गुरुवार, 7 जनवरी 2016

ये आदतें !


                उस दिन बस से ही मैं कहीं जा रहा था। सुबह-सुबह का ही समय था। मतलब उठें या न उठें या थोड़ी देर और सो लें जैसी जद्दोजहद में फँसे रहने वाला वही सुबह का समय था! बस में, ठीक ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर ही मैं बैठा था। बस चली जा रही थी। अचानक मुझे सिगरेट या बीड़ी सुलगाए जाने की गंध मिलने लगी थी। मैं पीछे उझक कर देखने का प्रयास किया कि यह गंध कहाँ से आ रही है? लेकिन इसके लिए उत्तरदायी कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया था। बस के अन्दर लाईट जल रही थी और बस के बाहर अभी तक अँधेरा ही था। इस अँधेरे को बस की हेडलाईट चीरती जा रही थी। इधर साथ ही किसी के द्वारा किए जा रहे धूम्रपान के इस धुएँ का मैं अहसास भी करता जा रहा था। बस में कौन अपने इस लत को पूरा कर रहा था इसे जानने का प्रयास मैंने छोड़ दिया क्योंकि ऐसे ही एक बार किसी को मैंने जब टोंका था तो पहले वह माना नहीं और बाद में खिल्ली उड़ाने के अन्दाज में पी चुकने के बाद ही सिगरेट फेंका था। मैं करता क्या झगड़ा तो कर नहीं सकता था केवल चुप लगा कर रह गया था।

            इसी समय मैंने बस के कंडक्टर को ठंडी हवाओं के बस के अन्दर आने के कारण बस की खिड़की को बन्द कर लेने के लिए कहते हुए एक यात्री से बहस करते देखा। फिर उस यात्री ने ड्राइवर की ओर इशारा करते हुए खिड़की के शीशे को खींच दिया था। मैंने ध्यान दिया यह बस ड्राइवर ही बीड़ी पर बीड़ी सुलगाए जा रहा था। 

             मैं मन ही मन सोचने लगा कि बस चलाते हुए इतनी सुबह ही इसे बीड़ी पीने की कौन सी आफत आ पड़ी थी। फिर सोचा, नशे की ये आदतें ऐसी ही होती हैं, आदमी बेचारा अपनी इन आदतों के सामने विवश हो जाता है। उसे भी टोकने का मेरे मन में खयाल आया लेकिन सोचा ड्राइवर को बीड़ी पीने से टोकने पर एक तो उसे बुरा लगेगा दूसरे वह तर्क देगा कि तरोताजा होने और चैतन्य होने के लिए मुझे तो यह करना ही है। यह छूट नहीं सकती। इसके बिना मैं बेचैन हो जाऊँगा। 

           फिर मेरा ध्यान अपने ऊपर गया। इसी तरह फेसबुक पर और आनलाइन रहने का भी अपना एक नशा होता है। एक बार जब मैंने तय किया कि आज दिन भर मुझे फेसबुक या किसी भी तरह के आनलाइन क्रियाकलापों से दूर रहना है तो दिन में कई बार मुझे जबरन इसका प्रयास करना पड़ा और शाम को तो जैसे हलका सा सिरदर्द ही होने लगा था, शायद यह दर्द भी एक तरह के लत से दूर रहने की जद्दोजहद से ही उपजा हो।

          वास्तव में नशा या लत किसी पदार्थ के जैविक प्रभाव से उत्पन्न नहीं होता, मतलब हमें नशे में डालने के लिए कोई वाह्य कारक भी उत्तरदायी नहीं है। बल्कि किसी चीज के प्रति हमारी आदतें ही नशा या लत होती हैं। कभी-कभी एक विशेष अनुभव से गुजरने की आदत ही नशा बन जाती है और बुरी आदतों का नशा ही हानिकारक होता है। कोई भी आदत धीरे-धीरे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में बदल शरीर को जैविक तरीके से भी प्रभावित करने लगता है और इन आदतों से प्रभावित हमारा शरीर इसके लाभ या हानि से भी प्रभावित हो जाता है। बुरी आदतों से हमारा स्वास्थ्य तथा व्यवहार दोनों खराब हो जाता है। नशे के मामले में भी यही होता है। 

