सोमवार, 16 नवंबर 2015

हुँवाबाजी से लड़ता संस्था का पदाधिकारी....



          वह एक बेहद संवेदनशील आम आदमी के सरोकारों से संबंधित कार्यों वाले संस्था का पदाधिकारी था। वह अपने कामों को मनोयोग पूर्वक और आम आदमी के हितों को दृष्टि में रख करता जा रहा था। उस व्यक्ति की ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा पाता था।और वह व्यक्ति हमेशा अपने धारित पद से न्याय की कोशिश में लगा रहता।

       एक बार ऐसे ही वह अपने पद पर कार्य करता जा रहा था। उस संस्था से अनुचित तरीके से अपना स्वार्थसिद्ध करने वाले कुछ लोग हुआ करते थे जिनके अनुचित स्वार्थसिद्धि वाले हित संस्था के उस पदाधिकारी के कारण बाधित हो गए थे। संस्था के ये अनुचित लाभार्थी अपने व्यक्तिगत प्रयास करते हुए उसे उसके उद्देश्यों से कई बार डिगाने के भी प्रयास किए लेकिन वह पदाधिकारी अपने लक्ष्य से टस से मस नहीं होता तथा किसी भी दुरभिसंधि में अपने को सम्मिलित भी नहीं होने देता। हालांकि आम व्यक्ति उसके कार्यों से बेहद प्रसन्न रहते थे।

          अब संस्था से अनुचित लाभ पाने वाले स्वार्थी तत्व उसके कामों में मीन-मेख निकालने लगते। कुछ लोग तो यह भी दुष्प्रचारित करते कि वह लोगों का काम नहीं करता। हालांकि उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा न कर पाता लेकिन उसे हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास किया जाता।

            इस पूरी परिस्थिति में आम आदमी वास्तविक तथ्यों से अनजान इन्हीं स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में होता इसलिए वे भी उस व्यक्ति के पक्ष में खड़े नहीं होते थे। कभी-कभी संस्था से जुड़े ये स्वार्थी तत्व अाम आदमी को भी बरगलाकर संस्था के उस पदाधिकारी के विरुद्ध खड़ा कर देते। इन सब स्थितियों के बाद भी वह व्यक्ति संस्था के उद्देश्यों के लिए काम करता रहता और आम आदमी के हितों के लिए स्वार्थी तत्वों से टकराता रहता। इस टकराहट में कभी-कभी वह व्यक्ति अपने को अकेला पाता और लोगों की खिल्ली का भी शिकार बनता।

            एक दिन संस्था के निहित स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में एक ऊँची संस्था उस पर आरोप तय कर देती है और उस व्यक्ति को संस्था के उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया जाता है तथा अखबारों में विज्ञापित होता है कि एक संस्था के पदाधिकारी पर कार्यवाही और दूर का आम आदमी इन अन्दरूनी तथ्यों से अनजान खेल को समझ ही नहीं पाता। जबकि आम आदमी के बारे में सोचने वाला कोई व्यक्ति अब उस संस्था में नहीं था।

          इस समय देश में व्यर्थ के विवादों को बेहद तूल दिया जा रहा है इसपर बोलने और लिखने वाले भी जैसे अपने-अपने खेमे तय कर के बोल या लिख रहे हों। और इस खेमेबाजी में एक और तथ्य की झलक मिल रही है, जैसे यदि एक सियार हुँवां बोला तो इलाके के सारे सियार हुँवां-हुँवां बोलने लगते हैं। बस भय यही है कि इस हुँवांबाजी में अपने दायित्वों के प्रति सजग संस्था के किसी पदाधिकारी पर अनजाने कोई कार्यवाही न हो जाए।

                                                       ------------------------------

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें