शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

ध्यान दीजिए और अपना अपराधबोध पहचानिए...

      उस दिन श्रीमती जी ने खाने के लिए दाल-रोटी दिया था। बस, कुछ ही क्षणों में यह भोजन सफाचट कर हाथ मुँह धो मैं उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। श्रीमती जी ने मुझे घूरते हुए पूँछा "खा लिए?" मैंने कहा "हाँ"। उनका अगला प्रश्न था "इतनी जल्दी खा लिए " इसके उत्तर में मेरे फिर "हाँ" कहने पर एक मधुर गुस्से में उन्होंने कहा "वही बचपन की आदतें अभी तक नहीं गई! अरे चबा-चबा कर खाया करो और खाते समय खाने पर ही ध्यान दिया करो..पता नहीं खाते समय क्या सोचते रहते हो? यदि ऐसा ही करोगे तो दाँत कमजोर होंगे ही स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा!" बाप रे!

          आप विश्वास नहीं करेंगे दूसरे दिन जब इसी दाल-रोटी को मैंने खूब चबा-चबा कर और खाते समय केवल अपने इस भोजन के स्वाद आदि पर ही ध्यान देते हुए खाया तो हमें एक नए तरीके की अनंदानुभूति हुई। और खाने के बाद मुझे एक प्रकार के सामाजिक अन्याय का भी अहसास होने लगा। लोग सोचेंगे बेटा..! तुम्हारे पास तो दाल-रोटी है, इसे खूब ध्यान लगा कर खाओ और खाने की आनंदानुभूति ले लो..। लेकिन जिसके पास यह दाल-रोटी मुअस्सर नहीं वह क्या करे..? यह बड़ा अजीब बेढब सा प्रश्न मेरे सामने आकर खड़ा हो गया...! इस प्रश्न की मुस्कुराहटों को देख मैं चौंक गया! दिल के किसी कोने में नैतिकता की अलंम्बरदारी (हाँ..केवल साहित्य की रचना के लिए) का ठेका लिए होने के कारण यह प्रश्न मेरे सामने आकर उछल-कूद मचाते हुए मेरा मुँह चिढ़ाने लगा। इस प्रश्न की उछल-कूद से मैं बौखला गया और फिर पत्नी के ऊपर यह सोचकर मन ही मन झल्ला उठा कि नाहक ही इनके चक्कर में यह बवाल मोल ले लिया..!

         खैर, यह जो मन है न, वह होता बड़ा अजीब है..! हर अपराधबोध से बचने के लिए कोई न कोई तर्क खोज ही लेता है। जैसे बिहार में हुई हार के लिए ये पार्टी वाले लोग खोज लेंगे..! मैं दाल-रोटी खाते समय इस खाने से उपजे आनंद से आनंदित हो ‘सामाजिक-अन्याय’ कर देने के पीछे के अपने "ध्यान" को ही इस अपराधबोध से बचने के लिए हथियार बनाया...मतलब जो ध्यान देगा वह तो खाएगा ही...आखिर ध्यान से ही तो योग्यता अर्जित हो सकती है...इस ‘ध्यान’ नामक तत्व के सहारे से ही तो गौतम जी बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे...! इसमें किसका निहोरा..? क्या बुद्धत्व प्राप्त कर उन्होंने सामाजिक अन्याय कर दिया था..?
         
         मैंने भी तो जब पढ़ने-लिखने पर थोड़े समय के लिए ही सही ध्यान दिया तो नौकरी मिल गई! और फिर आज की यह दाल-रोटी मुअस्सर हुई। मतलब ध्यान से बुद्ध बन सकते हैं तो अपने काम पर ध्यान देने से दाल-रोटी भी मिल सकती है! फिर मैंने ही ध्यान देकर कौन सा गुनाह कर दिया..? हाँ, जिसने ध्यान नहीं दिया वह रोए अपनी असहायता का रोना और फँसे दुःख के दुश्चक्र में..! अब अपने इस तर्क से मैं बेतरह खुश हो गया और जैसे मेरा अपराध-बोध रफूचक्कर हो चुका था...आखिर मैं अपने ध्यान की रोटी जो तोड़ रहा था..! इसमें किसी का अहसान कैसा..?