           आदतों से छुटकारा पाना स्वयं को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से मुक्त करना होता है, जो बेहद कठिन होता है। यहाँ बहुत सजगता की आवश्यकता होती है। खासकर नशे जैसी किसी आदत नामक चीज से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी प्रारम्भिक चरण में तमाम तरह के शारीरिक दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन यह केवल मानसिक अवस्था को प्रभावित करने वाला लक्षण मात्र ही है जो धीरे-धीरे नशे जैसी आदतों में सुधार होने के साथ ही गायब हो जाता है। 

     इतनी लम्बी बात बस ड्राइवर को हम उस समय नहीं समझा सकते थे। सोचा कहीं मेरे इस नशा-मुक्ति उपदेश पर यह ड्राइवर खिसिया गया तो चलती यह बस डिसबैलेंस हो जाएगी और सब धरा का धरा रह जाएगा। फिर मैंने भी अनचाहे धूम्रपान के इस धुएँ से मुक्ति पाने के लिए बस की खिड़की के शीशे को थोड़ा खिसका दिया और सीधे नाक पर बाहर की शुद्ध हवा लेने लगा था।

        कुछ ही क्षणों बाद मैंने अनुभव किया कि हाई-वे पर दौड़ी जा रही यह बस अप्रत्याशित रूप से अपने दाहिने अधिक कट रही थी। ध्यान दिया तो मैंने पाया कि बस ड्राइवर अपने जेब से गुटखा जैसे पाउच को निकाल उसे मुँह में डालने का प्रयास कर रहा था। इसी दौरान शायद उसके हाथों का नियन्त्रण बस के स्टेयरिंग पर न होकर गुटखे के पाउच पर हो गया था। ठीक उसी समय पीछे से किसी ट्रक ने हार्न बजाया और बस ड्राइवर बस के स्टेयरिंग पर पुनः नियन्त्रण स्थापित करते हुए बस को बाएं लाते हुए ट्रक को आगे जाने का रास्ता दिया था। मुझे लगा कभी-कभी ऐसी ही लापरवाहियों का खामियाजा यात्रियों को भुगतना पड़ जाता है। 

      एक बात है, आदतों का भी गजब का मनोविज्ञान होता है। आदतें अच्छी या बुरी ही नहीं बल्कि हानि या लाभ देने वाली भी होती हैं। मतलब अपनी अच्छी आदतों के बलबूते लोग आसमान चूम लेते हैं तो बुरी आदतें लोगों को पतन के गर्त में ढकेल देती हैं। आशय यही कि आदतों का नशा हमारे लिए कई तरह के परिणाम लाते हैं। 

           यह भी देखने में आता है कि जिन व्यक्तियों में अच्छी या बुरी जैसी किसी भी आदत को गढ़ लेने की क्षमता नहीं होती वे विश्रृंखलित व्यक्तित्व के ही मालिक होते हैं, मतलब उनमें विखराव ही अधिक होता है और वे किसी भी लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और फिर जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। वैसे अच्छी आदतों वाले बिना किसी विशेष प्रतिभा के भी शिखर पर पहुँच जाते हैं। 
      
       बिडम्बना यह भी है कि इन आदतों को क्या कहा जाए जिसका साइड इफेक्ट उन दूसरों पर पड़ता रहता है जो ऐसी किसी भी आदत से दूर रहते हैं। लेकिन उन बेचारों को दूसरों की आदतों को ढोना भर होता है! वैसे ही जैसे एक कार्यालय के साहब रजनीगंधा और राजश्री के तलबगार थे और जब वे तलब मिटा रहे होते थे तो उनका अटेंडेंट बेचारा अपने हाथों में पीकदान लिए उनके पीछे-पीछे चलता था। मुँह में पीक भरने पर जब साहब जी "हूँ " की ध्वनि निकालते हुए उसकी ओर देखते तो वह अटेंडेंट बेचारा तुरन्त समझ जाता था और झट से पीकदान साहब के मुँह के आगे कर देता और साहब का पिच्च पीकदान में! यह उस अटेंडेंट की मजबूरी बन और उसकी आदत में शुमार हो गया था। आम आदमी तो इन साहबों के कार्यालयों के कोनों को ही पीकदान के रूप में प्रयोग कर लेता है। इसी तरह बस में बैठे-बैठे हम भी तो ड्राइवर की आदत को कुछ क्षणों के लिए ढोने लगे थे। हालाँकि ठीक उसके सिर के ऊपर ही लिखा था "धूम्रपान निषेध" लेकिन लिखा रहे इसका क्या यह तो लिखा ही रहता है। मैंने भी इस लिखे का अर्थ निषेध के प्रतिषेध के रूप में ही ग्रहण किया। अब कानून की किताबों में भी तो सब कुछ लिखा है लेकिन क्या कोई कानून टूटने से रह जाता है? 

