाता ही बने रहने दें। देश को एक राजनीतिक कार्यकर्ता से अधिक एक जागरूक मतदाता की आवश्यकता है। 

ये शरारते और चटखारे लेते लोग

          सड़क मार्ग से गुजरते हुए दूरी बताने वाले पत्थर पर मेरी निगाह जा पड़ी उस मील के पत्थर पर लिखा था "गदहा" मतलब गदहा इतने किमी। वाकई इसे "मौदहा" लिखा होना चाहिए। लेकिन किसी शरारती ने मजा लेने के लिए इसमें "ौ" को मिटाकर तथा "म" को संशोधित कर "ग" बनाकर इसे "गदहा" कर दिया था। निश्चित रूप से उसे इस काम में मजा आया होगा।

          इसके बाद आगे चलते हुए मैंने देखा हाईवे के किनारे के एक स्कूल का संकेतक चुनावी पोस्टर से ढका दिखाई दिया। थोड़ा और आगे उस जेब्रा क्रासिंग के संकेतक पर भी एक चुनावी पोस्टर चस्पा कर उसे भी ढक दिया गया था जिस पर सड़क पार करते एक नन्हें बच्चे का चिह्न बच्चों की सड़क पार करने की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही लगाया गया होता है। इसके आगे के कस्बे का तो मैं नाम ही नहीं जान पाया क्योंकि उस कस्बे के नाम के बड़े संकेतक बोर्ड पर किसी हाथ जोड़े नेता का चित्र चिपकाया गया था। इसी तरह किसी -किसी मोड़ के संकेतकों पर भी ऐसे पोस्टर चिपके हुए दिखाई दिए जिनके कारण सड़क किधर मुड़ रही है यह पता ही नहीं चल पाता था। रात में ड्राइवर बेचारों का क्या हाल होता होगा?
         एक बार तो मन हुआ कि इन सब की तस्वीरें लेते चलें लेकिन यह सोचते हुए कि कोई पत्रकार तो हूँ नहीं और नहीं लिया।

        निश्चित रूप से ये वे शरारतें हैं जो कानून का उल्लंघन तो करते ही हैं लेकिन इससे नागरिकों का जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। अब ऐसी शरारतें जिससे कानून का उल्लंघन होता हो लोग कैसे कर जाते हैं? वास्तव में यही ऐसे छोटे-छोटे कारण हैं जो हमारे समाज के जाहिलपने के साथ हमारी कानूनी व्यवस्थाओं की भी पोल खोलते हैं और लोग शरारतें करने के लिए प्रोत्साहित होते रहते हैं।

             हमें उस संकेतक पर चुनावी प्रचार में हाथ जोड़े नेता का का पोस्टर देखकर टी.एन. शेषन की याद हो आई। मतलब यदि कानून का चाबुक चलने लगे तो कैसे बड़े-बड़े चुनावी प्रचार का जलसा भी एक सन्नाटे में बदल जाता था। शरारतों पर कोई कानून कैसे प्रभावी होता है यह शेषन से सीखा जा सकता है। लेकिन आज हम करते क्या हैं? केवल चिढ़ने-चिढ़ाने के खेल में मस्त हैं।

              आज हमारे समाज में ऐसी ही शरारतें हो रही हैं और हम शरारतों पर चटखारे लेते हैं! "मौदहा" का "गदहा" बन जाने का मजा लेते हैं। हम बोलते भी हैं तो एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए और केवल अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ाने के लिए! और जब किसी शेषन के चुनने की नौबत आती है तो हम उसे हरा देते हैं।

             हमारी सोशल मीडिया के लोग इस चिढ़ने-चिढ़ाने के खेल में सबसे आगे है। ऐसे खेल स्वयं में शरारती होते हैं शायद इसी खेल में लिप्त रहने के कारण हम कानून कैसे काम करे इस बात को नेपथ्य में फेंककर एक और नेता का हाथ जोड़ा हुआ चुनावी पोस्टर किसी कानून के संकेतक पर फिर से चस्पा कर देने का अवसर प्रदान कर देते हैं।

        यहाँ बस इतना ही कहना है कि किसी की शरारतों पर चिढ़ने-चिढ़ाने वाले लोगों तुम भी इतिहास के किसी कूड़ेदान में फेंक दिए जाओगे। टीआरपी के खेल में मत उलझो। "कानून अपना काम करेगा" यह जुमला जिस दिन चल गया उस दिन न शरारतें होगी और न शरारती। समझे!


शनिवार, 10 अक्टूबर 2015

आखिर इनको किस तरह की कानूनी सहायता दी जाए...



           आज 10 अक्टूबर है यानी “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस” इस अवसर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण महोबा द्वारा जिला चिकित्सालय परिसर में मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के सहायतार्थ विधिक जागरूकता गोष्ठी का आयोजन किया गया|
         
                विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम १९८७ की धारा १२ (डी) के अंतर्गत मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति निःशुल्क विधिक सहायता के अधिकारी हैं|वे स्वयं अथवा उनकी तरफ से उनके रिश्तेदार अथवा संरक्षक निःशुल्क विधिक सहायता के लिए प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत कर सकते हैं|
         
                   इस गोष्ठी में मुझे भी जाने का अवसर मिला| गोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किए-
       
                डाक्टर गुप्ता ने सर्वप्रथम मानसिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रकाश डाला उनहोंने मेडिकल साइंस में प्रचलित रोगों के नाम का उल्लेख करते हुए इस पर प्रकाश डाला| लेकिन उनके वक्तव्य की एक बात मुझे याद रही| तीन प्रकार के स्वास्थ्य (1)मानसिक स्वास्थ्य, (2)शारीरिक स्वास्थ्य और (3)सामाजिक स्वास्थ्य बताते हुए कहा कि शारीरिक स्वास्थ्य तो दवाओं से ठीक हो सकता है लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए सामाजिक स्वास्थ्य को भी ठीक रखना होगा| डाक्टर साहब के कथन का आशय यह भी था कि एक खराब समाज भी व्यक्ति को मानसिक रोगी बना देता है|

              इसके बाद ए.एस.पी. साहब ने बताया कि जब हम निर्णय नहीं ले पाते तब हमारा मानसिक स्वास्थ्य खराब माना जाता है|
        
          मुझे भी इस गोष्ठी के अवसर पर कुछ बातें रखने के लिए कहा गया| मैंने भी कहा कि हमें ऐसे व्यक्तियों की पहचान करते हुए उनके साथ अपने व्यवहार को संवेदनशील बनाएं रखें क्योंकि कभी-कभी हमारा व्यवहार ऐसे व्यक्तियों को खराब मानसिक स्वास्थ्य से उबरने का मौका प्रदान करता है और फिर उनमें भी निर्णय लेने की क्षमता आ जाती है| मैंने उदाहरण के रूप में अपने बचपन की यह घटना सुनाई –एक बार हम तीन-चार बच्चे आपस में कुश्ती की प्रतियोगिता का खेल खेलने का निश्चय किए इस क्रम में एक बच्चा एक दूसरे बच्चे को बार-बार पटकनी दे रहा था लेकिन वह अपनी हार मानने के लिए तैयार नहीं हो रहा था और पुनः लड़ने के लिए तैयार हो जाता...फिर हमने उस बच्चे से हारना तय किया..और वह मिली इस जीत से खुश गया था| मैंने अपने वक्तव्य में यह भी बताया कि मानसिक रूप से कमजोर व्यक्तियों के भी विधिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा लोगों को मानसिक समस्या से पीड़ित व्यक्तियों के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो पाए इसके लिए जागरूक रहना चाहिए तथा आगे बढ़कर सहायता करनी चाहिए|  

               सी.एम.ओ. साहब ने कहा कि पागल किसी को नहीं कहना चाहिए| व्यक्ति की कुछ मानसिक समस्या हो सकती है, इसे समझना चाहिए|

              ए डी. जे. साहब ने भी इस गोष्ठी के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए उन व्यवस्थाओं की चर्चा की जिनसे ऐसे व्यक्तियों को मदद मिल सकती है| उन्होंने यह भी बताया कि वास्तव में कभी-कभी मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति के लिए समस्या बन जाती है ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं होता इस सम्बन्ध में एक कहानी सुनाई...एक बार एक व्यक्ति ने कहा कि मैं मर गया हूँ, उसे लोग बार-बार समझाने का प्रयास कर रहे थे कि नहीं तुम जीवित हो लेकिन वह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था...तब किसी ने कहा कि तुम्हारा शरीर गर्म है तुम जीवित हो इस पर वह बोला मेरा शरीर गर्म है तब तो मैं मर चुका हूँ..फिर किसी ने उसे सूई चुभो कर निकलते खून को दिखाते हुए कहा कि देखो जीवित के ही खून निकल सकता है इसलिए तुम जीवित हो इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे खून निकल रहा है इसलिए मैं मर चुका हूँ...आशय यह कि वह किसी भी रूप में दूसरों की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था ऐसे व्यक्तियों को समझाना भी कठिन होता है...


           गोष्ठी समाप्त हुई... मुझे लगा “मर चुके हैं” माननेवाले जैसे लोग अब अपने देश में बढ़ते जा रहे हैं उनपर किसी बात का असर नहीं होता यह सोचते ही मुझे अपने देश के सामजिक स्वास्थ्य की चिंता होने लगी..और अब तो राजनीतिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ हो गया है...आखिर  इन सब इन सब का स्वास्थ्य कैसे सुधरे..? इनको किस तरह की कानूनी सहायता दी जाए..?