          मैं अपने इस ध्यान सम्बन्धी तर्क पर अभी खुश हो ही रहा था कि जैसे मुझे कोई आवाज सुनाई दी हो "बेटा! तुम चोर हो...बुद्ध ने तो अपना ध्यान सबमें बाँट दिया था….सबको बुद्धत्व सिखा गए..! लेकिन तुमने क्या किया..? इस ध्यान से केवल अपने लिए ही दाल-रोटी जुटाया...तुम्हारा ध्यान तो केवल तुम्हारे ही काम आया..! इसे बाँटा भी नहीं..!!”

         "मैं चोर? मैंने ध्यान नहीं बाँटा..?"  बात मेरी समझ में नहीं आई...भला ध्यान भी कोई बाँटने की चीज होती है..? जबकि ध्यान बंटा तो गए काम से..तब तो ध्यानभंग..! तभी मुझे लगा जैसे कोई सामाजिक न्याय का पुरोधा कह रहा हो "हाँ तुमने चोरी की है वह भी ध्यान की चोरी..सारा ध्यान तुमने अपने लिए ही बटोर लिया..! जब वे बेचारे अपने पेट के लिए तुम्हारे खेतों में तुम्हारे लिए रोटी बो रहे थे तब तुम उनके हिस्से वाले ध्यान की भी चोरी कर रहे थे..! इसीलिए आज रोटी-दाल खाने की आनंदानुभूति ले रहे हो..अरे, उनके हिस्से वाला वह ध्यान उन्हें लौटाने की कौन कहे उल्टा तुमने उन्हें ही मजदूर, कमजोर, बेबस बनाकर उन्हें नीचा भी बता दिया तथा स्वयं ऊँची कुर्सी पर बैठ अपनी इसी चोरी पर इतराने भी लगे..! इस चोरी पर ज्यादा मत इतराओ..समझे..?

        अब काटो तो मुझे खून नहीं, जैसे किसी चुनाव में मेरा अपराध-बोध जीत गया हो और मैं हार गया होऊँ...और..जैसे मेरे ध्यान की गठरी खुल गई हो, सारा भेद खुल गया और मेरी चोरी पकड़ी गई हो...सब मुझे चोर समझ जैसे दौड़ाए ले रहे हों..! हाँ, चुनाव की बात पर ध्यान आ गया...अभी-अभी कोई चुनाव परिणाम आया है..लोग इसे सामाजिक-न्याय की आवाज भी कह रहे है।
         मैं चौंक उठा..! नए-नए आए इस सामाजिक-न्याय पर ध्यान चला गया। अब यह ध्यान दाल-रोटी वाली आनंदानुभूति देने वाला ध्यान नहीं बल्कि अपराध-बोध से उपजा हुआ ध्यान था किसी दुश्चक्र से मुक्ति देने वाले टाइप का ध्यान..! इस ध्यान से ध्यान देने पर मैंने पाया -

          ..वही मजदूर, कमजोर लोग, अरे, अब तो कहने में कोई संकोच नहीं...वही नीची जाति वाले..जिन्हें हमने नीचा समझ लिया था और जिनके हिस्सों का ध्यान चोरी करते-करते हम ऊँची जाति वाले बन गए थे...जब हम उनके हिस्से का ध्यान खुशी-खुशी स्वतः ही नहीं लौटाए तो वे ही अब अपने उसी चोरी हुए ध्यान को हमसे छीने ले रहे हैं!! बुद्ध ने तो अपना ध्यान इन्हीं लोगों में बाँट दिया था...हमने तो इस ध्यान को अपने लिए दाल-रोटी में बदल लिया और इसे अब तक केवल अपने ही कोठारों में छिपाते रहे...वे बेचारे अब तक सोते रहे तथा हम ध्यान दर ध्यान अर्जित करते रहे..! लेकिन उनका जागना हमें खल गया क्या..? फिर इसमें रोना-चिल्लाना क्यों..?  ये बेचारे किसी दूसरे का हक् तो छीने नहीं केवल अपना ही खोया हुआ ध्यान वापस ले रहे हैं...हक् ले लेना बुरी बात नहीं....इसके लिए इन्हें बधाई..! अब ये भी ध्यान लगाने के काबिल बनेंगे..कम से कम ये भी अब अपने लिए दाल-रोटी का आनंद उठाने के लायक तो बन सकेंगे..! हाँ इस पूरी प्रक्रिया में ध्यान नमक जो जीन हमारे अन्दर है..वही जीन इनके अन्दर भी पहुँचेगा..!