       उस चलती बस में मेरी बातचीत एक परिचित से होने लगी थी। उन्होंने मुझे बताया कि एक लड़के वाले ने दो लाख के चक्कर में उनकी बेटी की शादी नहीं मानी। लड़के वाले बीस लाख माँग रहे थे और वे किसी तरह से फंड पेंशन से अट्ठारह लाख इकट्ठा कर देने के लिए तैयार थे। अब पता नहीं लड़के वाले किस आदत के शिकार थे यह भी एक शोध का विषय बन सकता है। 

         बातों-बातों में एक अन्य व्यक्ति की भी चर्चा हुई थी जिसकी पत्नी का देहांत तब हो गया था जब उसके दो बच्चे पांच-छह साल के रहे होंगे। उस समय उस व्यक्ति की पुनः विवाह के लिए लोगों ने काफी प्रयास किया था लेकिन अपने बच्चों के खातिर विवाह करने से मना कर दिया। आज उनकी बेटी कुछ बड़ी हो गई है वह अपने छोटे भाई को तैयार कर स्कूल भेजती है तथा पिता के लिए भी टिफिन तैयार कर फिर स्वयं स्कूल जाती है। 

         कहने का आशय यही है इन सारी बातों के पीछे हमारी कोई न कोई आदत ही होती है जो हमारी ऐसी सोच बनाती है या फिर हमारी कोई सोच ही होती है जो हमारी आदत बन जाती है। यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि सोच से ही आदतें बनती हैं। लेकिन सोच बहुत अच्छी होने पर भी हम कभी न कभी कुछ न कुछ बुरा कर बैठते है। इसका उदाहरण समाज में मिलता रहता है। आखिर ऐसा क्यों? 

           क्योंकि बातें बस यही है कि सोचते तो हम बहुत अच्छा हैं लेकिन इस सोच के ही अनुरूप हमारी आदतें नहीं होती इसीलिए हमसे गलतियाँ भी हो जाती हैं। हमारी अच्छी आदतें ही हमें गलतियों से बचाती हैं। 

         नशा तो अच्छी आदतों का ही होना चाहिए न कि किसी नशे की आदत!

सोमवार, 30 नवंबर 2015

बस यूँ ही (आत्म्द्रष्टा)

                बड़ी विचित्र स्थिति है देश में..! देश की सारी बौद्धिक उर्जा मात्र धर्म-निरपेक्षता, सहिष्णुता-असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर ही खर्च हो जा रही है: पता नहीं बाकी चीजों के लिए यह उर्जा बचेगी भी या नहीं? या बाकी चीजें हों ही न और देश की सारी समस्या की जड़ इसी में हो? क्या किया जा सकता है जब कुछ लोगों के लिए इस चर्चा में ही लाभ दिखाई दे रहा हो। 

              खैर नेताओं की छोड़िए उनकी तो रोजी-रोटी ही ऐसी चर्चाओं पर निर्भर करती है, चिन्ता तो तब होती है जब अपने-अपने कौम के तथाकथित बुद्धिजीवी ठेकेदार हर समय इन्हीं चर्चाओं में मशगूल दिखाई देते हैं और सभी अपने को ही सही ठहराने की कोशिश में लगे रहते हैं, जैसे उन्हें अपनी कौम की अन्य चिन्ताओं पर सोचने की फुर्सत ही नहीं..! 

               क्या इन बातों से समाज में जहर नहीं फैलता..? वास्तव में हम स्वयं असहिष्णु हैं। तभी तो आजादी के बाद हम घूम फिर के वहीं आ जाते हैं जहाँ से चले थे।

             इससे तो अच्छा है सुबह-सुबह टहलने निकल जाइए और उगते सूरज को भी निहार लीजिए..दिमाग फ्रेश हो जाएगा और कम से कम कुछ ही देर के लिए ही सही इस खुराफाती बुद्धि से मुक्ति मिल जाएगी। 

            एक बात और बता दें ज्यादा किताबें पढ़ने से  बुद्धि के भ्रमित हो जाने की भी सम्भावना रहती है क्योंकि तब इस बुद्धि पर अपना कन्ट्रोल नहीं रह जाता और आप जानते ही हैं कि बिना हैंडिल-ब्रेक के गाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो जाती है या फिर यह गाड़ी किसी निर्दोष पर चढ़ जाती है। मतलब यही कि किताबें पढ़कर हम ग्यान तो झाड़ लेंगे लेकिन शायद ही आत्मद्रष्टा बन पाएँ..?

               दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि इसका मतलब यह नहीं कि मैं पुस्तक विरोधी हूँ..और न ही किसी प्रकाशक लेखक के पेट पर लात मारने का इरादा है, बस कुल जमा यह कहना चाहते हैं कि तनिक अपने ओर भी निहार लिया करें.. 

              हाँ...भगवान् बुद्ध ने भी कोई किताब पढ़कर आत्मदीपो भव का उपदेश नहीं दिया था.. आत्मचिंतन और ध्यान से ही यह सब उन्होंने पाया था..!

           तो भाई लोग हम सब थोड़ा सा ही सही आत्म-चिंन्तन किया करें तब निश्चित रूप से आप भी मुस्कराएंगे और दूसरे तो खैर आपको देखकर ही मुस्कुरा लेंगे।

मेरी वह अदृश्य धार्मिकता..?

बस यूँ ही 

           आज टहलते समय सुबह-सुबह कानों में आवाज पड़ी "अल्ला-हो-अकबर" इस ध्वनि को सुनकर मेरे मन में भी कुछ-कुछ भक्ति भावना सी जाग उठी!  लेकिन टहलने का क्रम जारी रहा..

     हाँ टहलने स्टेडियम तक जाता हूँ, मेरे आवास से यह स्टेडियम बारह सौ कदमों की दूरी पर है, और उस स्टेडियम का एक चक्कर आठ सौ पच्चीस कदम का होता है। अगर सबेरे पाँच बजे के आसपास उठ जाते हैं तो इस स्टेडियम का तीन चक्कर लगाते हैं नहीं तो दो चक्कर लगाकर वापस आ जाते हैं, वैसे कुल पाँच हजार कदमों के चलने का लक्ष्य लेकर चलते हैं..! हाँ कभी-कभी आलस के कारण टहलने नहीं भी जाते हैं क्योंकि मन किसी बन्धन में बँधने का नहीं भी होता और इस रूप में अपने आलस को जस्टीफाई भी कर लेते हैं.. 

         पहले इस तरह टहलने बाहर नहीं निकलते थे,  वहीं अपने लान में ही कुएं के मेढक की तरह चक्कर लगा लेते थे क्योंकि किसी का सामना न हो जाए यही सोचकर बाहर टहलने नही निकलता था। लेकिन वह तो श्रीमती जी की प्रेरणा से बाहर टहलने निकलने लगा..खैर.. 

         आज टहल कर जब अपने आवास पर आए तो "अल्ला-हो-अकबर" के सुनने से उपजी भक्ति-भावना अभी भी दिल पर तारी थी..अब मेरा भी मन कुछ-कुछ धार्मिक सा हो चला था...सोचने लगा अभी-अभी यह मन जो धार्मिक हुआ है क्या इसके पहले ऐसा नहीं था...? या फिर मन में उपजी यह धार्मिक भावना केवल कुछ क्षणों के लिए ही है..? तो क्या इस भावना के शान्त होते ही मन अधार्मिक हो जाएगा..?

          वैसे जब मन धार्मिक होता है तो कुछ करने का मन होता है, जैसे लगा कि भजन ही सुनने लगूँ..या फिर भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाऊँ..! और बस इसके बाद मेरी धार्मिकता संन्तुष्ट हो चुकी होगी...

         वैसे धर्म तो बहुत ही अदृश्य सी चीज होती है... दिखाई नहीं देती.. जब भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाऊंगा तो यह दिखाई देने लगेगी...ऐसे ही सबेरे टहलते समय कानों में पड़ी "आल्ला-हो-अकबर" की ध्वनि भी प्रगट रूप से किसी की धार्मिकता की अभिव्यक्ति थी जिसने मेरी धार्मिकता को जगाया था..! 

