सोमवार, 30 नवंबर 2015

मेरी वह अदृश्य धार्मिकता..?

बस यूँ ही 

           आज टहलते समय सुबह-सुबह कानों में आवाज पड़ी "अल्ला-हो-अकबर" इस ध्वनि को सुनकर मेरे मन में भी कुछ-कुछ भक्ति भावना सी जाग उठी!  लेकिन टहलने का क्रम जारी रहा..

     हाँ टहलने स्टेडियम तक जाता हूँ, मेरे आवास से यह स्टेडियम बारह सौ कदमों की दूरी पर है, और उस स्टेडियम का एक चक्कर आठ सौ पच्चीस कदम का होता है। अगर सबेरे पाँच बजे के आसपास उठ जाते हैं तो इस स्टेडियम का तीन चक्कर लगाते हैं नहीं तो दो चक्कर लगाकर वापस आ जाते हैं, वैसे कुल पाँच हजार कदमों के चलने का लक्ष्य लेकर चलते हैं..! हाँ कभी-कभी आलस के कारण टहलने नहीं भी जाते हैं क्योंकि मन किसी बन्धन में बँधने का नहीं भी होता और इस रूप में अपने आलस को जस्टीफाई भी कर लेते हैं.. 

         पहले इस तरह टहलने बाहर नहीं निकलते थे,  वहीं अपने लान में ही कुएं के मेढक की तरह चक्कर लगा लेते थे क्योंकि किसी का सामना न हो जाए यही सोचकर बाहर टहलने नही निकलता था। लेकिन वह तो श्रीमती जी की प्रेरणा से बाहर टहलने निकलने लगा..खैर.. 

         आज टहल कर जब अपने आवास पर आए तो "अल्ला-हो-अकबर" के सुनने से उपजी भक्ति-भावना अभी भी दिल पर तारी थी..अब मेरा भी मन कुछ-कुछ धार्मिक सा हो चला था...सोचने लगा अभी-अभी यह मन जो धार्मिक हुआ है क्या इसके पहले ऐसा नहीं था...? या फिर मन में उपजी यह धार्मिक भावना केवल कुछ क्षणों के लिए ही है..? तो क्या इस भावना के शान्त होते ही मन अधार्मिक हो जाएगा..?

          वैसे जब मन धार्मिक होता है तो कुछ करने का मन होता है, जैसे लगा कि भजन ही सुनने लगूँ..या फिर भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाऊँ..! और बस इसके बाद मेरी धार्मिकता संन्तुष्ट हो चुकी होगी...

         वैसे धर्म तो बहुत ही अदृश्य सी चीज होती है... दिखाई नहीं देती.. जब भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाऊंगा तो यह दिखाई देने लगेगी...ऐसे ही सबेरे टहलते समय कानों में पड़ी "आल्ला-हो-अकबर" की ध्वनि भी प्रगट रूप से किसी की धार्मिकता की अभिव्यक्ति थी जिसने मेरी धार्मिकता को जगाया था..! 

         फिर वह अदृश्य धार्मिकता क्या होती है..?  अरे भाई..!  वही कि चोरी न करो.. झूठ न बोलो..किसी को सताओ न (वैसे बेचारे कमजोर कहाँ किसी को सताते हैं ) हिंसा न करो वगैरह-वगैरह जैसे विचार..!  हाँ ये तो सभी धर्मों के अंग हैं..जो दैनंदिन व्यवहार के ही अंग होते हैं.. 

        तो जिस क्षण मन धार्मिक हुआ था तो क्या यह अदृश्य धार्मिकता भी मन पर तारी हुई थी..? हाँ..यही तो नहीं कह सकते..! बस जब धार्मिक मन होता है तो नहाने तक सब्र करते हैं, जैसे ही नहाते हैं झटपट दो अगरबत्ती अपने भगवान् के फोटू के सामने जला देते हैं और लोटकी में भरे ताजे पानी से आचमन भी कर लेते हैं...फिर भगवान् वाले फोटू को दो रामदाना दिखा जैसे अपने भगवान् को ललचाकर इसे अपने ही मुँह में डाल लेते हैं..! मतलब भगवान् का भी भोग लगा देते हैं..और मेरी धार्मिकता सम्पन्न हो चुकी होती है..!  वैसे यह नितांत निजी मामला है आपको नहीं बताना चाहिए था..लेकिन आजकल आर.टी.आई. का जमाना है.. तो कोई बात अब निजी नही रह पाएगी.. 

       आप कहेंगे मैं अपनी भक्ति या धार्मिक भावना का मजाक उड़ा रहा हूँ..! लेकिन भाई ऐसा नहीं है, मैं कभी-कभी अपने भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर भी खड़ा हो जाता हूँ...! तब वो क्या कहते हैं..? वही ईसाइयों में..! हाँ याद आ गया.. हाथ जोड़े हुए मैं कन्फेशन करता हूँ उस अदृश्य धार्मिकता को न निभा पाने के कारण..!! ऐसा करते-करते कभी आँखों में आँसू भी आ जाते हैं..! फिर विनती भी कर लेते हैं कि अगले दिन सामने खड़े होकर हाथ जोड़ने की औकात दे देना प्रभू..!

         वास्तव में ये सारे दिखाई पड़ने वाले धर्माडंम्बर हैं न..! वह उसी अदृश्य धार्मिकता के लिए ही हैं ; हम अपने-अपने तरीके से कन्फेशन करते हैं और जो ऐसा नहीं करते वही मेरा-तेरा धर्म कहते हुए विवाद करते हैं..

         मेरे इस कमरे में श्रीमती जी ने ही इस भगवान् के फोटू को..प्रसाद के लिए रामदाना की डिब्बी को..ताँबे की लोटकी को..और अगरबत्ती के पैकेट को..हाँ इन सब को उन्होंने ही रखा था...और मैंने उनकी ही धार्मिक आस्था को सम्मान देने के लिए इसे अपनी दिनचर्या में भी शामिल कर लिया है.. देखिये यह सब कब तक चलता है.. 

              "बस यूँ ही" जरा थोड़ा लम्बा हो गया..

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