         भाई लोग इसे भी पचाओ...! हम लोगों की तो बड़ी-बड़ी चीजें पचा लेने की आदत रही है! इतना न पचाए होते तो हम इतने सांस्कारिक और पारिवारिक कैसे बने होते..? क्या हम लोगों ने गाँव-गाँव फैले अपने परिवारों पर ध्यान दिया है? जरा ध्यान दीजिए, कैसे गाँव-गाँव पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे सांस्कारिक परिवारवाद के नीचे ये कमजोर और मजदूर हमारे लिए ही पिसते रहे और हम इन सबका ध्यान भी अपने लिए ही सुरक्षित कर अपना ही फैसला पीढ़ी दर पीढ़ी इन पर थोपते रहे? और बिना ध्यान वाले ये लोग जो अब तक हमारे ध्यान के मारे थे..आज इन्होंने थोड़ा सा फैसला क्या सुना दिया कि हम लगे चिल्लाने..? मेरे भाई अब यही फैसला सुनाएंगे और हमें सुनना भी पड़ेगा...
          
          हाँ..अभी इनके परिवारवाद पर अँगुली न उठाइए..! इन बेचारों में तो दो-चार ही परिवारवादी होंगे! ये बेचारे क्या परिवारवादी बनेंगे? हम लोगों ने तो पहले से ही अपने परिवारवाद के लिए इनके हिस्से की जमीनें भी छीन रखी है..इनका भी कोई परिवारवाद हो इस पर तो हमने न तो इन्हें मौका दिया और न ही इस बात पर कभी हमने ध्यान दिया...क्योंकि तब हमारे परिवारवाद को खतरा होता..!! आखिर मजदूरों कमजोरों दलितों का कौन सा परिवारवाद हो सकता है..? वे बेचारे तो हमारे ही परिवारवाद को बढाने के काम आते हैं...हाँ दो चार परिवारवादियों की भी जो बात आप कर रहे हो न, वे भी इन कमजोरों मजदूरों के सपने हैं, उन्हीं में ये बेचारे ध्यान के मारे अपना अक्स ढूंढते हैं..! हाँ, जब दोनों ओर परिवारवाद बराबरी पर आ जाए तब इस पर अंगुली उठाइए..!! समझे?

         अन्त में एक बात और हम अपने उसी अपराधबोध वाले ध्यान के माध्यम से उन भक्तों से कहना चाहते हैं जो ध्यान का ठेका लिए फिरते हैं..! वह यही कि भाई जी आप बड़े संघ लिए फिरते हो, क्या आपने कभी किसी बात पर किसी से ध्यान देने की बात किया..? किसी को किसी बात पर ध्यान देना सिखाया..? आपने तो ध्यान में डूब जाने की बात की लेकिन ध्यान देना नहीं सिखाया..! हाँ आप इन्हें फिर से ध्यान में डुबो देना चाहते थे..! आप यह भूल गए कि "ध्यान देना" और "ध्यान में डूबना" दोनों एकदम से अलग-अलग बातें होती हैं..! एक यदि होशोहवाश की बात है तो दूसरा नशे का इंजेक्शन देना है मतलब बेहोशी की स्थिति में पहुँचाना..! आप अपना संघ लेकर इन बेचारों को जगाना छोड़ इन्हें फिर से नशे में डुबोना चाह रहे थे..? जबकि सबसे अधिक इन्हीं पर ध्यान देना था...और इन्हें ही ध्यान देना सिखाना भी था...!! लेकिन आप ने ऐसा नहीं किया..आप ने ध्यान के बँटवारे में भी रूचि नहीं लिया...अलबत्ता आप ध्यान का इंजेक्शन ही लगाते रहे...!