         फिर वह अदृश्य धार्मिकता क्या होती है..?  अरे भाई..!  वही कि चोरी न करो.. झूठ न बोलो..किसी को सताओ न (वैसे बेचारे कमजोर कहाँ किसी को सताते हैं ) हिंसा न करो वगैरह-वगैरह जैसे विचार..!  हाँ ये तो सभी धर्मों के अंग हैं..जो दैनंदिन व्यवहार के ही अंग होते हैं.. 

        तो जिस क्षण मन धार्मिक हुआ था तो क्या यह अदृश्य धार्मिकता भी मन पर तारी हुई थी..? हाँ..यही तो नहीं कह सकते..! बस जब धार्मिक मन होता है तो नहाने तक सब्र करते हैं, जैसे ही नहाते हैं झटपट दो अगरबत्ती अपने भगवान् के फोटू के सामने जला देते हैं और लोटकी में भरे ताजे पानी से आचमन भी कर लेते हैं...फिर भगवान् वाले फोटू को दो रामदाना दिखा जैसे अपने भगवान् को ललचाकर इसे अपने ही मुँह में डाल लेते हैं..! मतलब भगवान् का भी भोग लगा देते हैं..और मेरी धार्मिकता सम्पन्न हो चुकी होती है..!  वैसे यह नितांत निजी मामला है आपको नहीं बताना चाहिए था..लेकिन आजकल आर.टी.आई. का जमाना है.. तो कोई बात अब निजी नही रह पाएगी.. 

       आप कहेंगे मैं अपनी भक्ति या धार्मिक भावना का मजाक उड़ा रहा हूँ..! लेकिन भाई ऐसा नहीं है, मैं कभी-कभी अपने भगवान् के फोटू के सामने हाथ जोड़कर भी खड़ा हो जाता हूँ...! तब वो क्या कहते हैं..? वही ईसाइयों में..! हाँ याद आ गया.. हाथ जोड़े हुए मैं कन्फेशन करता हूँ उस अदृश्य धार्मिकता को न निभा पाने के कारण..!! ऐसा करते-करते कभी आँखों में आँसू भी आ जाते हैं..! फिर विनती भी कर लेते हैं कि अगले दिन सामने खड़े होकर हाथ जोड़ने की औकात दे देना प्रभू..!

         वास्तव में ये सारे दिखाई पड़ने वाले धर्माडंम्बर हैं न..! वह उसी अदृश्य धार्मिकता के लिए ही हैं ; हम अपने-अपने तरीके से कन्फेशन करते हैं और जो ऐसा नहीं करते वही मेरा-तेरा धर्म कहते हुए विवाद करते हैं..

         मेरे इस कमरे में श्रीमती जी ने ही इस भगवान् के फोटू को..प्रसाद के लिए रामदाना की डिब्बी को..ताँबे की लोटकी को..और अगरबत्ती के पैकेट को..हाँ इन सब को उन्होंने ही रखा था...और मैंने उनकी ही धार्मिक आस्था को सम्मान देने के लिए इसे अपनी दिनचर्या में भी शामिल कर लिया है.. देखिये यह सब कब तक चलता है.. 

              "बस यूँ ही" जरा थोड़ा लम्बा हो गया..

बुधवार, 18 नवंबर 2015

भोथरे नोक वाले कलमों की पीड़ा

       एक बात है किसी बुराई के विरूद्ध खड़े आवाज के विरोध में कोई भी तर्क खड़ा नहीं किया जा सकता। इस तथ्य का लाभ किसी बुराई के विरुद्ध आवाज उठाने वाले व्यक्ति की आलोचना करने वाले आलोचक के लिए सुरक्षा-कवच के रूप में मिल सकता है। साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त लेखकों की पुरस्कार वापसी के कारण हो रही उनकी आलोचना में यही तथ्य काम कर रहा है और इस क्रम में साहित्यकारों की हो रही आलोचना निष्प्रभावी है।

        लेकिन साहित्यकारों द्वारा उठाया गया यह एक बहुत बड़ा कदम है। प्रथम तो यही कि क्या देश के ऐसे हालात हो गए हैं कि इस तरह के कदम उठाए जाएं? वास्तव में हालात कुछ भी हों फिर भी साहित्यकारों को ऐसे कदम उठाने के पहले एक बार अवश्य सोचना चाहिए। पुरस्कार लौटाकर ये साहित्यकार एक महत्वपूर्ण लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। जिस बढ़ती साम्प्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठाई गई है उस लड़ाई के भविष्य में कमजोर पड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। क्योंकि एक स्वांग से बेहतर होता है समाज के गहरे में उतर कर इन बुराईयों के विरुद्ध ठोस वैचारिक धरातल बनाना और इस रूप में एक वास्तविक लड़ाई लड़ना जो समाज को प्रभावित कर सके। इन साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के कदम ने उन्हें किसी विचारधारा के विरोध में न दिखाते हुए मात्र एक संवैधानिक सरकार के विरोध में दिखा दिया है।


         भारतीय समाज एक जटिल ताने-बाने से निर्मित समाज है यहाँ सरकारें भी सामाजिक सोच से बनती बिगड़ती हैं। स्वयं लेखकों की प्रतिबद्धताएं भी विभाजित रही हैं। यदि ऐसा न होता तो दलितों की पीड़ा के लिए दलित साहित्य का जुमला न चला होता। इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये लेखक अपने सामाजिक अनुभव और उससे उपजे सरोकार को सीमाओं में बाँधते हैं। लेखकों की इस विभाजित प्रतिबद्धताओं का इस्तेमाल उनके पुरस्कार वापसी के ब्रह्मास्त्र के विरूद्ध किया जा सकता है। भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में इस कार्य में लेखकों की अपेक्षा नेतृत्व वर्ग ही सफलता अर्जित करेगा। स्वयं लेखकों के इस कदम ने एक अलग तरीके के सम्प्रदायवाद की राजनीति करने का श्रीगणेश कर दिया है। और एक तथ्य यह भी है कि एक वैचारिक ध्रुवीकरण एक दूसरे तरह के वैचारिक ध्रुवीकरण को जन्म दे दिया करता है चाहे यह साहित्यिक या लेखकीय ही क्यों न हो, और मुख्य मुद्दा नेपथ्य में जा सकता है। एक तरह की राजनीतिक लड़ाई को पुरस्कार वापसी वाले इन साहित्यकारों ने हथियाने की चेष्टा की है और इस रूप में ये राजनीतिक मोहरे बनते जा रहे हैं।यहाँ इनके कलमों के नोक अब भोथरे दिखाई देने लगे हैं। इस कृत्य को कलम की लड़ाई मानना भी भूल होगा क्योंकि कलम की स्याही ही स्थाई और असरकारी होती है। अन्त में इन पुरस्कृत साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के कृत्य में एक दोष दिखाई देता है वह यह कि ये लोग किसी पीड़ा का सामान्यीकरण करते नहीं दिखाई दे रहे बल्कि कुछ घटनाओं का ही सामान्यीकरण करते दिखाई देते हैं।     

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ये धार्मिक संगठन

                 वैसे कोई भी संगठन या संघ हो इनके उद्देश्यों को लेकर मन में हमेशा ही संदेह रहा है...खासकर भारतीय संविधान के अंगीकरण के पश्चात ! वैसे ऐसे किसी यूनियन या संगठन की आवश्यकता तभी हो सकती है जब किसी व्यक्ति या संस्था के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा संवैधानिक संस्थाओं द्वारा न हो पा रही हो | लेकिन गैर संवैधानिक संगठन अपने असंवैधानिक अधिकारों के लिए ही अधिक प्रयत्नशील दिखाई देते हैं| यह प्रवृत्ति विशेषकर धार्मिक संगठनों में ही अधिक दिखाई देती है| ये धार्मिक संगठन अपने संगठन को और अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए तथा अपने लिए अधिक जनसमर्थन जुटाने के लिए अपने धार्मिक समुदायों में तमाम तरह के धार्मिक भावनाओं को उभारने की कोशिश भी करते रहते हैं| भारत जैसे बहुधार्मिक वाले राष्ट्र के लिए यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि ऐसे संगठन एक दूसरे धार्मिक समुदाय की प्रतिक्रिया में ही खड़े दिखाई देते हैं और इस रूप में यह असंवैधानिक है, ऐसे किसी भी धार्मिक संगठन को यदि ये संगठन अपने समुदाय में अन्तर्निहित दुष्प्रवृत्तियों को नहीं पहचानते और इसके लिए सुधारात्मक उपाय नहीं करते तो ये संगठन देशद्रोही संगठन की श्रेणी में माने जाने चाहिए| वैसे हमारी संस्थाओं का भी एक प्रमुख दायित्व यह देखना भी है कि ऐसे धार्मिक संगठनों का उदय आखिर किन परिस्थितियों में होता है? 
         