          शायद मेरी बातें अब भी समझ में न आई हों तो थोड़ा शार्टकट में समझाते हैं--

          उस दिन मेरे जल्दी-जल्दी खाना खा लेने के कारण पत्नी ने इसे मेरा बचपना कहा और इससे स्वास्थ्य खराब होने की चेतावनी देते हुए मुझे टोका था, तब मुझे अहसास हुआ कि खाना खाते समय कहीं किसी और ध्यान में मैं डूबा हुआ था। खाना खाते समय मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या खा रहा हूँ..? कैसे खा रहा हूँ..? खाने में स्वाद है या नहीं..? किस कौर को निगलना चाहिए..? किसे चबाना चाहिए..? आदि-आदि..! हाँ, इसका आशय यही है कि कोई काम करते समय हम उस काम पर ध्यान दिए बिना करते जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी कार्यकुशलता प्रभावित होती है और उस कार्य के परिणाम भी प्रभावित होते हैं। कोई काम करते समय उस काम पर ध्यान न देने की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब हम किसी अन्य विचार या धारणा से प्रभावित या उसमें डूबे हुए होते हैं| यह एक रोगी की ही स्थिति होती है, इस स्थिति में हमारी मनःस्थिति जैसे परतन्त्रता की शिकार बन जाती है| अब तो स्पष्ट हो गया होगा कि किसी ध्यान में डूब जाना कितना हानिकारक होता है, बहकना होता है।
        तो ये भाई लोग संघी को अपने साथ लेकर लोगों को रोगी बनाने चले थे...हाँ, तभी पहचान लिए गए...! गजब हो गया...भेद खुल गया..लोग फिर नशे से बिमार होने से बच गए...!! जैसे लोगों ने ध्यान दे दिया हो..!
        ...और ध्यान देना यह है - जो काम कर रहे हैं उस पर ध्यान देना उस काम के प्रति सचेत होना होता है और तब काम करने वाले को कोई नहीं बहका सकता। जबकि नशेड़ी तो बहक जाता है..सम्मोहित हो जाता है...परतंत्रता का शिकार हो जाता है...इनका दुरूपयोग कर इन्हें बिमारी का शिकार बना दिया जाता है...। हमारे देश में सदियों से लोगों के साथ यही होता रहा है...लोग बीमार बनते रहे हैं...।
           भाई लोगों ने इन्हें अब तक ध्यान में ही डुबो सम्मोहित करके रखा था और ये बेचारे कभी अपने काम पर ध्यान ही नहीं दे पाए..और तो और...हम भाई लोगों ने इनके हिस्से का ध्यान भी चुरा लिया...! इस चोरी के ध्यान-धन से ऊँचा बन बैठे..!!

           इतने दिनों तक ध्यान देने की क्षमता से वंचित इन बेचारों का स्वास्थ्य खराब बना रहा..! हम इनसे मनमाना कराते रहे क्योकि तब ये हमारे दिए गए ध्यान के नशे में डूबे कमजोर जो थे...!! अब ये भी जागना सीख रहे हैं..इन्हें सीखने दीजिए...इन्हें ध्यान में डुबोना नहीं इन्हें ध्यान देना सिखाइए...!! अन्यथा ये चोरी हुआ अपना ध्यान आपसे छीन लेंगे...क्योंकि अब इन्हें चोर और चोरी हुए माल का पता लग गया है..!! अपना अपराधबोध पहचानिए...!!! बिहार में लोगों ने ध्यान ही दिया है।
         ध्यान दीजिए आपका भी स्वास्थ्य अच्छा हो और आप सब के घरों में रोशनी का दिया टिमटिमाए इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएँ!

                  ------------------------(११-११-१५)  

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