                विश्व हिन्दू परिषद् भी एक धार्मिक संगठन है और निश्चित रूप से तमाम धार्मिक संगठनों वाली बुराइयाँ इस संगठन में भी हैं, मैं एक हिन्दू हूँ और इसमें किसी धार्मिक संगठन का कोई योगदान नहीं है, हाँ भारतीय नागरिक हूँ इसमें भारतीय संविधान का योगदान अवश्य है| राम मंदिर आन्दोलन को  छोड़कर जिसके कारण भारतीय नागरिकों के बीच अविश्वास की खाई ही चौड़ी हुई है इसे छोड़ इस संगठन का कोई योगदान दिखाई नहीं देता और इस योगदान को भी देश भक्ति की श्रेणी में नहीं माना जा सकता| अब ऐसे संगठनों के नेताओं को आप किस श्रेणी में मानते हैं इसका सर्वाधिकार आप में निहित है|

पंचायतीराज..

         गजब का झुनझुना है यह.! अरे वही पंचायतीराज का..! आते-जाते दो दिनों से ब्लाक कार्यालय को देख रहा हूँ.. पंचायतीराज के भावी उम्मीदवारों से अटा पड़ा है इस कार्यालय का परिसर में तिल रखने की जगह नहीं...जैसे, किसी नौकरी के खाली पद की वैकेंसी के लिए मारामारी मची हो...!

          फिलहाल पंचायतों के प्रतिनिधियों के लिए कोई वेतन-सेतन की व्यवस्था तो है नहीं...महीने पर इनको थोड़ा-बहुत मिलने वाला मानदेय भी सरकारी अमले के स्वागत-सत्कार में ही खर्च हो जाता होगा..! लेकिन फिर भी इन पदों के लिए इतनी मारामारी...!!
  
          हो सकता है लोगों में जबरदस्त जनसेवा का भाव छिपा हो....और अवसर देख यह भावना प्रकट होने के लिए बेताब हो रही हों..? तब तो एक बात है हमारे देश के निवासियों में जनसेवा की बड़ी प्रबल भावना छिपी हुई है...! अन्दर ही अन्दर यह भावना लोगों के हृदयों में कुनमुनाती रहती है...बस उचित अवसर मिला नहीं कि यह बाहर निकल हिलोरें मारने लगती है...चुनाव भी तो आखिर जनसेवा के लिए ही होते है...हाथ जोड़े भावी प्रतिनिधियों की मंशा तो यही कहती है...इसके अलावा तो मुझे कोई और भावना नहीं दिखाई देती..इसके पीछे अन्य बात सोचना...फिर तो जनप्रतिनिधि का अपमान होगा....या फिर...
       
       "जिसके दरवाजे पर सुबह-सुबह ही चार-छह-दस लोग इकट्ठे न हो जाएँ तो फिर वह कौन सा आदमी..? फिर तो उसके लिए चुल्लू भर पानी में डूबने के समान है...हाँ साहब जी, गाँव में रहना है तो बिना इसके गाँव में रहना बेकार है...! बहुत दिन से परधानी रही है..अबकी साहब..! देखो कौन सीट होती है..? चुनाव न लड़ पाए तो लड़ावेंगे जरूर...मुला साहब इन नए लड़िकन क कौन कहे..ये ससुरे..कहु के घरे में मुँह-अँधेरे कूदो जैइहें लेकिन नेता जी थाने से इन्हें छुड़ाये दैहें...फिर ये ससुरे दिन उजाले गाँव भर में नेता बने फिरे...और गाँव वाले इनसे डरे ऊपर से...! हाँ थोड़ा-बहुत खतरा इन्हैं से है...लेकिन साहब, मने भी कम नहीं खेले...मेरे सामने किसी की न चली..बस बड़कौने नेतवौ को थोड़ा साधे के पड़े.."


             हाँ...कुछ यही बातें कही थी गाँव के उस पंचायत प्रतिनिधि ने...मुझे गाँव में मिनरल वाटर पिलाते हुए..! हो सकता है गाँव-गाँव से ब्लाक कार्यालय पर पंचायत चुनाव नामांकन के लिए आई इस भीड़ का एक कारण यह भी हो...खैर..

            कुछ भी हो गजब का है यह पंचायतीराज..! ये बड़कौने पंचायत वाले छोटकउने पंचन को कठपुतली बना लेते हैं..। ये कहते हैं -


                "भाई उलझे रहो अपनी पंचायत में..तुम भी सजा लो अपना दरबार...हमें क्या फर्क पड़ता है..! सदियों से सब लोग दरबार ही तो सजाते आए हैं यहाँ..!  लेकिन यदि हमारी ओर जरा भी देखने की कोशिश किये तो तुम्हारा भी पिटारा खोलते हमें देर नहीं लगेगी..! बड़े आए विकास कराने वाले..! बड़ी जतन से पास कराकर यह पंचायतीराज वाला झुनझुना तुमको दिए हैं....बजाते रहो इसे..!!"
                        ----------------विनय

सोमवार, 16 नवंबर 2015

हुँवाबाजी से लड़ता संस्था का पदाधिकारी....



          वह एक बेहद संवेदनशील आम आदमी के सरोकारों से संबंधित कार्यों वाले संस्था का पदाधिकारी था। वह अपने कामों को मनोयोग पूर्वक और आम आदमी के हितों को दृष्टि में रख करता जा रहा था। उस व्यक्ति की ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा पाता था।और वह व्यक्ति हमेशा अपने धारित पद से न्याय की कोशिश में लगा रहता।

       एक बार ऐसे ही वह अपने पद पर कार्य करता जा रहा था। उस संस्था से अनुचित तरीके से अपना स्वार्थसिद्ध करने वाले कुछ लोग हुआ करते थे जिनके अनुचित स्वार्थसिद्धि वाले हित संस्था के उस पदाधिकारी के कारण बाधित हो गए थे। संस्था के ये अनुचित लाभार्थी अपने व्यक्तिगत प्रयास करते हुए उसे उसके उद्देश्यों से कई बार डिगाने के भी प्रयास किए लेकिन वह पदाधिकारी अपने लक्ष्य से टस से मस नहीं होता तथा किसी भी दुरभिसंधि में अपने को सम्मिलित भी नहीं होने देता। हालांकि आम व्यक्ति उसके कार्यों से बेहद प्रसन्न रहते थे।

          अब संस्था से अनुचित लाभ पाने वाले स्वार्थी तत्व उसके कामों में मीन-मेख निकालने लगते। कुछ लोग तो यह भी दुष्प्रचारित करते कि वह लोगों का काम नहीं करता। हालांकि उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा न कर पाता लेकिन उसे हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास किया जाता।

            इस पूरी परिस्थिति में आम आदमी वास्तविक तथ्यों से अनजान इन्हीं स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में होता इसलिए वे भी उस व्यक्ति के पक्ष में खड़े नहीं होते थे। कभी-कभी संस्था से जुड़े ये स्वार्थी तत्व अाम आदमी को भी बरगलाकर संस्था के उस पदाधिकारी के विरुद्ध खड़ा कर देते। इन सब स्थितियों के बाद भी वह व्यक्ति संस्था के उद्देश्यों के लिए काम करता रहता और आम आदमी के हितों के लिए स्वार्थी तत्वों से टकराता रहता। इस टकराहट में कभी-कभी वह व्यक्ति अपने को अकेला पाता और लोगों की खिल्ली का भी शिकार बनता।

            एक दिन संस्था के निहित स्वार्थी तत्वों के प्रभाव में एक ऊँची संस्था उस पर आरोप तय कर देती है और उस व्यक्ति को संस्था के उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया जाता है तथा अखबारों में विज्ञापित होता है कि एक संस्था के पदाधिकारी पर कार्यवाही और दूर का आम आदमी इन अन्दरूनी तथ्यों से अनजान खेल को समझ ही नहीं पाता। जबकि आम आदमी के बारे में सोचने वाला कोई व्यक्ति अब उस संस्था में नहीं था।

          इस समय देश में व्यर्थ के विवादों को बेहद तूल दिया जा रहा है इसपर बोलने और लिखने वाले भी जैसे अपने-अपने खेमे तय कर के बोल या लिख रहे हों। और इस खेमेबाजी में एक और तथ्य की झलक मिल रही है, जैसे यदि एक सियार हुँवां बोला तो इलाके के सारे सियार हुँवां-हुँवां बोलने लगते हैं। बस भय यही है कि इस हुँवांबाजी में अपने दायित्वों के प्रति सजग संस्था के किसी पदाधिकारी पर अनजाने कोई कार्यवाही न हो जाए।

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